गुरुवार, 16 जनवरी 2014

उत्तर प्रदेश में बदलेगा सीटों का आरक्षण


"संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनःसमायोजन (तीसरा) विधेयक-2013’ के जरिए कैमूर क्षेत्र में फिर से डंका बजाना चाहती है कांग्रेस। तीसरा अध्यादेश जारी..."   
by Shiv Das Prajapati

नई दिल्ली, 13 अक्टूबर, 2013। अगले साल आम चुनाव होने हैं। संभावना है कि इससे पहले केंद्रीय निर्वाचन आयोग उत्तर प्रदेश में दो विधानसभा सीटों और एक लोकसभा सीट का आरक्षण बदल देगा। आयोग के इस कदम से सोनभद्र की दुद्धी (अनुसूचित जाति) विधानसभा सीट और राबर्ट्सगंज (अनुसूचित जाति) लोकसभा सीट के प्रभावित होने की संभावना है। ये दोनों सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हो सकती हैं।

आम चुनाव-2014 में कांग्रेस राबर्ट्सगंज (सुरक्षित) लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से कैमूर की वादियों में फिर से अपना डंका बजाना चाहती है। पिछले विधानसभा चुनाव में आदिवासी बहुल दुद्धी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र (सुरक्षित) पर तकनीकी आधार पर शिकस्त खा चुकी कांग्रेस इस बार सतर्क है। वह इसका जवाब भी उसी तरीके से देना चाहती है। हालांकि संसद की कार्यवाही के बार-बार बाधित होने की वजह से उसे अभी इसमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली है लेकिन उसका अभियान जारी है। कैमूर की वादियों में करीब 25 साल से फतह की बाट जोह रही कांग्रेस सरकारी अध्यादेश और संविधान संशोधन विधेयक के जरिए राबर्ट्सगंज (अनुसूचित जाति) लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र पर सभी राजनीतिक पार्टियों और विरोधियों को पटखनी देने में लगी है। उसकी अगुआई वाली केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को किसी राज्य में उनकी आबादी के अनुपात में संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व देने के लिए 27 सितंबर को इस साल तीसरी बार अध्यादेश जारी किया जो प्रभाव में है।

भारत के राजपत्र के रूप में प्रकाशित विधि एवं न्याय मंत्रालय का ’संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनःसमायोजन (तीसरा) अध्यादेश-2013’ राबर्ट्सगंज लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र ( अनुसूचित जनजाति) की संभावना को प्रबल बनाता है। ऐसी संभावना के पीछे वाजिब वजह भी है।

वास्तव में ये अध्यादेश उच्चतम न्यायालय के उस आदेश के आलोक में लाए जा रहे हैं जो उसने 10 जनवरी, 2013 को जनहित याचिका (व्यवहार) संख्या-540/2011 की सुनवाई के दौरान दिया था। यह याचिका राबर्ट्सगंज लोकसभा तथा दुद्धी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र निवासी विरेंद्र प्रताप और प्यारे लाल ने उच्चतम न्यायालय में दाखिल किया था।  

मामले में न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर और जे. चलामेस्वर की संयुक्त पीठ ने भारत के निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया है कि वह याचिका में दर्शायी गई अनुसूचित जनजातियों के मामले पर विचार करे और संविधान के प्रावधानों के तहत संसद और राज्य विधानमंडलों, दोनों के निचले सदनों में उनके प्रतिनिधित्व के लिए उपयुक्त कदम उठाए।

पीठ ने यह भी कहा है कि निर्वाचन आयोग इसके लिए खुद भी भारत के महारजिस्ट्रार और जनगणना आयुक्त से आंकड़े प्राप्त कर सकता है। इसके बाद वह अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या के शेष प्रतिनिधित्व के लिए संविधान के प्रावधानों के अनुरूप कदम उठाए।

उच्चतम न्यायालय की पीठ ने इस बात पर सहमति जताई कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-332, 330 और 243घ में प्रदत्त संवैधानिक दायित्वों के तहत अनुसूचित जनजातियों को राज्य के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में अपनी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है।

दरअसल याचिकाकर्ताओं विरेंद्र प्रताप और प्यारे लाल ने अपनी याचिका में उन अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने और उनके मूलाधिकारों के उल्लंघन को रोकने की गुहार लगाई थी जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद-332, 330 और 243घ में प्रदत्त आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अपने संवैधानिक अधिकारों से वंचित हैं।

याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता पीएस नरसिम्हन ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि ’संसद से पास अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा (सुधार) अधिनियम-2002 (2003 का अधिनियम संख्या-10)’ के तहत अनेक जातियां, जो अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल नहीं थीं, अनुसूचित जनजाति में शामिल कर ली गई हैं।

