शनिवार, 2 जुलाई 2016
शुक्रवार, 1 जुलाई 2016
पत्रकारिता के प्ररितों के लिए प्रेरक रवीश कुमार का पत्र
हिन्दी पत्रकारिता का हाल देख लीजिए। इसका जनाधार है मगर कोई आधार नहीं है। दायरा सीमित है और स्तर विवादित। अपवाद की बात मत कीजिये। दूसरा किसी में हिम्मत नहीं है विश्व स्तरीय पत्रकारिता करने की। संसाधन बहाना है। अचानक कहाँ से पैसा आ गया प्रधानमंत्री का यात्रा कवर करने के लिए। पहले तो ये इतनी संख्या में रिपोर्टर भी नहीं भेजते थे। हिन्दी पत्रकारिता अपने जनाधार को असरदार नहीं बनाती बल्कि किसी राजनीतिक प्रभाव के विस्तार में आसानी से सहायक बन जाती है...
मेरे प्यारे प्रेरितों,
आप सभी जब ककड़ी की तरह खिच्चा खिच्चा उम्र में मुझसे टकरा जाते हैं तो मैं
थोड़ा अवसाद से भर जाता हूँ। ऐसा नहीं कि आप योग्य नहीं हैं या आप आगे जाकर कुछ
नहीं करेंगे। आप में से कुछ क़ाबिल भी होते हैं और कई झोल भी। कई बार झोल अच्छा कर
जाते हैं और क़ाबिल झोल हो जाते हैं। मैं आम तौर पर कइयों से मिल नहीं पाता और सच
बात ये हैं कि मिलना भी नहीं चाहता क्योंकि मेरी फ़ितरत ही ऐसी है।
‘मिल्ली गजट’ का लाइसेंस रद्द करने का प्रयास लोकतंत्र पर हमला है- रिहाई मंच
आलोचनात्मक समूहों को परेशान करने के लिए छेड़े गए केंद्र सरकार के अभियान ने
मीडिया के समक्ष विश्वसनीयता का गम्भीर संकट पैदा कर दिया है...
वनांचल न्यूज नेटवर्क
लखनऊ। अंग्रेजी पाक्षिक ‘मिल्ली गजेट’ का लाइसेंस रद्द करने का प्रयास मोदी
सरकार का निष्पक्ष पत्रकारिता पर लगाम लगाने की एक और कोशिश है। मोदी सरकार द्वारा
अपने सामने नतमस्तक मीडिया समूहों के मालिकान को राज्य सभा भेजना और आलोचनात्मक
समूहों को परेशान करने के अभियान ने मीडिया के समक्ष विश्वसनीयता का गम्भीर संकट
पैदा कर दिया है। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए दीर्घकालिक नुकसान साबित होगा जिसकी
भरपाई मोदी के जाने के बाद भी लम्बे समय तक नहीं हो पाएगी।
मंगलवार, 28 जून 2016
मोदी खुद इन्हीं परिस्थितियों की पैदाइश हैं?
आपातकाल के दौरान संविधान में तकरीबन 25 संशोधन किए गए थे। हालांकि जनता पार्टी के शासन में आने के
बाद उन सबको एक साथ रद्द कर दिया गया था। तब इन संशोधनों को मिनी संविधान करार
दिया गया था। यहां तो पूरे संविधान को ही बदलने की बात की जा रही है...
महेंद्र मिश्रा |
वैसे तो आपातकाल 26 जून को लगा था। वह दिन बीत गया है। कुछ लिखने की इच्छा के
बावजूद दूसरी व्यवस्तताएं भारी पड़ीं। लेकिन चूंकि इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है
इसलिए लिखना जरूरी हो गया था। इस सिलसिले में आए लेखों में दो चीज देखने को मिली।
कुछ ने इंदिरा गांधी के आपातकाल को कोसने तक अपने को सीमित रखा। तो कुछ ने इसे
मौजूदा संदर्भ से जोड़ने की भी कोशिश की। पहली जमात में ऐसे लोग हैं जिनकी कुछ
राजनीतिक प्रतिबद्धताएं हैं। या फिर न तो वो लोकतंत्र के मर्म को समझते हैं और न
ही उन्हें आपातकाल के खतरे का अहसास है। दूसरी श्रेणी के लोग भी अगर मौजूदा समय को
सिर्फ आपातकाल के ही एक दूसरे चेहरे के तौर पर देख रहे हैं। तो वो भी असल तस्वीर
से अभी दूर हैं।
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