(नोटः भगत सिंह ईश्वर के अस्तित्व को सिरे से नकारते थे। उन्होंने यह लेख जेल में
रहते हुए लिखा था जो उनके लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में शुमार रहा है। इस लेख
में उन्होंने ईश्वर के प्रति अपनी धारणा और तर्कों को सामने रखा है। यहां इस लेख
का कुछ हिस्सा प्रकाशित किया जा रहा है....)
मेरे प्रिय दोस्तों! ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं।
ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूंजी
तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। जी हां,
शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था जिसने
किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस अमरता (आत्मा की) में विश्वास दिला दो और उसके
बाद उसका सारा धन-संपत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता
करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल,
फांसीघर,
कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं...
भगत सिंह
प्रत्येक
मनुष्य, जो
विकास के लिए खड़ा है, को
रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उनपर अविश्वास करना होगा और उनको
चुनौती भी देनी होगी। प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी
पर कसना होगा। यदि काफी तर्क के बाद भी वह किसी सिद्धांत या दर्शन के प्रति
प्रेरित होता है तो उसके विश्वास का स्वागत है। उसका तर्क असत्य,
भ्रमित
या छलावा और कभी-कभी मिथ्या हो सकता है लेकिन उसको सुधारा जा सकता है क्योंकि विवेक
उसके जीवन का दिशा-सूचक है। हालांकि निरा विश्वास और अंधविश्वास ख़तरनाक है। यह
मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य यथार्थवादी
होने का दावा करता है, उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी।
यदि वे
तर्क का प्रहार न सह सके तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे। तब उस व्यक्ति का
पहला काम होगा, तमाम
पुराने विश्वासों को धराशायी करके नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना। यह तो
नकारात्मक पक्ष हुआ। इसके बाद सही कार्य शुरू होगा। इसमें पुनर्निर्माण के लिए
पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है। जहां तक मेरा संबंध है,
मैं
शुरू से ही मानता हूँ कि इस दिशा में मैं अभी कोई विशेष अध्ययन नहीं कर पाया हूं।
एशियाई
दर्शन को पढ़ने की मेरी बड़ी लालसा थी लेकिन ऐसा करने का मुझे कोई संयोग या अवसर
नहीं मिला। हालांकि जहां-तक इस विवाद के नकारात्मक पक्ष की बात है,
मैं
प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न उठाने के संबंध में आश्वस्त हूं। मुझे पूरा
विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा,
जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है,
का
कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगति का ध्येय
मनुष्य द्वारा, अपनी
सेवा के लिए, प्रकृति
पर विजय पाना है। इसको दिशा देने के लिए पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा
दर्शन है।
हां-तक
नकारात्मक पहलू की बात है, हम
आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं- (i)
यदि,
जैसा
कि आपका विश्वास है, एक
सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक
एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की तो कृपा करके मुझे
यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों
और आफतों से भरी इस दुनिया में असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित
एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं। कृपया, यह
न कहें कि यही उसका नियम है।
यदि वह किसी नियम में बंधा है तो वह सर्वशक्तिमान
नहीं। फिर तो वह भी हमारी ही तरह गुलाम है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका
शग़ल है। नीरो ने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था। उसने चंद लोगों की हत्या की थी।
उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने
शौक और मनोरंजन के लिए। उसका इतिहास में क्या स्थान है?
उसे
इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी
विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं। जालिम,
निर्दयी,
शैतान-जैसे
शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ-के पृष्ठ रंगे पड़े हैं।
एक चंगेज़ खां ने अपने
आनंद के लिए कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब फिर
तुम उस सर्वशक्तिमान अनंत नीरो, जो हर दिन,
हर
घंटे और हर मिनट असंख्य दुख देता रहा है और अभी भी दे रहा है,
को
किस तरह न्यायोचित ठहराते हो? फिर
तुम उसके उन दुष्कर्मों की हिमायत कैसे करोगे जो हर पल चंगेज़ के दुष्कर्मों को भी
मात दिए जा रहे हैं?
इसलिए मैं पूछता हूं, ‘‘उस
परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया?
आनंद
लुटने के लिए? तब
उसमें और नीरो में क्या फर्क है?"
मैं पूछता हूं कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी-ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है,
अनंत
और गहन वेदना का घर है? सर्वशक्तिमान
ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी?
इन सब
बातों का तुम्हारे पास क्या जवाब है? तुम
यह कहोगे कि यह सब अगले जन्म में, इन
निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और गलती करने वालों को दंड देने के लिए हो
रहा है। ठीक है, ठीक
है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे जो हमारे शरीर को जख्मी करने का
साहस इसलिए करता है कि बाद में इस पर बहुत कोमल तथा आरामदायक मलहम लगाएगा?
ग्लैडिएटर
संस्था के व्यवस्थापकों तथा सहायकों का यह काम कहां तक उचित था कि एक भूखे-खूंखार
शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो। यदि वह उस जंगली जानवर से बचकर अपनी जान बचा लेता
है तो उसकी खूब देख-भाल की जाएगी?
