शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

पत्रकारिता के प्ररितों के लिए प्रेरक रवीश कुमार का पत्र


हिन्दी पत्रकारिता का हाल देख लीजिए। इसका जनाधार है मगर कोई आधार नहीं है। दायरा सीमित है और स्तर विवादित। अपवाद की बात मत कीजिये। दूसरा किसी में हिम्मत नहीं है विश्व स्तरीय पत्रकारिता करने की। संसाधन बहाना है। अचानक कहाँ से पैसा आ गया प्रधानमंत्री का यात्रा कवर करने के लिए। पहले तो ये इतनी संख्या में रिपोर्टर भी नहीं भेजते थे। हिन्दी पत्रकारिता अपने जनाधार को असरदार नहीं बनाती बल्कि किसी राजनीतिक प्रभाव के विस्तार में आसानी से सहायक बन जाती है...

मेरे प्यारे प्रेरितों,

प सभी जब ककड़ी की तरह खिच्चा खिच्चा उम्र में मुझसे टकरा जाते हैं तो मैं थोड़ा अवसाद से भर जाता हूँ। ऐसा नहीं कि आप योग्य नहीं हैं या आप आगे जाकर कुछ नहीं करेंगे। आप में से कुछ क़ाबिल भी होते हैं और कई झोल भी। कई बार झोल अच्छा कर जाते हैं और क़ाबिल झोल हो जाते हैं। मैं आम तौर पर कइयों से मिल नहीं पाता और सच बात ये हैं कि मिलना भी नहीं चाहता क्योंकि मेरी फ़ितरत ही ऐसी है।
मुझे ऐसा लग रहा है कि कई प्राइवेट संस्थान पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए तीन साल के कोर्स के लिए सिर्फ फ़ीस के छह से दस लाख रुपये लेते हैं। कुछ दस से अठारह लाख तक ले रहे हैं। आप लोग सहर्ष दे भी रहे हैं। हॉस्टल और रहने खाने के भी ख़र्चे होते होंगे। अगर ये सही है तो भयावह है। प्रेरितों सुनो, सरकारी संस्थानों से दस बीस हज़ार की फ़ीस देकर पत्रकारिता पढ़ने में कोई बुराई नहीं है लेकिन दस लाख फीस देकर ज़र्नलिज्म का कोर्स करेंगे तो आप मूर्ख हैं। आपको दुनिया के बाज़ार ने मूर्ख बनाया है और आपने अपने माँ बाप को मूर्ख बनाया है। आप फँस गए दोस्त।
मुझे कोर्स और शिक्षक की गुणवत्ता का ज्ञान नहीं है इसलिए उस पर टिप्पणी नहीं करूँगा लेकिन मेरा दिल कहता है कि नज़दीक से देखने पर वे भी मुझे निराश नहीं करेंगे। थर्ड क्लास ही होंगे। एक बात बताइये। जिस देश के सैंकड़ों टीवी चैनलों की पत्रकारिता का कोई स्तर नहीं हो, उस देश में टीवी पत्रकारिता पढ़ाने वाले कहाँ से आ गए? अगर वे सभी टॉप क्लास के हैं तो उसकी झलक आप छात्रों में क्यों नहीं दिखती है। अपवाद से नियम नहीं बनता है। चंद अच्छे प्रोफेसर हैं लेकिन मुझे नहीं लगता कि इतने योग्य प्रोफेसर हैं कि वे हर जगह भरे होंगे।
मित्रों अगर पत्रकारिता की पढ़ाई आप विद्या यानी अकादमी के रूप में करते हैं तो कोई बात नहीं। फिर तो आप गहन अध्ययन करें, उसे लेकर शोध करें और दुनिया को समझने में मदद करें। संचार एक शानदार और गंभीर विषय है। आपको देखना होगा कि प्राइवेट संस्थान इस पैमाने पर कितने खरे उतरते हैं। सरकारी संस्थानों में कई क़ाबिल लोग पढ़ा रहे हैं लेकिन वहाँ भी संचार के सभी शिक्षक बेहतर हैं, ऐसा भी नहीं है।
