चौधरी राजेन्द्र |
मिश्रित
अर्थव्यवस्था से सामाजिक सरोकारों को पूरा नहीं किया जा सकता? सामाजिक सरोकारों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन की जरूरत होती है। 6
दिसम्बर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ और भारत की मिश्रित
अर्थव्यवस्था का परिदृश्य एक नए आर्थिक मॉडल के पथ पर आगे बढ़ने लगा। इसको हम
मनमोहन मॉडल के रूप में जानते हैं। हालांकि इस मॉडल की पृष्ठभूमि मिश्रित
अर्थव्यवस्था के रूप में देश की आजादी के समय ही तैयार हो गई थी जिसे 1947 के बाद
तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने लागू कर दिया...
written by Chaudhary Rajendra
आगे रास्ता बंद है! बंद
रास्ते की तलाश में मैं 1993 में ही सीतापुर के नेमिषारण जाना चाह रहा था क्योंकि
वेद व्यास ने वहां महाभारत के दर्शन की रचना की थी और मैं उसे समझना चाह रहा था।
हालांकि 2007 के पहले यह संयोग नहीं बन पाया। आज से करीब सात साल पहले जनवरी-फरवरी
महीने में कुछ समाजवादी चिंतकों ने काशी से कुशीनगर तक 28 दिनों की सह-सहयोग
यात्रा निकाली। इसी दौरान नेमिषारण मेरा भी जाना हुआ। वापसी के समय मैं
सह-सहयोग यात्रा में मऊ में शामिल हुआ और पूरी यात्रा के दौरान आगे का रास्ता क्या
होगा? पर चर्चा करता रहा। यह बहस उस समय केवल वातावरण में ही
विद्यमान रही, इसकी जमीन तैयार नहीं हो सकी।
करीब डेढ़ साल बाद नवंबर,
2008 में काशी विश्व विद्यालय ( काशी हिन्दू विश्व विद्यालय नहीं क्योंकि इसकी
स्थापना काशी विश्व विद्यालय के नाम से ही हुई थी) स्थित अर्थशास्त्र विभाग की
प्रमुख प्रो. किरन वर्मन और सामाजिक कार्यकर्ता लोलारक द्विवेदी के संयुक्त प्रयास
से “इंडियन इकोनॉमी इन दी ट्वेन्टी फर्स्ट सेंचुरीः प्रॉस्पेक्टिव
ऐंड चैलेन्जेज” विषयक एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें
मुख्य वक्ता के रूप में समाजवादी चिंतक सुनील ने शिरकत की।
परिचर्चा में साथी सुनील ने आर्थिक मंदी और उसके विभिन्न कारणों का बखूबी विश्लेषण किया। आगे रास्ता क्या होगा? संभवतः इसकी परिकल्पना भी उनके दिमाग में थी। दुनिया में पहली बार आयी विश्वव्यापी आर्थिक मंदी (1929) और वर्तमान आर्थिक मंदी (2009) के बीच अंतराल लगभग 100 वर्ष का है। इसलिए दोनों आर्थिक मंदियों के कारणों की चर्चा की जाए। इसके लिए जरूरी है कि उनका तथ्यात्मक परीक्षण भी किया जाए।
परिचर्चा में साथी सुनील ने आर्थिक मंदी और उसके विभिन्न कारणों का बखूबी विश्लेषण किया। आगे रास्ता क्या होगा? संभवतः इसकी परिकल्पना भी उनके दिमाग में थी। दुनिया में पहली बार आयी विश्वव्यापी आर्थिक मंदी (1929) और वर्तमान आर्थिक मंदी (2009) के बीच अंतराल लगभग 100 वर्ष का है। इसलिए दोनों आर्थिक मंदियों के कारणों की चर्चा की जाए। इसके लिए जरूरी है कि उनका तथ्यात्मक परीक्षण भी किया जाए।
उक्त गोष्ठी में मेरी भांजी चंद्रकला ने भी अर्थशास्त्र की शोध छात्रा के रूप में शिरकत की थी। उसे मैंने समझाया था कि दोनों आर्थिक मंदियों के कारण भिन्न-भिन्न हैं। प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के बाद या यूं कहें कि वोल्शेविक क्रांति के बाद दुनिया में उसके दुष्परिणाम सामने आए। करोड़ों लोग मारे गए थे।
संभवतः वह विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का प्रमुख कारण था। पेरिस शांति समझौता के बाद इस मंदी को उबारने के लिए महान अर्थशास्त्री केन्स ने पूर्ण रोजगार का सिद्धांत प्रतिपादित किया। गौर करने वाली बात है कि "केन्स बाजार का प्रवर्तक है और बाजार से समता नहीं आती।" परन्तु विश्व को आर्थिक रूप से उबारने के लिए मित्र राष्ट्र का जो फार्मूला था, वह कारगर दिशा की ओर अग्रसर हुआ।
सुनील भाई |
दुनिया में बाजार का दौर शुरू हो चुका था। वैज्ञानिक समाजवाद पीछे छूट गया था। राष्ट्र अपनी-अपनी पूंजी बढ़ाने में लगे थे। चाहे वह अमेरिका रहा हो या फिर सोवियत संघ! तीसरी दुनिया के देशों में भी इस नवउदारवाद का गहरा प्रभाव पड़ा। संभवतः यह बड़े राष्ट्रों द्वारा छोटे राष्ट्रों के शोषण की शुरुआत थी।
