आपातकाल के दौरान संविधान में तकरीबन 25 संशोधन किए गए थे। हालांकि जनता पार्टी के शासन में आने के
बाद उन सबको एक साथ रद्द कर दिया गया था। तब इन संशोधनों को मिनी संविधान करार
दिया गया था। यहां तो पूरे संविधान को ही बदलने की बात की जा रही है...
महेंद्र मिश्रा |
वैसे तो आपातकाल 26 जून को लगा था। वह दिन बीत गया है। कुछ लिखने की इच्छा के
बावजूद दूसरी व्यवस्तताएं भारी पड़ीं। लेकिन चूंकि इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है
इसलिए लिखना जरूरी हो गया था। इस सिलसिले में आए लेखों में दो चीज देखने को मिली।
कुछ ने इंदिरा गांधी के आपातकाल को कोसने तक अपने को सीमित रखा। तो कुछ ने इसे
मौजूदा संदर्भ से जोड़ने की भी कोशिश की। पहली जमात में ऐसे लोग हैं जिनकी कुछ
राजनीतिक प्रतिबद्धताएं हैं। या फिर न तो वो लोकतंत्र के मर्म को समझते हैं और न
ही उन्हें आपातकाल के खतरे का अहसास है। दूसरी श्रेणी के लोग भी अगर मौजूदा समय को
सिर्फ आपातकाल के ही एक दूसरे चेहरे के तौर पर देख रहे हैं। तो वो भी असल तस्वीर
से अभी दूर हैं।
दरअसल इस समय एक अघोषित आपातकाल है। यह सही कहा जा रहा है कि अगर इंदिरा जी को यह पता होता कि ‘लोकतंत्र’ के साथ आपातकाल चलाया जा सकता है। तो वो कत्तई उसकी घोषणा नहीं करतीं। इस मामले में मोदी जी इंदिरा गांधी से ज्यादा चालाक हैं। या कहा जाए कि रणनीतिक विरोध के बावजूद 19 महीने का वह आपातकाल मोदी जी के लिए किसी प्रेरणास्रोत से कम नहीं है। मोदी शासन के सामान्य दौर में भी आपातकाल के सारे ‘गुण’ मौजूद हैं। या फिर उससे एक कदम आगे बढ़कर यह एक फासीवादी चरित्र ग्रहण कर लेता है। जिसमें लोकतांत्रिक संस्थाओं की भूमिका गौड़ हो जाती है। और गेस्टापो व्यवस्था का संचालन कर रहे होते हैं। और खाकीधारी उन्हें संरक्षण। वह सड़क पर राह चलते होने वाली हत्याएं हों या कि किसी आखलाक पर संगठित हमले। सब इसी के नतीजे हैं। यहां तक कि फेसबुक पर किसी का लिखना भी जुर्म हो जा रहा है। और कई को तो इसके लिए जेल भुगतनी पड़ रही है।
दरअसल इस समय एक अघोषित आपातकाल है। यह सही कहा जा रहा है कि अगर इंदिरा जी को यह पता होता कि ‘लोकतंत्र’ के साथ आपातकाल चलाया जा सकता है। तो वो कत्तई उसकी घोषणा नहीं करतीं। इस मामले में मोदी जी इंदिरा गांधी से ज्यादा चालाक हैं। या कहा जाए कि रणनीतिक विरोध के बावजूद 19 महीने का वह आपातकाल मोदी जी के लिए किसी प्रेरणास्रोत से कम नहीं है। मोदी शासन के सामान्य दौर में भी आपातकाल के सारे ‘गुण’ मौजूद हैं। या फिर उससे एक कदम आगे बढ़कर यह एक फासीवादी चरित्र ग्रहण कर लेता है। जिसमें लोकतांत्रिक संस्थाओं की भूमिका गौड़ हो जाती है। और गेस्टापो व्यवस्था का संचालन कर रहे होते हैं। और खाकीधारी उन्हें संरक्षण। वह सड़क पर राह चलते होने वाली हत्याएं हों या कि किसी आखलाक पर संगठित हमले। सब इसी के नतीजे हैं। यहां तक कि फेसबुक पर किसी का लिखना भी जुर्म हो जा रहा है। और कई को तो इसके लिए जेल भुगतनी पड़ रही है।
आपातकाल में लोकतंत्र गायब हो जाता है और संस्थाएं काम करती हैं। हां उनका रूप
तानाशाही भरा होता है। लेकिन यहां तो बाकायदा संस्थाओं को ही खत्म करने की तैयारी
की जा रही है। या तो उन्हें पंगु बना दिया जा रहा है या फिर उन्हें पूरी तरह से
अपने पक्ष में कर लेने की कोशिश है। योजना आयोग से ले लेकर सेंसर बोर्ड और
एफटीआईआई से लेकर निफ्ट तक यही कहानी है। यहां तक कि मंत्रालयों तक को नागपुर से
सीधे निर्देश मिल रहे हैं। आपातकाल में कम से कम शासन प्रधानमंत्री के हाथ में था।