अगर आप पत्रकारिता के कोर्स में कोई फैक्ट्री समझ कर आए हैं तो प्लीज़ एक काम कीजिए। मुझसे कभी न मिलिये। कभी मिल भी जाइये तो मुँह फेर के चले जाइये। तल्ख़ी से इसलिए कह रहा हूँ कि आपको बात समझ आए। इतनी नौकरियाँ नहीं हैं। अगर होती तो तमाम जगहों पर कैंपस सलेक्शन हो रहे होते। दो चार की संख्या में भर्ती निकलती है। अगर नौकरी पाने के उद्देश्य से दस लाख देकर इन संस्थानों में पढ़ रहे हैं तो भइया ये ज़ुल्म मत करो।
पहले पता कीजिये कि हिन्दी अखबारों और चैनलों में शुरूआती तनख्वाह कितनी है। कितने वर्षों के बाद दस हज़ार से बढ़कर पचास हजार होती है। कितने साल में दस लाख की बचत होती है। मैं पुराने ज़माने का आदमी हूँ तो मेरी जानकारी थोड़ी पुरानी हो सकती है। अब हो सकता है कि लोग तीस हज़ार पर ज्वाइन कर रहे हों! कुछ लोगों की सैलरी अच्छी होती है मगर उन कुछ लोगों में शामिल होने में वर्षों निकल जाते हैं। मैं सिर्फ आपकी फीस और नौकरी की संभावना के अनुपात की बात कर रहा हूँ।
हिन्दी पत्रकारिता में अवसर होंगे मगर ये किस तरह के अवसर हैं,आप उनका भी तो मूल्याकंन कर लीजिए। आप हिन्दी के एक लोकप्रिय परंतु रद्दी अख़बार लीजिए और एक इंडियन एक्सप्रेस लीजिये। जनसत्ता नहीं। दोनों की ख़बरों के स्तर , दायरा और पन्नों की तुलना कीजिये।फिर  देखिये कि किस चैनल में पत्रकारिता हो रही है, जो आपको प्रेरित करती है।अगर अपनी बुद्धि का विसर्जन करने का फ़ैसला कर ही लिया है तो मैं क्या कर सकता हूँ। क्या आप चीख़ने चिल्लाने के लिए दस लाख फीस देंगे।पाँच लाख भी बहुत ज़्यादा है। इतना ही शौक़ है तो फोन से अपना वीडियो रिकार्ड कर यू ट्यूब में डाल दीजिये।
अंग्रेजी में कोर्स करने वालों के साथ भी संकट है। कई बार हमें लगता है कि अंग्रेजी पत्रकारिता कोई स्वर्ग है। वहाँ की सैलरी के बारे में ज्ञान नहीं है लेकिन नौकरियाँ वहाँ भी कम है। वहाँ कई लोग छोड़ कर या अवकाश लेकर विदेशों में जाते रहते हैं तो जगह बनती रहती है। आप यहाँ पत्रकारिता का कोर्स कर रहे हैं और आपकी जगह कोई बेहतर ख़ानदान और विदेशी कालेज वाला आकर ले लेगा। बाहर के कालेजों में संचार और मीडिया की गंभीर पढ़ाई तो होती ही है। उनका छात्र जीवन तो कम से कम ठीक ही गुज़रता है। हर चैनल ने अपनी दुकान खोल रखी है और पत्रकारिता के नाम पर कैमरे का रिकार्ड बटन दबाना सीखाते हैं। स्पीड न्यूज करने के लिए आप दस लाख की फीस देंगे? घर में कोई डाँटने वाला नहीं है क्या ?
