‘सामाजिक न्याय की चुनावी राजनीति और सांप्रदायिक गठजोड़'
विषयक गोष्ठी में बोले वक्ता, बेटियों के अपमान पर ही टिकी है सांप्रदायिक-जातिवादी
राजनीति।
वनांचल न्यूज़ नेटवर्क
लखनऊ। जो जातिवादी होगा, वह सांप्रदायिक होगा और जो सांप्रदायिक होगा,
वह जातिवादी होगा। इनका गहरा संबन्ध है। सामाजिक न्याय की
लड़ाई जातिवादी दिशा में भटक गई है। यह इसलिए हुआ क्योंकि चुनावी राजनीति के लिए
ऐसा करना कुछ राजनीतिक पार्टियों के लिए लाभकारी हो सकता है। सामाजिक न्याय की
लड़ाई का मूल्यांकन इस तरह से करना चाहिए, क्या कारण है कि इस दौर में सांप्रदायिकता का विस्तार तेजी
से हुआ है? दलित उत्पीड़न घटना नहीं, विचारधारा है। दलित उत्पीड़न के उन तमाम औजारों का इस्तेमाल
देश के अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ भी किया जाता रहा है। गाय के बहाने यदि
अल्पसंख्यकों पर हमले होते हैं तो उन हमलों से दलितों को भी नहीं बचाया जा सकता।
इस तरह दलित उत्पीड़न और सांपद्रायिक उत्पीड़न एक ही है। जो दलित विचारधारा की
राजनीति करने का दावा करते हैं, वह वास्तविक विचारधारा की लड़ाई नहीं लड़ते हैं,
बल्कि दलित जातियों का वोट बैंक सत्ता पाने के अवसरों के
रूप में करते हैं। चुनाव की राजनीति महज वोटों के गठजोड़ से नहीं होती,
बल्कि उसका जोर सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक मुद्दों पर
एकताबद्ध वोटों में विभाजन की बनावटी दीवार खड़ी करने की भी होती है। दलित चेतना के
उत्पीड़न के लिए सामाजिक न्याय की चुनावी पार्टियां भी राज्य मशीनरी का उतना ही दुरुपयोग करती हैं,
जितना कि सांप्रदायिक विचारधारा की पार्टियां सांप्रदायिक
हमले के लिए करती हैं। जो मुसलमान धार्मिक हैं, वह सांप्रदायिक नहीं है और जो हिंदू सांप्रदायिक है,
वह धार्मिक नहीं हैं।