परिणामस्वरूप अनुसूचित जनजातियों की आबादी कुछ निर्वाचन क्षेत्रों, जिनका परिसीमन हो चुका है, में बढ़ गई है। अनुसूचित जनजाति के रूप में इन जातियों का समावेशन होने के बावजूद भारत सरकार और निर्वाचन आयोग ने इस बदलाव को प्रदर्शित करने और संविधान में प्रदत्त प्रावधानों के तहत अनुसूचित जनजातियों के आनुपातिक प्रतिनिधित्व को सुनश्चित करने के अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन नहीं किया।  

उच्चतम न्यायालय के उपरोक्त आदेश के आलोक में भारत सरकार के विधि एवं न्याय मंत्रालय ने कार्रवाई शुरू की। संसद का सत्र नहीं चल रहा था। इसलिए उसने ’संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनःसमायोजन अध्यादेश-2013’ को मंत्रिमंडल से पास कराया और प्रकाशन के लिए उसे राष्ट्रपति के पास भेजा दिया।

राष्ट्रपति महोदय ने 30 जनवरी, 2013 को इसे जारी कर दिया। सरकार ने अध्यादेश की जगह ’संसदीय एवं विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनःसमायोजन विधेयक-2013’ राज्यसभा में 26 फरवरी, 2013 को पेश किया। राज्यसभा के सभापति ने 18 मार्च, 2013 को विधेयक को परीक्षण के लिए कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय पर गठित संसद की स्थाई समिति के पास भेज दिया।

समिति ने 2 मई, 2013 को राज्यसभा में अपनी 59वीं रिपोर्ट पेश की। इसमें उसने विधेयक को पारित करने की संस्तुति की। राज्यसभा से विधेयक पास नहीं हो सका। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-123 के खंड (2) के उपखंड (अ) के अनुसार संसद की बैठक से छह सप्ताह की अवधि के दौरान विधेयक पारित नहीं होने की वजह से उक्त अध्यादेश 4 अप्रैल, 2013 को स्थगित हो गया। 

जनगणना आयुक्त और चुनाव आयोग ने उक्त अध्यादेश के अनुसार अपनी प्रक्रिया शुरू कर दी थी। इसे ध्यान में रखते हुए राष्ट्रपति ने 5 जून, 2013 को ’संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनःसमायोजन (दूसरा) अध्यादेश-2013’ जारी किया। 

विधि एवं कार्य मंत्रालय ने राज्यसभा में लंबित विधेयक को वापस ले लिया गया। उसने 7 अगस्त, 2013 को राज्यसभा में दूसरे अध्यादेश के स्थान पर ’संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनःसमायोजन (दूसरा) विधेयक-2013’ पेश किया। राज्यसभा द्वारा यह विधेयक भी पास नहीं हो सका और 15 सितंबर, 2013 को दूसरा अध्यादेश भी स्थगित हो गया।

संसद का सत्र नहीं था। राष्ट्रपति ने महसूस किया कि स्थगित अध्यादेश के तहत कार्रवाइयों को विधिमान्य बनाने और उसमें आगे की कार्रवाई के लिए तुरंत कानूनी कार्रवाई करने की जरूरत है। इसलिए उन्होंने भारतीय संविधान के अनुच्छेद-123 के खंड-1 में प्रदत्त शक्तियों का उपयोग करते हुए 27 सितंबर, 2013 को ’संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनःसमायोजन (तीसरा) अध्यादेश-2013’ जारी किया। यह 30 जनवरी, 2013 से प्रभावित माना जाएगा। 

इस अध्यादेश के तहत जनगणना आयुक्त कार्यालय वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर अनुसूचित जातियों अथवा अनुसूचित जनजातियों, जैसा भी मामला होगा, की आबादी का पता लगाएगा। वह 1 मार्च, 2001 से 31 मई, 2012 के बीच अनुसूचित जाति आदेशों और अनुसूचित जनजाति आदेशों में सुधारों की वजह से एक राज्य में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की संख्या में आए अंतर का पता भी लगाएगा और उसका निर्धारण करेगा।

इसके आधार पर वह उस राज्य की संपूर्ण आबादी के अनुपात में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का आकलन करेगा। फिर वह भारत के राज-पत्र में उस आबादी के आकलित आंकड़ों को अधिसूचित करवाएगा। जनसंख्या के ये अधिसूचित आंकड़े पूर्व में प्रकाशित सभी आंकड़ों का स्थान ले लेंगे और प्रासंगिक माने जाएंगे। इस तरह से अधिसूचित अंतिम आंकड़ों को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी।