इसलिए मैं पूछता हूं, ‘‘उस
परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया?
आनंद
लुटने के लिए? तब
उसमें और नीरो में क्या फर्क है?’’
मुसलमानों
और ईसाइयों! हिंदू-दर्शन के पास अभी और भी तर्क हो सकते हैं। मैं पूछता हूं कि
तुम्हारे पास ऊपर पूछे गए प्रश्नों का क्या उत्तर है?
तुम
तो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर
सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्व जन्मों के कुकर्मों का
फल है। मैं तुमसे पूछता हूं कि उस सर्वशक्तिशाली ने विश्व की उत्पत्ति के लिए छः
दिन मेहनत क्यों की और यह क्यों कहा था कि सब ठीक है। उसे आज ही बुलाओ,
उसे
पिछला इतिहास दिखाओ। उसे मौजूदा परिस्थितियों का अध्ययन करने दो।
फिर हम देखेंगे
कि क्या वह आज भी यह कहने का साहस करता है- सब ठीक है। कारावास की काल-कोठरियों से
लेकर, झोपड़ियों
और बस्तियों में भूख से तड़पते लाखों-लाख इंसानों के समुदाय से लेकर,
उन
शोषित मजदूरों से लेकर जो पूंजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को
धैर्यपूर्वक या कहना चाहिए, निरुत्साहित
होकर देख रहे हैं।
उस
मानव-शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति,
जिसे
तनिक भी सहज ज्ञान है, भय
से सिहर उठेगा। अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बांटने के बजाय समुद्र में
फेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक-जिनकी नींव मानव की
हड्डियों पर पड़ी है...उसको यह सब देखने दो और फिर कहे-‘‘सबकुछ
ठीक है।’’ क्यों
और किसलिए? यही
मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो? ठीक
है तो मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूं।
हिंदुओं! तुम कहते हो कि
आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, वे
पूर्वजन्म के पापी हैं। ठीक है। तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु
पुरुष थे, इसलिए वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके
पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और
अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है लेकिन हमें यह विश्लेषण
करना है कि ये बातें कहां तक टिकती हैं।
न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध
विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर केवल तीन-चार कारणों
से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की
निंदा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है।
केवल सुधार
करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है। इसका उद्देश्य
अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। यदि
हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर
द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है?
तुम
कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली,
पेड़,
जड़ी-बूटी
या जानवर बनाकर पैदा करता है।
तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो। मैं पूछता हूं
कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है?
तुम
ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म
में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक
भी नहीं?
अपने पुराणों से उदाहरण मत दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान
नहीं है। क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है?
गरीबी
एक अभिशाप है, वह
एक दंड है।
मैं पूछता
हूं कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र
या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की प्रशंसा आप कहां तक करेंगे जो किसी ऐसी
दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे। वह अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को
बाध्य करे? क्या
तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या
उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर-अनुभव से
सीखनी थीं? तुम
क्या सोचते हो?
किसी
गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे
एक चमार या मेहतर, के यहां पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा?
चूंकि
वह गरीब हैं, इसलिए
पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊंची
जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊंचा समझते हैं। उसका अज्ञान,
उसकी
गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते
हैं। मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा?
ईश्वर,
वह
स्वयं या समाज के मनीषी?
उन लोगों
के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर
अज्ञानी बनाए रखा। उन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों-वेदों के कुछ वाक्य
सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सजा भुगतनी पड़ती थी?
यदि
वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा?
मेरे प्रिय दोस्तों! ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं।
ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूंजी
तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। जी हां,
शायद
वह अपटन सिंक्लेयर ही था जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता
में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसका सारा धन-संपत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाए
इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के
गठबंधन से ही जेल, फांसीघर,
कोड़े
और ये सिद्धांत उपजते हैं।
मैं पूछता
हूं कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब
वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? ये
तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर
लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने
वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया?
मैं पूछता हूं कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं
रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है?
ये
तो वह बहुत आसानी से कर सकता है।
उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने
के उन्माद को समाप्त किया। इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली
विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया? उसने
अंग्रेज़ों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की?
वह
क्यों नहीं पूंजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के
साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल
सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन
समस्त मानव-समाज को पूंजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करें
आप समाजवाद
की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता
हूं कि वह इसे लागू करे। भगत सिंह का जन्म एक सिख परिवार में हुआ जो आर्यसमाज में
आस्था रखता था। जहां तक जनसामान्य की भलाई की बात है,
लोग
समाजवाद के गुणों को मानते हैं लेकिन वह इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर
इसका विरोध करते हैं।
चलो,
आपका
परमात्मा आए और वह हर चीज को सही तरीके से कर दें। अब घुमा-फिराकर तर्क करने का
प्रयास न करें, वह
बेकार की बातें हैं। मैं आपको यह बता दूं कि अंग्रेजों की हुकूमत यहां इसलिए नहीं
है कि ईश्वर चाहता है, बल्कि
इसलिए कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं है। वे हमें
अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं, बल्कि बंदूकों,
राइफलों,
बम
और गोलियों, पुलिस
और सेना के सहारे रखे हुए हैं।
यह हमारी ही उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध
सबसे निंदनीय अपराध-एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचारपूर्ण
शोषण-सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहां है ईश्वर?
