राजनेता और जनप्रतिनिधि पूंजीघरानों के एजेंट के रूप में कार्य करते नजर आ रहे हैं। इस वजह से देश के विभिन्न इलाकों में एक भारत दूसरे भारत से जंग कर रहा है...
written by Shiv Das Prajapati
आजादी! रहने, खाने, पीने, घूमने, जीने, रोजगार करने और बोलने की आजादी! कुछ ऐसी ही आजादी की सोच हर देश के हर आम नागरिक की होती है। भारतीयों की
भी है। हालांकि वे अपनी आजादी को लेकर अभी भी विभिन्न खेमों में बंटे हैं। इनमें
से कई ऐसे हैं जो भारत को अंग्रेजों की दासता से आजाद मानते हैं लेकिन नीतिगत
मामलों में उसे आज भी गुलाम मानते हैं।
विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था
का दंभ भरने वाली भारतीय सरकारों की नीतियां लोकतांत्रिक न होकर पूंजीगत होती जा
रही हैं। सरकार की जनहित नीतियों में पूंजीपतियों का दखल बढ़ता जा रहा है। इससे
देश के विभिन्न इलाकों में आम नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का बड़े पैमाने पर
हनन हो रहा है। पीड़ितों और शोषितों की आवाज पूंजी घरानों और सामंती सोच के
नौकरशाहों के आगे फीकी पड़ती जा रही है।
राजनेता और जनप्रतिनिधि पूंजीघरानों के
एजेंट के रूप में कार्य करते नजर आ रहे हैं। इस वजह से देश के विभिन्न इलाकों में
एक भारत दूसरे भारत से जंग कर रहा है। अंग्रेजों के शासन से भारत को आजाद हुए सरसठ
साल हो चुके हैं लेकिन देश के विभिन्न हिस्सों में आज भी आधे से ज्यादा आबादी
भारतीय संविधान में प्रदत्त अधिकारों के लिए सत्ता से लोहा ले रही है। कभी दो वक्त
की रोटी के लिए तो कभी खुद की हिफाजत के लिए। कभी इंसाफ के लिए तो कभी भारतीय
लोकतंत्र की सड़ांध (भ्रष्टाचार) को जड़ से मिटाने के लिए।
क्या स्वतंत्रता
संग्राम के रणबांकुरों ने ऐसी ही आजादी की कल्पना की थी?
संभवतः नहीं। उन्होंने एक ऐसे भारत की कल्पना की होगी जहां गांव की गलियों से लेकर
महानगरों की चकाचौंध तक हर व्यक्ति खुद को आजाद महसूस कर सके। उसे दो वक्त की रोटी
के लिए चोरी ना करना पड़े। इंसाफ के लिए उसे बंदूक उठाकर जंगलों में न भटकना पड़े।
सांप्रदायिक कट्टरता का भय उसे अपना आशियाना छोड़ने को मजबूर ना करे। हलक की प्यास
बुझाने के लिए खुद की जमीं और नदियों का पानी बीस रुपये लीटर ना खरीदना पड़े। और,
एक भारत दूसरे भारत से संघर्ष करता ना दिखे।
आजादी के बाद देश की कमान संभालने
वाले राजनेताओं ने क्या उन रणबांकुरों के सपनों को साकार करने की कोशिश की?
अगर हां तो फिर क्यों देश की आजादी के सरसठ साल बाद भी देश की चालीस
फीसदी आबादी भूखमरी की कगार पर है? कहीं न कहीं देश की कमान संभालने वाले
मौकापरस्त राजनेताओं ने अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन में लापरवाही बरती है। उनकी
इन लापरवाहियों के लिए हम आम नागरिक भी जिम्मेदार हैं क्योंकि समय-समय पर सत्ता की
कमान हमने ही उनके हाथों में दिया।
क्या
स्वतंत्रता दिवस के इस अड़सठवें अवसर पर हम उनकी गलतियों का जिम्मा ले सकते हैं?
अगर नहीं तो हमें देश की आजादी के इस त्यौहार को मनाने का कोई हक
नहीं है। वास्तव में हमें उनकी लापरवाहियों का जिम्मा लेना होगा और उनसे सीख लेते
हुए एक सच्चे लोकतांत्रिक देश के सपने को साकार करने के लिए खुद आगे आना पड़ेगा। इस
ऐतिहासिक पर्व पर इसी संकल्प के साथ स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत मुबारकबाद!
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