किसी राज्य में उपरोक्त प्रक्रिया के तहत अधिसूचित जनसंख्या का आंकड़ा प्राप्त होने के बाद चुनाव आयोग संविधान के अनु्च्छेद-81, 170, 330 और 332, परिसीमन अधिनियम-2002 और इस तीसरे अध्यादेश के प्रावधानों के अनुसार ’संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन आदेश-2008’ में इस प्रकार संशोधन करेगा ताकि उस राज्य के अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों, जैसा भी मामला होगा, के उपयुक्त प्रतिनिधित्व को देने का उद्देश्य पूरा हो जाए। इसी के अनुसार जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1950 की पहली और दूसरी अनुसूची में सुधार माना जाएगा।   

चुनाव आयोग भारत के राजपत्र और संबंधित राज्य के सरकारी राजपत्र में अपने प्रस्तावित सुधारों को प्रकाशित करेगा। फिर वह इसपर विचार करेगा। इस दौरान वह सभी आपत्तियों और सुझावों को शामिल करेगा। बाद में वह परिसीमन आदेश में जरूरी संशोधन करेगा। इस दौरान आयोग के पास सिविल प्रक्रिया संहिता-1908 के तहत सिविल कोर्ट का अधिकार होगा। इसके आधार पर वह किसी भी व्यक्ति को तलब कर सकता है और कोई भी सार्वजनिक दस्तावेज किसी विभाग अथवा न्यायालय से मंगा सकता है। 

भारत के चुनाव आयोग द्वारा परिसीमन आदेश में किए गए संशोधनों को भारत के राजपत्र और राज्यों के सरकारी राजपत्रों में प्रकाशित किया जाएगा। इसके बाद यह लागू हो जाएगा। फिर इसे किसी न्यायालय में चुनौती नहीं जा सकेगी। चुनाव आयोग के उक्त संशोधनों का राज-पत्र में प्रकाशन होने के बाद इसे संसद और संबंधित राज्य के विधानमंडल के सामने पेश किया जाएगा। इसके बाद वह संसद और राज्य विधानमंडलों के प्रत्येक निर्वाचन में लागू होगा।

हालांकि उपरोक्त कवायदें उस समय तक साकार नहीं हो सकतीं, जबतक ’संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनःसमायोजन (तीसरा) अध्यादेश-2013’ की जगह लेने वाला ’संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनःसमायोजन (तीसरा) विधेयक-2013’ संसद में पारित होकर कानून नहीं बन जाता है। संभावना है कि केंद्र सरकार शीतकालीन सत्र में इस उक्त विधेयक को संसद में पास कराने में सफल हो जाएगी और यह कानून का रूप ले लेगा। केंद्रीय निर्वाचन आयोग ने भी अब तक राबर्ट्सगंज लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र के नए आरक्षण (अनुसूचित जनजाति) की संभावना को खारिज नहीं किया है।    

उच्चतम न्यायालय के आदेश और ’संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनःसमायोजन (तीसरा) अध्यादेश-2013’ के संबंध में केंद्रीय निर्वाचन आयोग के प्रमुख सचिव तपस कुमार का कहना है कि भारत के महारजिस्ट्रार और जनगणना आयुक्त कार्यालय से पटवारी और कानूनगो सर्किल स्तर पर आंकड़े मांगे गए हैं। जल्द ही हमें वे आंकड़े प्राप्त हो जाएंगे। उसके बाद हम आगे की कार्रवाई करेंगे। फिलहाल अभी रॉबर्टसगंज लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र के आरक्षण में बदलाव की संभावना के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है।

गौरतलब है कि महारजिस्ट्रार एवं जनगणना कार्यालय ने जनगणना-2011 के अंतिम आंकड़े जारी कर दिए हैं लेकिन उसमें अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या का विवरण राज्य, जिला, तहसील, गांव, कस्बा और वार्ड स्तर पर ही है। जनगणना-2011 में उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की आबादी का विवरण पटवारी और कानूनगो स्तर पर जारी नहीं किया गया है जबकि लोकसभा और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के लिए पटवारी और कानूनगो सर्किल की आबादी को आधार बनाया गया है।

फिलहाल महारजिस्ट्रार एवं जनगणना आयुक्त कार्यालय पटवारी और कानूनगो स्तर पर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के आंकड़े जारी करने की कवायद पर कार्यवाही कर रहा है। अब देखना है कि ये आंकड़े चुनाव आयोग को कब तक प्राप्त होते हैं। इन आंकड़ों के आधार पर ही राबर्ट्सगंज लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र (अनुसूचित जाति) के नए आरक्षण (अनुसूचित जनजाति) की संभावना टिकी है। 