वह
क्या कर रहा है? क्या
वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मजा ले रहा है?
वह
नीरो है, चंगेज
है तो उसका नाश हो।
क्या तुम
मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति और मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे
करता हूं? ठीक
है, मैं तुम्हें
बतलाता हूं। चार्ल्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसको
पढ़ो। सोहन स्वामी की ‘सहज
ज्ञान’ पढ़ो।
तुम्हें इस सवाल का कुछ सीमा तक उत्तर मिल जाएगा। यह (विश्व-सृष्टि) एक प्राकृतिक
घटना है। विभिन्न पदार्थों के, निहारिका
के आकार में, आकस्मिक
मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास
देखो।
इसी प्रकार की घटना का जंतु पैदा हुए और एक लंबे दौर के बाद मानव। डारविन की
‘जीव की उत्पत्ति’
पढ़ो।
सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति से लगातार संघर्ष और उस पर विजय पाने की चेष्टा
से हुआ। यह इस घटना की संभवतः सबसे संक्षिप्त व्याख्या है। तुम्हारा दूसरा तर्क यह
हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा या लंगड़ा पैदा होता है, यदि यह उसके पूर्वजन्म
में किए कार्यों का फल नहीं है तो?
जीवविज्ञान-वेत्ताओं
ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाला है। उनके अनुसार, इसका सारा दायित्व
माता-पिता के कंधों पर है जो अपने उन कार्यों के प्रति लापरवाह अथवा अनभिज्ञ रहते
हैं। वे बच्चे के जन्म के पूर्व ही उसे विकलांग बना देते हैं। स्वभावतः तुम एक और
प्रश्न पूछ सकते हो-यद्यपि यह निरा बचकाना है। वह सवाल यह कि यदि ईश्वर कहीं नहीं
है तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा
उत्तर संक्षिप्त तथा स्पष्ट होगा-जिस प्रकार लोग भूत-प्रेतों तथा दुष्ट-आत्माओं
में विश्वास करने लगे, उसी प्रकार ईश्वर को मानने लगे।
अंतर केवल इतना है कि ईश्वर
में विश्वास विश्वव्यापी है और उसका दर्शन अत्यंत विकसित। ईश्वर की उत्पत्ति के
बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं,
दुर्बलताओं
और कमियों को समझने के बाद, परीक्षा
की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को उत्साहित करने,
सभी
खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बांधने
के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की।
कुछ उग्र
परिवर्तनकारियों (रेडिकल्स) के विपरीत मैं इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की
प्रतिभा को नहीं देता जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने
प्रभुत्व में रखना चाहते थे। वे उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन
चाहते थे। यद्यपि मूल बिंदु पर मेरा उनसे विरोध नहीं है कि सभी धर्म, सम्प्रदाय,
पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएं अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा
वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप
रहा है।
ईश्वर की
उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं
व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को
उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में
उसके विस्फोट को बांधने के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की। अपने
व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की कल्पना एवं चित्रण बढ़ा-चढ़ाकर
किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक
डरानेवाले के रूप में किया जाता है ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए।
जब उसके
अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता,
माता,
भाई,
बहन,
दोस्त
तथा सहायक की तरह किया जाता है। इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के
विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से
सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है,
उसे
सहारा देगा, जो
कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है।
वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए
उपयोगी था। विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है। समाज को
इस ईश्वरीय विश्वास के विरुद्ध उसी तरह लड़ना होगा जैसे कि मूर्ति-पूजा तथा धर्म-संबंधी
क्षुद्र विचारों के विरुद्ध लड़ना पड़ा था।
मेरे
दोस्तों! यह
मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। मैं नहीं जानता कि ईश्वर
में विश्वास और रोज़-बरोज़ की प्रार्थना, जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी
और गिरा हुआ काम मानता हूं, मेरे लिए सहायक सिद्घ होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर
देगी।
इसी प्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और
यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी
कष्टों, परेशानियों
का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमें परिस्थितियां उसे पलट सकती हैं। मेरी स्थिति
आज यही है। यह मेरा अहंकार नहीं है।
मैंने उन
नास्तिकों के बारे में पढ़ा है जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अतः
मैं भी एक मर्द की तरह फांसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊंचा किए खड़ा रहना
चाहता हूं। देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूं।
मेरे एक दोस्त ने मुझे
प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा,
‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को
मानने लगोगे’।
मैंने कहा, ‘नहीं
प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा। ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी। स्वार्थ
के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूंगा।’ पाठको
और दोस्तो, क्या
यह अहंकार है? अगर
है तो मैं इसे स्वीकार करता हूं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Thank you for comment