यहां तो सत्ता एक ऐसी गैरसंवैधानिक संस्था की बंधक हो गई है। जिसकी जनता के प्रति
कोई जवाबदेही तक नहीं है। वह सत्ता का कभी पत्यक्ष और तो कभी परोक्ष तौर पर संचालन
कर रही है। और उसका घोषित लक्ष्य किसी से छुपा नहीं है। एकबारगी उनके मंसूबे पूरे
हो गए तो फिर देश का बंटाधार होना तय है। आपातकाल के दौरान संविधान में तकरीबन 25 संशोधन किए गए थे। हालांकि जनता पार्टी के शासन में आने के
बाद उन सबको एक साथ रद्द कर दिया गया था। तब इन संशोधनों को मिनी संविधान करार
दिया गया था। यहां तो पूरे संविधान को ही बदलने की बात की जा रही है। यहां तक कि
जिन छात्रों ने आपातकाल को धूल चटाया। अब उन परिसरों पर ही ग्रहण लग गया है। वहां
से लोकतंत्र के खात्मे की तैयारी की जा रही है। जगह-जगह विश्वविद्यालयों और उनके
छात्रों पर हमले इसी बात के सबूत हैं। लोकतंत्र के लिए ऑक्सीजन का काम करने वाला
मीडिया तो मोदी जी के जेब का हिस्सा बन गया है । पार्षदों के सामने शेर बनने वाले
अर्णब गोस्वामी का मोदी जी के सामने भीगी बिल्ली बनना इसकी ताजी मिसाल है ।
सत्ता की तानाशाही का सबसे नंगा रूप दिल्ली में देखने को मिल रहा है। 26 जून को कुछ सोशल साइट्स पर आपातकाल में गिरफ्तारी के दौरान
समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडिस के हाथों में हथकड़ी की तस्वीर छपी थी। संयोग से
उसी दिन दिल्ली के एक विधायक रोहनिया की भी गिरफ्तारी की तस्वीर है। जिसमें दो
पुलिस वाले दोनों बांहे पकड़ कर उन्हें थाने ले जा रहे हैं। समझने की कोशिश की जाए
तो यह तस्वीर बहुत कुछ कहती है। देश की राजधानी में एक चुनी सरकार को केंद्र नहीं
चलने दे रहा है। कदम-कदम पर उसके आगे रोड़े अटका रहा है। राज्य सभा में चंद बिलों
के ना पास होने पर हाय तौबा मचाने वाली सरकार का एक दूसरी सरकार के प्रति यह रुख
किसी विरोधाभाष से कम नहीं है।
यह तस्वीर का एक पहलू है। दूसरे को समझना जरूरी है। दरअसल इसके पीछे मोदी की
एक सोची समझी रणनीति है। कुछ लोग इसे सामान्य तौर पर केजरीवाल को परेशान करने के
नजरिये से देख रहे हैं। लेकिन यह मोदी जी के लिए एक दूर की कौड़ी है। दरअसल किसी
को प्रताड़ित किए जाने पर उसकी छवि एक पीड़ित की बनती है। और फिर उसे जनता की
सहानुभूति मिलने की गुंजाइश पैदा हो जाती है।
केजरीवाल के प्रति मोदी को रवैये को इसी नजरिये से देखने की जरूरत है। मोदी
खुद इन्हीं परिस्थितियों की पैदाइश हैं? मोदी केजरीवाल को अपने कांग्रेस मुक्त भारत के लक्ष्य के एक
हथियार के तौर पर देखते हैं। कांग्रेस अभी भी उन्हीं स्थानों पर मजबूत है या फिर
शासन में है जहां कोई तीसरी शक्ति नहीं उभर पाई है। ऐसे में केजरीवाल के उन
राज्यों में एक विकल्प के तौर पर उभरने की गुंजाइश बनती है। एकबारगी अगर ‘आप’ इन स्थानों से कांग्रेस को हटाने में कामयाब हो गई। तो उसके
लिए फिर से उबर पाना मुश्किल होगा। और फिर भविष्य में बीजेपी के लिए केजरीवाल को
खत्म करना आसान हो जाएगा। और अगर ऐसा नहीं भी हो पाया तो विपक्ष को बांटने और फिर
उसे कमजोर करने के अपने मंसूबों में मोदी जी सफल हो जाएंगे। मोदी जी की पूरी कोशिश
बीजेपी को पुरानी कांग्रेस की स्थिति में लाकर खड़ा कर देना है। जिसमें विपक्ष
सत्ता पक्ष के रहमोकरम पर जिंदा रहेगा। यह कुछ और नहीं बल्कि गुजरात का राष्ट्रीय
माडल है।
( लेखक
स्वतंत्र पत्रकार हैं। आप उनसे 09818660266 पर संपर्क कर सकते हैं।)
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