इसके पीछे कांग्रेस की वह राजनीतिक इच्छा शक्ति भी है जिसके बल पर वह कैमूर की वादियों में करीब 25 सालों बाद अपने फतह की राह देख रही है। राबर्ट्सगंज लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में आदिवासियों के बीच मजबूत पकड़ रखने वाले उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री विजय सिंह गोंड़ पिछले विधानसभा चुनाव के ठीक पहले सपा छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए। अब वह सोनभद्र में कांग्रेस जिला अध्यक्ष हैं। विजय सिंह गोंड़ अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित दुद्धी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से लगातार 27 सालों तक विधायक रहे और सपा सरकार में मंत्री बनें।

’अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा (सुधार) अधिनियम-2002’ लागू होने के बाद वे अनुसूचित जनजाति में शामिल हो गए। इस वजह से वे 2007 का विधानसभा चुनाव नहीं लड़ सके। हालांकि इलाके के आदिवासियों में उनकी पकड़ आज भी बरकरार है जिसे उन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में साबित कर दिखाया। उन्होंने अपना पर्चा खारिज होने के बाद दुद्धी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार रूबी प्रसाद को समर्थन दे दिया और वह विधायक बन गईं। बाद में रूबी प्रसाद कांग्रेस में शामिल हो गईं और अब भी पार्टी में हैं।

राॅबर्ट्सगंज लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र का आरक्षण अनुसूचित जनजाति होने पर विजय सिंह गोंड़ आगामी आम चुनाव में वहां से कांग्रेस के संभावित उम्मीदवार हैं क्योंकि उस इलाके में उनके कद का जनाधार वाला अन्य कोई दूसरा आदिवासी नेता कांग्रेस या अन्य खेमे के पास नहीं है। रॉबर्ट्सगंज लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में सोनभद्र की दुद्धी, ओबरा, रॉबट्सगंज, घोरावल विधानसभा सीटों के अलावा चंदौली की चकिया विधानसभा सीट भी शामिल है, जहां अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या बहुत ज्यादा है। इन समीकरणों से कांग्रेस उत्साहित है और वह किसी भी हालत में रॉबर्ट्सगंज सीट गंवाना नहीं चाहती है।  

                   उच्चतम न्यायालय क्यों पहुंची आदिवासियों की आवाज?

वनांचल एक्सप्रेस ब्यूरो

लखनऊ। समाज के निचले पायदान पर जीवन व्यतीत करने वाले आदिवासियों के संवैधानिक और मूलाधिकार को लेकर केंद्र और राज्य सरकारें हमेशा उदासीन रही हैं। उन्होंने उन्हें केवल वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल किया लेकिन उन्हें उनका हक देने में हमेशा पीछे रहीं हैं। इसमें कांग्रेस की भूमिका हमेशा संदेह के घेरे में रही है। उत्तर प्रदेश में निवास करने वाली विभिन्न आदिवासी जातियां कांग्रेस के शासनकाल में संसद से पास हुए अनुसूचित जनजाति (उत्तर प्रदेश) कानून-1967 के लागू होने के समय से ही खुद को ठगा महसूस कर रही हैं।

तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उत्तर प्रदेश के सबसे निचले तबके यानी आदिवासी पर यह कानून जबरन थोप दिया था। इसकी वजह से वे आज तक अपने लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित हैं। इस कानून के तहत उत्तर प्रदेश की पांच आदिवासी जातियों (भोटिया, भुक्सा, जन्नसारी, राजी और थारू) को अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल किया गया लेकिन कोल, कोरबा, मझवार, उरांव, मलार, बादी, कंवर, कंवराई, गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया आदि आदिवासी जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग में ही रहने दिया गया। जबकि इन जातियों की सामाजिक स्थिति आज भी उक्त पांच आदिवासी जातियों के समान ही है।

इन जातियों ने अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ाई शुरू कर दी। उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों ने वोट बैंक की गणित के हिसाब से अपना-अपना जाल बुना और उनके वोट बैंक का इस्तेमाल कर सत्ता हासिल की लेकिन उन्हें उनके संवैधानिक अधिकार से वंचित रखा। 

केंद्र की सत्ता में काबिज भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक पार्टी (राजग) ने वर्ष 2002 में संसद में संविधान संशोधन का निर्णय लिया। इसमें उसके नुमाइंदों की सत्ता में बने रहने की लालच भी थी। तत्कालीन राजग सरकार ने उत्तर प्रदेश की गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया आदिवासी जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल करने की कवायद शुरू की। इसके लिए उसने संसद में ’अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा (सुधार) विधेयक-2002’ पेश किया।

