विश्व मूलवासी दिवस (9 अगस्त) पर विशेष
विश्व की कुल जनसंख्या करीब 6 अरब में से 3 अरब 70 करोड़ मूलवासी हैं, जो करीब 70 देशों में रह रहे हैं... भारत में वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार करीब आठ करोड़ चालीस लाख लोगों को मूलवासियों के रूप में चिन्हित किया गया है...
हरि राम मीणा
’मूलवासी’ (इण्डीजीनिस) शब्द को परिभाषित करना अत्यधिक कठिन है। इस शब्द पर चर्चा करने के साथ-साथ आदिवासी (ट्राईब) देसी (नेटिव) एवं आदिम (अबोरिजनल) जैसे शब्दों की अवधारणाएं सामने आती हैं। वर्ष 1987 में ग्रेलर ने मूलवासी की व्याख्या करते हुए कहा कि यह ‘राजनैतिक दृष्टि से अधिकार-विहीन लोगों के ऐसे समुदाय हैं जो अपनी विशिष्ट नस्लगत पहचान बनाये रखते हैं और आधुनिक राष्ट्र की अवधारणा के मूर्तरूप लेने के बावजूद अलग ईकाई के रूप में समाज का हिस्सा बनकर चलते हैं।
इससे पूर्व वर्ष 1972 में मूलवासी-जन के लिये गठित संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्य समूह ने जोस माल्टीनेज कोज की परिभाषा से सहमति प्रकट करते हुए ’किसी भू-भाग पर विष्व के अन्य हिस्सों से आने वाले बाहरी मानव समूहों से पहिले वहां प्राचीन काल से रहने वाले लोगों के वंशज' के रूप में मूलवासी की पहचान की है। इस प्रक्रिया में बाहरी घुसपैठियों द्वारा आक्रमण एवं उस भू-भाग पर अधिकार करने तथा मूलवासियों को दोयम दर्जे का जीवन जीने को विवश किया गया। परिणास्वरूप वर्चस्वकारी व्यवस्था में उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाने लगा और यहीं से विश्व की सबसे बड़ी समस्या नस्ल पर आधारित भेदभाव तथा मूलवासियों से सम्बन्धित अन्य मुद्दे सामने आये।
वर्ष 1983 में संयुक्त राष्ट्र संघ के स्तर पर ’मूलवासी’ शब्द की व्याख्या करते हुए माना कि ’किसी भू-भाग पर प्राचीन काल से रहने वाले मानव समुदाय के वंशज हैं जो नस्ल एवं संस्कृति के स्तर पर विशिष्टता रखते हों । इनमें से काफी लोग राष्ट्र-समाज की मुख्य धारा से अलग-थलग अपने पुरखों की परम्परा एवं रीति रिवाजों का संरक्षण करते हुए जीवन जीते चले आ रहे हैं और विकसित राष्ट्रीय, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश को ये लोग बाहरी (एलियन) मानते हैं।’ कुल मिलाकर ’’किसी भू-भाग के ज्ञात प्राचीनतम निवासियों’’ को मूलवासी कहना उचित होगा।
भौगोलिक दृष्टिकोण से आस्ट्रेलिया महाद्वीप के मूलवासियों को आदिम (अबोरिजनल) और शेष दुनिया के मूलवासियों को ’इण्डीजीनस’ कहा जाता है। आदिम शब्द में मौलिकता जैसे सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक तत्व का तथा मूलवासी (इण्डीजीनस) में भू-भाग विशेष में जीवन जीते रहने का भाव संकेतित होता है। आदिवासी समुदाय आदिम एवं मूलवासी समाज का वह हिस्सा है जो अभी भी मुख्य समाज से अलग-थलग प्रमुख रूप से प्रकृति पर आधारित जीवन जीता आ रहा है और प्राचीनता एवं नैसर्गिकता के सन्दर्भ में आदिम सरोकारों का कमोबेश संरक्षण किये हुए है।
