शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

भारतीय गणतंत्र के पैंसठ बरस

ण-तंत्र और पैंसठ बरस। एक, किसी देश के नागरिकों के लिए एकता-अखंडता और सामाजिक न्याय की धुरी है तो दूसरा, उसकी सफलता का पैमाना। सामाजिक न्याय की कसौटी पर पैंसठ वर्षीय भारतीय गणतंत्र का आकलन आज भी चौंकाने वाला है। छांछठवें गणतंत्र दिवस के जश्न का आगाज हो चुका है। विश्व के सबसे शक्तिशाली देश का मुखिया आज हमारे गणतंत्र दिवस समारोह का प्रमुख मेहमान है। मेहमाननवाजी हमारी संस्कृति है और विनम्रता हमारी ताकत। दोनों के संगम का झलक गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर बखूबी देखने को मिला लेकिन सफल गणतंत्र की प्रमुख कड़ी यानी सामाजिक न्याय उक्त अवधि में भारतीय व्यवस्था की कमजोर कड़ी बनकर सामने आया है।

देश की आजादी के समय सामाजिक और आर्थिक आधार पर पिछड़ा वर्ग आज भी पिछड़ा हुआ है। देश के अस्सी फीसदी संसाधनों पर दस प्रतिशत आबादी वाले पूंजीपतियों और धन्नासेठों का कब्जा है। शेष संसाधनों पर सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों के आकाओं और उनके चहेतों का गुलाम बना आम नागरिक अपने अच्छे दिनों की चाह लिए जिंदा है। भारतीय संविधान में प्रदत्त अधिकारों के तहत उन्हें आज भी सामाजिक न्याय के लिए अपनी जिंदगी के बहुमूल्य समय सलाखों और चहारदीवारी के पीछे काटने पड़ रहे हैं। 

देश की नौकरशाही में विद्यमान नीतिनिर्धारकों और निर्णायकों में उनकी भागीदारी नगण्य है। उनके पारंपरिक धंधों पर भी अब सामाजिक और आर्थिक रूप से मजबूत सामंती और शोषक ताकतों का कब्जा होने लगा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों और ठेकदारी प्रथा ने उन्हें उनकी कौशल क्षमता का गुलाम बना दिया है। उनकी उन्नति का आधार उनकी कौशल क्षमता पारिवारिक जिम्मेदारियों में फंसकर दम तोड़ती जा रही है। देश की तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार के गठन में उनकी भागीदारी केवल मताधिकार तक सिमट गई है। 

जनप्रतिनिधियों से जवाब मांगने का उनका संवैधानिक अधिकार रोजी-रोटी की तलाश बन गया है। कभी-कभी उनका भेजा फिर भी गया तो भ्रष्ट तंत्र उसकी गुलामी का अहसास करा देता है। फिर कभी वह अपने संवैधानिक अधिकार का बात नहीं करता। अगर कर भी लिया तो वह भी उसी धारा में बहने को मजबूर हो जाता है जिस राजनीतिक धारा में देश की वर्तमान व्यवस्था बह रही है। वंचित तबकों के नेताओं के बदलते स्वरूप आज कुछ ऐसे ही संकेत दे रहे हैं।

भारतीय गणतंत्र के पैंसठ बरस बुद्धिजीवियों और समाजशास्त्रियों को आवारा पूंजी और बाजार की गुलामी का अहसास करा रहे हैं जो एक साम्राज्यवादी सत्ता की विशेषता है। वास्तव में भारत की गणतांत्रिक व्यवस्था के रक्षक साम्राज्यवादी सत्ता की गुलामी स्वीकार करने की ओर अग्रसर हो रहे हैं जो एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए घातक संकेत है। यह देश में सामाजिक न्याय के सवाल के लिए भी घातक है। 

साम्राज्यवाद और वैश्वीकरण की गूंज में यह कहीं खो सा गया है जो भारतीय गणतंत्र को अंदर ही अंदर खोखला बना रहा है। पूंजी का बदलता स्वरूप कानूननिर्माताओं को स्वार्थपन की ओर अग्रसर कर रहा है। इस वजह से अमीर और गरीब की खाईं दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। सामाजिक न्याय का फासला और बढ़ रहा है। धन्नासेठों के मुकदमे जल्द खत्म हो रहे हैं तो गरीबों की कई पीढ़ियां एक मुकदमे को लड़ने में कर्जदार बनती जा रही हैं। 

इन हालात में गणतंत्र दिवस का जश्न कई सवाल लेकर एक बार फिर दस्तक दे चुका है। क्या इस जश्न में सामाजिक न्याय के प्रति कानून-निर्माताओं और निर्णायकों का नज़रिया बदलेगा? अगर नहीं तो निश्चित ही यह भारत की गणतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं होगा। किसी ने कहा है जिंदगी आशाओं की डोर है। हम भी इसके हिस्से हैं। इसलिए बदलाव की आशा के साथ गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!


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