संसद ने इसे पारित कर दिया। हालांकि सियासी पृष्ठभूमि में इस कानून में कुछ विशेष जिलों के आदिवासियों को ही शामिल किया गया था। इस वजह से आदिवासी बहुल चंदौली जिले में इन जातियों के लोग आज भी अनसूचित जाति वर्ग में ही हैं जबकि उत्तर प्रदेश की सत्ता को पहली बार इस जिले से नक्सलवाद का लाल सलाम हिंसा के रूप में मिला। 

फिलहाल ’अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा (सुधार) अधिनियम-2002’ के संसद से पास होने के बाद राष्ट्रपति ने भी इसे अधिसूचित कर दिया। केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्रालय ने 8 जनवरी 2003 को भारत सरकार का राजपत्र (भाग-2, खंड-1) जारी किया। इसके तहत गोंड़ (राजगोंड़, धूरिया, पठारी, नायक और ओझा) जाति को उत्तर प्रदेश के 13 जनपदों महराजगंज, सिद्धार्थनगर, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया, मऊ, आजमगढ़, जौनपुर, बलिया, गाजीपुर, वाराणसी, मिर्जापुर और सोनभद्र में अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल कर दिया।

साथ में खरवार, खैरवार को देवरिया, बलिया, गाजीपुर, वाराणसी और सोनभद्र में, सहरिया को ललितपुर में, परहिया, बैगा, अगरिया, पठारी, भुईया, भुनिया को सोनभद्र में, पंखा, पनिका को सोनभद्र और मिर्जापुर में एवं चेरो को सोनभद्र और वाराणसी में अनुसूचित जनजाति में शामिल कर लिया गया। लेकिन, सूबे की कोल, कोरबा, मझवार, उरांव, धांगर, मलार, बांदी, कंवर, कंवराई आदि आदिवासी जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग में ही रहने दिया गया। इन जातियों की सामाजिक स्थिति भी इन जिलों में अन्य जनजातियों के समान ही है। 

अगर हम इनके संवैधानिक अधिकारों पर गौर करें तो कोल मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में, कोरबा बिहार, मध्य प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल में, कंवर मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में, मझवार मध्य प्रदेश में, धांगड़ (उरांव)  मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र में, बादी (बर्दा) गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र में अनुसूचित जनजाति वर्ग में हैं। उत्तर प्रदेश में भी इन जातियों के लोगों की सामाजिक स्थिति अन्य प्रदेशों में निवास करने वाली आदिवासी जातियों के समान ही है जो समय-समय पर सर्वेक्षणों और मीडिया रिपोर्टों में सामने आता रहता है। 

उत्तर प्रदेश में ’अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002’ कानून ने एक बार फिर आदिवासी समुदाय के दुखते रग पर हाथ रख दिया। इसके तहत अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल हुआ आदिवासी समुदाय सत्ता में अपने भागीदारी के संवैधानिक अधिकार से ही वंचित हो गया। इस कानून के लागू होने से वे त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडलों और संसद में अपनी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व करने से ही वंचित हो गए क्योंकि राज्य में उनकी आबादी बढ़ने के अनुपात में इन सदनों में उनके लिए सीटें आरक्षित नहीं की गईं।

3 मई, 2002 से 29 अगस्त, 2003 तक राज्य की सत्ता में तीसरी बार काबिज रही बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने भी आदिवासियों के जनप्रतिनिधित्व अधिकार की अनदेखी की। मायावती अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल हुई आदिवासियों की संख्या का रैपिड सर्वे कराकर उनके लिए विभिन्न सदनों में आबादी के आधार पर सीट आरक्षित करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार, परिसीमन आयोग और चुनाव आयोग को भेज सकती थीं लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने इन विसंगतियों के साथ कानून को राज्य में लागू कर दिया। इससे एक बार फिर आदिवासियों के समानुपातिक प्रतिनिधित्व का संवैधानिक अधिकार कानूनी और सियासी पचड़े में उलझ गया। 

समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव की अगुआई में 29 अगस्त, 2003 को राज्य में सरकार बनी। तत्कालीन सपा सरकार में मंत्री और दुद्धी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से करीब 27 साल तक विधायक रहे विजय सिंह गोंड़ त्रिस्तरीय पंचायतों समेत विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लड़ने से वंचित हो गए। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका भी दायर की, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके बाद वे सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई।

दूसरी तरफ आदिवासी बहुल सोनभद्र के आदिवासियों में अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए जागरूकता बढ़ी और वो लखनऊ से लेकर दिल्ली तक कूंच कर गए, लेकिन 2004 में सत्ता में आई कांग्रेस की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार यानी संप्रग और 13 मई, 2007 में राज्य की सत्ता में आई मायावती सरकार ने उनकी आवाज को एक बार फिर नजर अंदाज कर दिया। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश का आदिवासी समुदाय अपने हक के लिए जिला प्रशासन से लेकर उच्चतम न्यायालय तक अपनी आवाज पहुंचाता रहा। 