सामान्य तौर पर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मूलवासी किसी भूखंड पर निर्विवाद रूप से लम्बे समय से वंषानुगत क्रम में निवास करने वाले ऐसे जन हैं जिनका नस्ल विशेष से गहरा संबंध होता है। यहां नस्ल, भू-भाग एवं प्राचीनता महत्वपूर्ण शब्द हैं। आधुनिक राष्ट्र- समाज एवं सरकारों के उद्भव के साथ अपनी स्वतन्त्र ईकाई के सन्दर्भ में ऐसे मूलवासी समुदाय राजनीति के स्तर पर अपने अस्तित्व एवं अधिकारों के लिये एक विषिष्ट पहचान बनाने की प्रक्रिया से गुजरते आये हैं। काल-खण्डानुक्रम की दृष्टि से प्राचीन काल, उपनिवेषवाद काल एवं आधुनिक काल के संदर्भ में इनकी अस्मिता, पराभव एवं पुनरूत्थान की प्रक्रिया को समझना आसान होगा। इस प्रक्रिया में होने वाले नस्ल परिवर्तन, सांस्कृतिक प्रदूषण, भाषागत अन्र्तक्रिया, मूल्यगत हृास की दृष्टि से परम्परा एवं आधुनिकता का अन्तर्संघर्ष, अन्तविर्रोध, अन्तक्र्रिया, परस्पर प्रभाव जैसी प्रमुख स्थितियां उभर कर सामने आती हैं । इस क्रम में भू-भाग विषेष महत्वपूर्ण तत्व न रहकर मानव समूहों के बिखराव एवं विस्थापन की स्थिति सामने आती है। यहां वनांचल से मुख्य भूमि, गावों से शहर और परम्परागत समाज से आधुनिक समाज की ओर अग्रसर होने की स्वाभाविकता या विवषता भी महत्वपूर्ण बन जाती है। निश्चित रूप से इतिहास एवं संस्कृति जैसे प्रमुख क्षेत्र प्रभावित होते हैं और प्राचीन ऐतिहासिकता एवं मौलिक संस्कृति के संरक्षण के प्रश्न सामने आते हैं।
विश्व मूलवासी अध्ययन केन्द्र की स्थापना वर्ष 1984 में डा0 रूडोल्फ सी0 रायसर एवं जार्ज मेनुअल ने एक स्वतंत्र शोध एवं शैक्षिक संगठन के रूप में की। जार्ज मेनुअल राष्ट्रीय भारत मैत्री संगठन (कनाडा) के पूर्व अध्यक्ष थे जिन्होंने उपनिवेषवाद से उबरे मूलवासियों के लिये कार्य किया। उन्होंने ही संयुक्त राष्ट्र संघ से सम्बन्धित मूलवासियों की विष्व परिषद के गठन में महत्पूर्ण योगदान दिया।
उल्लेखनीय है कि विश्व की कुल जनसंख्या करीब 6 अरब में से 3 अरब 70 करोड़ मूलवासी हैं, जो करीब 70 देशों में रह रहे हैं। भारत राष्ट्र के सन्दर्भ में मूलवासी श्रेणी में ही आदिवासियों को माना गया है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार करीब आठ करोड़ चालीस लाख लोगों को मूलवासियों के रूप में चिन्हित किया गया है। इनके कुल 461 समूह माने गये हैं। स्वतन्त्र शोध निष्कर्षो के अनुसार ऐसे कुल 635 आदिवासी घटक हैं जिनमें प्रमुख गोण्ड़, सन्थाल, उरांव, भील व नागा आदि हैं। जनगणना के मुताबिक 461 चिन्हित आदिवासी घटकों में से 220 उत्तर-पूर्वी राज्यों में रहते हैं, जो कुल आदिवासियों का 12 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैसे मध्य भारत में कुल आदिवासियों की करीब 50 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है। ये आंकडे संविधान की सूचि में शामिल आदिम समुदायों के हैं. इनके अलावा नृतत्वविज्ञान की दृष्टि से अन्य आदिम समूह भी हैं जिनमें अपरिगणित, घुमंतू व अर्द्धघुमंतू हैं. इन चारों श्रेणियों को मिलकर हमारे अध्ययन के अनुसार कुल 1048 आदिम समुदाय भारत में हैं. ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विचार किया जाये और आर्य-अनार्य संग्राम-शृंखला के सिद्धान्त को स्वीकार किया जाता है तो आदिवासी समाज के साथ दलित(अनुसूचित जाति) जनसंख्या भी मूलवासी की श्रेणी में आती है और साथ ही द्रविड़ मूल के अन्य घटक भी।