सवाल पैसे की कमी का नहीं है। हो सकता है आपके पास पैसे हों। आदरणीय माँ बाप दहेज की रक़म समझ कर निवेश कर देते हों। वैसे पत्रकार भी दहेज लेते हैं। बताइये कौन बेवकूफ होगा जो पत्रकार को दहेज देगा। इतना भी नहीं समझता होगा कि जो दहेज लेगा वो ख़ाक पत्रकारिता करेगा। जो अपने जीवन में किसी ज़हर को पीने से मना नहीं कर सकता वो दूसरों के बारे में क्या लिखेगा बोलेगा। और लड़कियों को ये दहेज लेने वाले बंदर पसंद कैसे आ जाते हैं । एनि वे फ्रैंड्स।
अगर पत्रकारिता के कोर्स को प्रोडक्ट बनाकर बेचा जा रहा है तो बच्चों पता तो कर लो कि गली गली में बिखरे इन देसी हावर्डों से निकल कर कितने को नौकरी मिल रही है? मिलती भी है या नहीं मिलती है? कितने की नौकरी मिलती है? इंटर्नशिप के नाम पर आपको ख़्वाब बेचा जाता है। प्यारे दस लाख देकर बेरोज़गार रहने वाला कोर्स मत करो। नौकरी मिलने पर भी आप कई साल तक बेरोज़गार ही रहते हैं। कई साल तक पंद्रह बीस हजार की नौकरी करनी पड़ती है।स्ट्रिंगर हो गए तो और भी बुरी हालत होती है।उनकी कहानी सुना दूँगा तो अपने वीसी का घेराव कर दोगे। घेराव करने से पहले सोच लेना कि जे एन यू और रोहित वेमुला के समय छात्र आंदेलन के बारे में तुम्हारी क्या राय थी।
ज़रूर इन्हीं में से बहुत लोग बहुत कुछ हो जाते हैं। जैसे मैं चिट्ठी छाँटते छाँटते यहाँ तक आ गया लेकिन ये तो लक बाइ चांस की भी कहानी है। ज़रूरी नहीं कि आपके लिए भी अवसरों का समुद्र इंतज़ार कर रहा है। लोग ऊपर आ भी रहे हैं मगर आँख फोड़ कर देखेंगे तो पता चलेगा कि उनकी संख्या दो या चार है। मैं अन्य चैनलों के लोगों से भी नहीं मिल पाता इसलिए सैलरी वगैरह का ख़ास अंदाज़ा नहीं है लेकिन आम तौर पर प्रतीत होता है कि सामान्य रूप से लोगों को कम सैलरी मिलती है। अवसर के नाम पर वही गूगल आधारित काम है जो मैं भी करता हूँ। कभी कभार कुछ चैनल सूखा वगैरह को यात्रा टाइप कर देते हैं उसके बाद राष्ट्रवाद की आड़ में सांप्रदायिकता फैलाते हैं। ये करने के लिए छह लाख फीस और चार लाख दिल्ली का ख़र्चा क्यों दोगे? सीधे किसी राजनीतिक दल में शामिल होकर नेता बनने की संभावना तलाशो। जब अभी गलत सही का फर्क नहीं समझोगे तो कब समझोगे मित्र।
हिन्दी पत्रकारिता का हाल देख लीजिए। इसका जनाधार है मगर कोई आधार नहीं है। दायरा सीमित है और स्तर विवादित। अपवाद की बात मत कीजिये। दूसरा किसी में हिम्मत नहीं है विश्व स्तरीय पत्रकारिता करने की। संसाधन बहाना है। अचानक कहाँ से पैसा आ गया प्रधानमंत्री का यात्रा कवर करने के लिए। पहले तो ये इतनी संख्या में रिपोर्टर भी नहीं भेजते थे। हिन्दी पत्रकारिता अपने जनाधार को असरदार नहीं बनाती बल्कि किसी राजनीतिक प्रभाव के विस्तार में आसानी से सहायक बन जाती है। यह हाल अंग्रेजी का भी है। ज़रा संपादकों के लेख को ध्यान से पढ़िये, पता चलेगा।