मौके की नजाकत को भांपते हुए पूर्व विधायक विजय सिंह गोंड़ ने कांग्रेस का दामन थामने का निर्णय लिया। उन्होंने इसकी पृष्ठभूमि भी तैयार कर ली। इसके बाद उन्होंने अपने बेटे विजय प्रताप की ओर से 2011 के आखिरी महीने में उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका संख्या-540/2011 दाखिल करवाई। केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के हक में रिपोर्ट दी।

उच्चतम न्यायालय ने केंद्रीय निर्वाचन आयोग, भारत सरकार और उत्तर प्रदेश को तलब किया। केंद्र सरकार, राज्य सरकार और केंद्रीय चुनाव आयोग को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 10 जनवरी, 2012 को आदिवासियों के हक में फैसला दिया। हालांकि उसने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने और सीटों के आरक्षण की प्रक्रिया में तीन महीने का समय लगने की वजह से उस समय आदिवासियों के हक में सीटें आरक्षित करने से इंकार कर दिया।

आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों की लड़ाई में कांग्रेस ने बरती उदासीनता

वनांचल एक्सप्रेस ब्यूरो

नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय में दाखिल जनहित याचिका (व्यवहार) संख्या-540/2011 की सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग ने जो बातें न्यायालय को बताईं, वह कांग्रेस के नुमाइंदों की पोल खोलती है। चुनाव आयोग ने उच्चतम न्यायालय को बताया कि उसके पास राष्ट्रपति के 2003 के आदेश के अलावा कोई भी अन्य आदेश अथवा निर्देश केंद्र सरकार या उत्तर प्रदेश सरकार से प्राप्त नहीं हुए हैं। ना ही किसी आयोग का निर्देश उसे प्राप्त हुआ है।

सवाल खड़ा होता है कि खुद को आदिवासियों का सबसे बड़ा हितैषी बताने वाली कांग्रेस और उसके युवराज राहुल गांधी पिछले एक दशक से क्या कर रहे थे। जबकि उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के प्रतिनिधित्व का मुद्दा विधानमंडल, संसद, अनुसूचित जनजाति मंत्रालय, अनुसूचित जनजाति आयोग, प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ-साथ इलाहाबाद उच्च न्यायालय सरीखी संवैधानिक संस्थाओं में भी उठ चुका था। 

उत्तर प्रदेश के आदिवासियों का ये मुद्दा मीडिया की सुर्खियों में भी छाया रहा। इतना ही नहीं, 10 जनवरी, 2008 को राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग में अनुसूचित जनजाति मंत्रालय के सचिवों के साथ इस मुद्दे पर बैठक भी हुई थी, लेकिन कांग्रेस पार्टी और इसके नुमाइंदे इस मामले पर चुप रहे। इससे जुड़े मामले में 16 सितंबर, 2010 को हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी कांग्रेस वाली संप्रग सरकार और राहुल गांधी ने कोई कदम आगे नहीं बढ़ाया। 

जब विजय सिंह गोंड से कांग्रेस का समझौता हो गया और वे उसका हाथ पकड़ने के लिए राजी हो गए तो केंद्र की यूपीए सरकार उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के हित का ढिंढोरा पिटने लगी। उसने सुप्रीम कोर्ट में उनके पक्ष में रिपोर्ट भी दिया। इतना ही नहीं वह 2011 में हुई जनगणना के तहत उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जनजाति वर्ग के आंकड़े भी चुनाव आयोग को मुहैया कराने के लिए तैयार हो गई ताकि विजय सिंह गोंड़ के रूप में दुद्धी विधानसभा सीट से कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में एक विधायक मिल सके।

इसके अलावा वह बहुजन समाज पार्टी के गढ़ (दुद्धी, राबर्ट्सगंज, राजगढ़, चकिया, ओबरा, घोरावल विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र) में सेंध लगा सके। इसे परवान चढ़ाने के लिए विजय सिंह गोंड उच्चतम न्यायालय का फैसला आने से पहले समाजवादी पार्टी छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए। लेकिन कांग्रेस और विजय सिंह गोंड़ की रणनीति चुनाव आयोग के हलफनामे से बेकार हो गई। 