वैश्विक मूलवासियों पर जब चर्चा की जाती है तो विश्व के सभी महाद्वीप विमर्श के केन्द्र में आते हैं। मूलवासियों की जनसंख्या अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, एशिया, यूरोप आदि सभी महाद्वीपों से गहरा संबंध रखती आई हैं चाहे समस्या उत्तरी अमेरिका के रेड इंडियनस् की हो या दक्षिणी अमेरिका के ’बुश नीग्रो’ की हो या अफ्रीका के सांन की हो या मैक्सिको के माया लोगों की हो या न्यूजीलैंड के मोरानी की हो या आस्ट्रेलिया के कुरी, नुनगा, टीवी की हो या यूरोप के खिनालुग, कोमी, सामी की हो अथवा एषिया के अडंमान टापू के सेंटेनलीज या जारवा की हो।
मूलवासियों को सर्वाधिक त्रासदी का सामना उपनिवेष-काल के दौर में करना पड़ा था जो पन्द्रहवीं शताब्दी से शुरू होकर बीसवीं सदी के मध्य पार तक चला। नव साम्राज्यवाद एवं वैष्वीकरण के इस दौर में मूलवासियों की समस्याओं के और अधिक पेचीदा बनने की संभावनाएं सामने हैं। वे उच्च तकनीकी, बाजारवाद एवं पूंजी की वर्तमान भूमिका से सर्वथा अपरिचित हैं। मूलवासियों का विष्व-समाज आधुनिक प्रगतिशील जगत से स्वयं को पृथक व पिछड़ा हुआ महसूस करता है और है भी।
अन्तर्राष्ट्रीय मूलवासी दिवस के रूप में नौ अगस्त को मनाने की पृष्ठभूमि यह है कि वर्ष 1982 में इसी तारीख को संयुक्त राष्ट्र संघ के मूलवासी लोगों के कार्यसमूह की प्रथम बैठक सम्पन्न हुई थी। तद्नुसार संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा की दिनांक 23 दिसम्बर 1994 को हुई बैठक में इस तिथि को ’अन्तराष्ट्रीय मूलवासी दिवस’ मनाने का निर्णय लिया। विश्व के मूलवासियों के उत्थान के लिये वर्ष 1995 से 2004 तक की अवधि को ’प्रथम मूलवासी दशक’ एवं वर्ष 2005 से 2014 तक की अवधि को ’द्वितीय मूलवासी दशक’ के रूप में मनाये जाने का संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा में घोषणा की गई।
मूलवासियों के प्रति सामान्यीकृत दृष्टिकोण विरोधाभाषी रहे हैं। मूलवासियों के समर्थक उनके इतिहास एवं संस्कृति को विश्व धरोहर तथा प्रकृति के साथ बेहतरीन सामंजस्य से आपूरित जीवन शैली एवं संस्कृति के रूप में देखते हैं, वहीं दूसरा दृष्टिकोण मूलवासियों को आदिम, असभ्य, जंगली एवं अविकसित श्रेणी का मानता है।
वर्तमान काल में मूलवासियों से संबंधित समस्याएं विश्व के सामने महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं जिनमें नस्लभेद, रोटी-कपड़ा-मकान, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं, विस्थापन, संस्कृति का संरक्षण, पहचान का संकट एवं मानवाधिकारों के संरक्षण आदि शामिल हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में आदिवासी आबादी की आधी से अधिक जनसंख्या गरीबी के स्तर से नीचे का जीवन जीने को विवश है जबकि गरीबी की रेखा से नीचे जीने वाले भारत की कुल आबादी का करीब तिहाई अंश है । शेष विश्व के मूलवासियों की भौतिक दशा भी कमोबेश ऐसी ही है। इन समस्याओं के समाधान के बिना मूलवासियों का भविष्य सुरक्षित नहीं है, जो विश्व मानवता के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।
(लेखक सेवानिवृत प्रशासनिक अधिकारी और विभिन्न विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफ़ेसर हैं।)
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