हिन्दी का आम पत्रकार आता तो है जुनून लेकर लेकिन जब संस्थाएँ मौका नहीं देती है तो वह भी जल्दी ठंडा पड़ जाता है। साधारण परिवारों से होने के कारण नौकरी मिलने का ही अहसान चुकाने के लिए तमाम तीर्थ यात्राएँ करने लगता है। ज्योतिष से मूँगा पुखराज बनवा लेता है और कलाई में रक्षा बँधवा लेता है। हिन्दी के नौकरीदेवा संपादकों के फेसबुक कमेंट पढ़कर भावुक या प्रभावित होते रहता है। इस देश का हर आदमी ख़ुद को अवतार मोड में देखता है। कुछ लोग अवतार से आशीर्वाद प्राप्त करने की होड़ में लग जाते हैं।
मेरा काम सिर्फ लिखना है तो लिख दे रहा हूँ। वैसे आपके लिए लिखना भी नहीं चाहिए था। जो जवानियाँ महँगी फीस और घटिया पढ़ाई के फर्क को राजनीतिक तौर से नहीं देख पाती हैं, वो किसी काम की नहीं होती हैं। इतना तो आपको देखना चाहिए था कि क्यों दस लाख देकर पत्रकारिता की पढ़ाई करें। किस लिए ? जिस पेशे में न नौकरी का सिस्टम है, न वेकैंसी का है उसमें आप भेंड की तरह आएँगे तो आप समझिये। जरूर कीजिये पत्रकारिता मगर जिन बंदर एंकरों से प्रेरित होकर लाखों रुपये दे रहे हैं वो मत दीजिए। प्लीज। नौजवान पत्रकार तो आने ही चाहिएं मगर दस लाख देकर नहीं दोस्त। वो पैसा लेकर बार्सीलोना और टोक्यो घूम आइये ।
हम लोगों की सूरत से जो आप सपने देख रहे हैं, वो एक हद तक ही ठीक है। हम भी आपकी उम्र में ऐसे सपने देखते थे। हालाँकि मैं वो भी नहीं देखता था, मगर इससे बात समझ में आती है तो लिख दे रहा हूँ। ऐसा भी मुगालता नहीं है कि आप हम एंकरों को देख कर ही पत्रकारिता में आते हैं। कई लोग पत्रकारिता के लिए आते हैं और करते भी हैं। मगर दोस्तों अपनी जवानी में थोड़ी धार लाओ। बोका बनके मत घूमो। कोई तुम्हारी पूँजी हड़प कर बोका बना रहा है। किसी पत्रकार से पूछना कि उसके खाते में दस लाख की बचत करने में कितने साल लगे।
ओ मेरे प्यारे प्रेरितों अपने इस प्रेरक की बात याद रखना। मैंने प्रेरणा बनने का अहसान चुका दिया। अब तुम प्रेरित होने का फ़र्ज़ निभाओ। मैं बदल नहीं सकता मगर लिख सकता हूँ। छात्र हो राजनीतिक चेतना का विस्तार करो। समझो सिस्टम और बाज़ार के खेल को। किसी उत्पाद का उतना ही मूल्य चुकाओ जितनी उसकी उपयोगिता हो। आप लोगों को जब इंटर्नशिप नहीं मिलती है और नौकरियाँ नहीं मिलती हैं तो दुख होता है। आपके हालात से गुज़रे हैं इसी मोह के कारण लिख रहा हूँ। मेरे लेख में निगेटिव पोजिटिव मत खोजना। फिर भी लगता है कि बीस लाख खर्च कर पत्रकारिता पढ़ी जाए तो दो चार लाख मुझे भी किसी एकादशी को दे जाना। माल रखकर आशीर्वाद दे दूँगा। बहुत बहुत शुभकामनाएँ ।

आपका प्रेरक
रवीश कुमार

( वरिष्ठ टीवी पत्रकार रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा से साभार)

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