उ.प्र. में 11 लाख से अधिक अनुसूचित जनजाति, विधानसभा की दो सीटें होंगी आरक्षित

वनांचल एक्सप्रेस ब्यूरो

लखनऊ। उत्तर प्रदेश में अगस्त, 2003 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी थी। उसने पहली बार राज्य के आदिवासी जिलों में विभागीय सर्वेक्षण कराया था। इसमें सामने आया कि राज्य में आदिवासियों की संख्या 2001 की जनगणना के 1,07,963 से बढ़कर 6,65,325 हो गई है।

जनगणना-2011 के अनुसार अब यह आबादी 11,34,273 हो गई है जो राज्य की आबादी का 0.57 प्रतिशत के करीब है। इस आधार पर राज्य की विधानसभा में कम से कम दो सीट अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित होने की संभावना है। इनमें एक सोनभद्र की आदिवासी बहुल दुद्धी विधानसभा सीट शामिल है। अगर लोकसभा सीट की बात करें तो आबादी के लिहाज से राॅबटर््सगंज लोकसभा सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हो सकता है। हालांकि इस मामले में निर्वाचन आयोग की अनुकंपा और कांग्रेस की अगुआई वाली संप्रग सरकार की इच्छाशक्ति ज्यादा काम करेगी।

अगर जिलेवार बात करें तो अनुसूचित जनजातियों की संख्या सोनभद्र में 3,85,018, मिर्जापुर में 20,132, वाराणसी में 28,617, चंदौली में 41,725, बलिया में 1,10,114, देवरिया में 1,09,894, कुशीनगर में 80,269 और ललितपुर में 71,610 है। सोनभद्र में अनुसूचित जनजातियों की संख्या जिले की आबादी का 20.67 प्रतिशत है जो राज्य में किसी भी जिले में अनुसूचित जनजातियों की संख्या से अधिक है। सोनभद्र में अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों की संख्या घटकर 22.63 प्रतिशत हो गई है। जनगणना-2001 के अनुसार यह 6,13,497 थी जो जिले की आबादी का 41.92 प्रतिशत थी। विभागीय सर्वेक्षण-2003-04 के अनुसार सोनभद्र में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 3,78,442 थी। 

  जनगणना-2011: उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक अनुसूचित जनजाति जनसंख्या वाले पांच जिले

क्रमांक              जनपद                              अनसूचित जनजाति                         प्रतिशत
1                      सोनभद्र                                    3,85,018                                          20.67 
2                      बलिया                                     1,10,114                                            3.40 
3                      देवरिया                                    1,09,894                                            3.54 
4                      कुशीनगर                                    80,269                                            2.25 
5                      ललितपुर                                     71,610                                            5.86 

 उत्तर प्रदेश शासन विभागीय जनगणना-2003 

उत्तर प्रदेश शासन समाज कल्याण अनुभाग-3 के शासनादेश संख्या-111, भा0स0/26.03.2003-3(सा)/2003, दिनांक-03.07.2003 में अधिसूचित जनपद-सोनभद्र में अनुसूचित जनजातियों की सूची

क्रमांक                                जाति                                                           जनसंख्या
1                                         गोंड़                                                             1,30,662
2                                         खरवार                                                           73,212
3                                         चेरो                                                                60,578
4                                         बैगा                                                               32,212
5                                         पनिका                                                            26,806
6                                         अगरिया                                                          18,383
7                                         राजगोंड़                                                           14,518
8                                         भुईयां                                                              14,218
9                                         खैरवार                                                              2,513
10                                       पठारी                                                                2,374
11                                       पहरिया                                                              1,367
12                                       पंखा                                                                  1,324
13                                       भुनिया                                                                  275
14                                       धुरिया                                                                       0
15                                       नायक                                                                       0
16                                       ओझा                                                                        0
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                                                 योग                                                         3,78,442
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 त्रिस्तरीय पंचायतों में भी आरक्षण का झाम, ग्राम सभाओं का नहीं हो पाया गठन

वनांचल एक्सप्रेस ब्यूरो

सोनभद्र। सोनभद्र में कई-कई ग्राम सभाओं में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या नगण्य हो गई। इसकी वजह से आज भी करीब आधा दर्जन ग्राम सभाएं असंगठित हैं। दुद्धी विकास खंड का जाबर, नगवां विकास खंड का रामपुर, बैजनाथ, दरेव एवं पल्हारी ग्राम सभाएं इसका उदाहरण हैं। वहां 2001 की जनगणना के आधार पर अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हुई ग्राम प्रधान एवं ग्राम पंचायत सदस्य के पदों पर योग्य उम्मीदवारों की प्रयाप्त दावेदारी नहीं होने के कारण ग्राम पंचायत सदस्यों की दो तिहाई सीटें खाली हैं। इन ग्राम सभाओं का गठन नहीं हो पाया है क्योंकि ग्राम सभा के गठन के लिए ग्राम पंचायत सदस्यों की संख्या दो तिहाई होनी जरूरी है। इन ग्राम सभाओं में जिला प्रशासन द्वारा तीन सदस्यीय कमेटी का गठन कर विकास कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है। 

उदाहरण के तौर पर नगवां विकासखंड का पल्हारी ग्राम सभा। 13 ग्राम पंचायत सदस्यों वाले पल्हारी ग्रामसभा में पंचायत चुनाव-2005 के दौरान कुल 1006 वोटर थे। इस गांव में अनुसूचित जाति का एक परिवार था। शेष अनुसूचित जनजाति एवं अन्य वर्ग के थे। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 12 ग्राम पंचायत सदस्य के पद खाली थे क्योंकि इस पर अनुसूचित जाति का कोई सदस्य चुनाव नहीं लड़ सका था।

ग्राम पंचायत सदस्यों के दो-तिहाई से अधिक पद खाली होने के कारण पल्हारी ग्राम सभा का गठन नहीं हो पाया। जिला प्रशासन द्वारा गठित समिति विकास कार्यों को अंजाम दे रही थी। हालात अब भी वैसे ही हैं। इससे छुटकारा पाने के लिए गैर सरकारी संगठनों के साथ गैर राजनीतिक पार्टियां भी आदिवासियों की आवाज को सत्ता के नुमाइंदों तक पहुंचाने के लिए विभिन्न हथकंडे अपना रहे हैं। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव-2005 के दौरान भी आदिवासियों और कुछ राजनीतिक पार्टियों ने सरकार की नीतियों के खिलाफ आवाजें मुखर की थी। 

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) ने उस समय आदिवासियों की इस आवाज को सत्ता के गलियारों तक पहुंचाने के लिए म्योरपुर विकासखंड के करहिया गांव में पंचायत चुनाव के दौरान समानान्तर बूथ लगाकर आदिवासियों से मतदान करवाया था। भाकपा(माले) के इस अभियान में 500 लोगों ने अपने मत का प्रयोग किया।

वहीं, राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा पंचायत चुनाव के दौरान लगाए गए बूथ पर मात्र 13 वोट पड़े थे। अनुसूचित जाति के दो परिवारों (दयाद) के सदस्यों में से एक व्यक्ति नौ वोट पाकर ग्राम प्रधान चुना गया। शेष सदस्य निर्विरोध सदस्य चुन लिए गये थे। आदिवासियों और भाकपा(माले) के इस अभियान ने राजनीतिक हलके में हडकंप मचाकर रख दी। इसके बाद भी केंद्र एवं राज्य की सरकार की नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इसके बाद भी समाजवादी पार्टी सरकार ने राज्य की त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडल और संसद में आदिवासियों की आबादी के अनुपात में सीटें आरक्षित कराने की पहल नहीं की।

आदिवासियों की गैर-सरकारी संस्था प्रदेशीय जनजाति विकास मंच और आदिवासी विकास समिति ने त्रिस्तरीय पंचायतों में उचित प्रतिनिधित्व के संवैधानिक अधिकार की मांग को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका संख्या-46821/2010 दाखिल की। इसपर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति सुनील अंबानी और काशी नाथ पांडे की पीठ ने 16 सितंबर, 2010 को दिए फैसले में साफ कहा है कि अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल जाति समुदाय के लोगों का आबादी के अनुपात में विभिन्न संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार उनका संवैधानिक आधार है जो उन्हें मिलना चाहिए।

पीठ ने राज्य सरकार के उस तर्क को भी खारिज कर दिया था कि ’अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002’ लागू होने के बाद राज्य में आदिवासियों की जनगणना नहीं है। पीठ ने साफ कहा कि 2001 की जनगणना में अनुसूचित जाति वर्ग और अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल जातियों की जनगणना अलग-अलग कराई कई थी और इसका विवरण विकासखंड और जिला स्तर पर भी मौजूद है।

इसकी सहायता से अनुसूचित जाति से अनुसूचित जनजाति में शामिल हुई जातियों की आबादी को पता किया जा सकता है। पीठ ने आदिवासियों के हक में फैसला देते हुए त्रिस्तरीय पंचायतों में सीटें आरक्षित करने का आदेश दिया लेकिन चुनाव की अधिसूचना जारी हो जाने के कारण पंचायत चुनाव-2010 में उच्च न्यायालय का आदेश लागू नहीं हो पाया।

 (यह रिपोर्ट उत्तर प्रदेश के सोनभद्र से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक समाचार-पत्र 'वनांचल एक्सप्रेस' के पहले अंक (13 अक्टूबर,2013)  में प्रकाशित हो चुकी है।)
        

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