भारत में 1991 की घटना के बाद या यूं कहें कि मंडल कमीशन की सिफारिशों के लागू होने के बाद एक नए राजनीतिक परिदृश्य का जन्म हुआ। अभी हम मिश्रित अर्थव्यवस्था से आगे बढ़ रहे थे। मिश्रित अर्थव्यवस्था से सामाजिक सरोकारों को पूरा नहीं किया जा सकता? सामाजिक सरोकारों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन की जरूरत होती है। इसे महसूस किया गया।
लिहाजा 6 दिसम्बर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ और भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था का परिदृश्य एक नए आर्थिक मॉडल के पथ पर आगे बढ़ने लगा। इसको हम मनमोहन मॉडल के रूप में जानते हैं। हालांकि इस मॉडल की पृष्ठभूमि मिश्रित अर्थव्यवस्था के रूप में देश की आजादी के समय ही तैयार हो गई थी जिसे 1947 के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने लागू कर दिया।
सन् 1992 के बाद राजसत्ता की ताकत उन्हीं हाथों में थी और उन्हें आर्थिक संसाधनों की तलाश थी। मिश्रित अर्थव्यवस्था में विकास दर 4 प्रतिशत थी। इसे बढ़ाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिन्हा राव ने बाजार का सहारा लिया और अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने इस देश को नवउदारवाद, वैश्वीकरण और बाजारवाद में पूर्ण रूप से झोंक दिया।
इसी बहस को आगे बढ़ाते हुए साथी सुनील ने गोष्ठी में भारतीय मॉडल को पेश किया। उन्होंने कहा कि आगे रास्ता बंद है और बाजार समता नहीं ला सकती। कुछ लोगों को लूट के जरिए आगे बढ़ाने से अच्छा है कि हम पीछे लौटें। हमको पीछे लौटने में क्या गुरेज है? कटोरा लेकर भीख मांगने से अच्छा है, हम पीछे लौट लें। संभवतः सुनील अर्थशास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते मार्क्स-गांधी-लोहिया के संयुक्त सिद्धांत को आगे बढ़ाने की बात कह रहे थे।
उन्ही दिनों उनके एक साथी समरेन्द्र की किताब “आउट ऑफ दिस अर्थ” का विमोचन प्रो. दीपक मलिक ने अस्सी घाट पर आयोजित एक कार्यक्रम में किया। यह किताब नियमगिरि पर्वत के बहाने पूंजीघरानों द्वारा प्रकृति के चीरहरण से खड़ा की जाने वाली एक नई आर्थिक व्यवस्था के खतरे की ओर इशारा करती है। प्राकृतिक संसाधनों की यह लूट केवल नियमगिरि में ही नहीं, बल्कि देश के विभिन्न हिस्सों में चल रही है।
साथी सुनील से मेरी दूसरी मुलाकात समाजवादी चिंतक अफलातून की बिटिया की शादी में हुई। उसमें केवल एक चर्चा हमने की थी कि आप तीनों, सीताराम येचूरी, प्रकाश कारात एवं सुनील, एक ही गुरु के शिष्य हैं लेकिन तीनों की सोच में अद्भूत अंतर है। समाजवादी चिंतक सुनील ने स्वीकार किया कि हम लोग जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रो. प्रभात पटनायक के शिष्ट रहे हैं। हालांकि हम लोगों के बीच दो-तीन वर्षों का अंतर है।
मेरी तीसरी मुलाकात उनसे समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय अधिवेशन (सर्व सेवा संघ, राजघाट, वाराणसी) में हुई। इन्ही दिनों हमारे गांव का मंदिर टूट गया। मंदिर किसी गांव की आत्मा होती है। आत्मा का टूटना अशुभ का संकेत माना जाएगा। मैं 1991 के बाद आजाद भारत के नवउदारवाद का विश्लेषण देख रहा था। मैं देख रहा था कि यह देश भारत के नौजवानों को किस ओर ले जा रहा है। मूल्य गिर रहे थे।
वैचारिकता का अभाव साफ दिख रहा था। मैं तीन दिन उसी कार्यक्रम में रहा लेकिन समाजवादी जन परिषद का सदस्य नहीं बना। सुनील और उनके सभी साथियों का आग्रह था कि आप संगठन में शामिल हो जाएं। मैं सभी साथियों के साथ चर्चा में अवश्य रहा लेकिन संगठन की सदस्यता ग्रहण नहीं किया।
उसी के कुछ दिन पहले गोवा में बीजेपी का राष्ट्रीय अधिवेशन हो रहा था। उसमें भूचाल आया हुआ था। आरएसएस ने प्रधानमंत्री के रूप में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रोजेक्ट करने का फैसला कर लिया था जबकि आडवाणी खेमा उस फैसले के विरोध में खड़ा था और मानमनौवल जारी था। वहीं राजग से नीतीश कुमार की दूरी चर्चा का विषय बन चुकी थी। मोदी और नीतीश एक साथ नहीं रह सकते थे।
देश हतप्रभ था। समाजवादी चिंतक और वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन इस बात से चिंतित थे कि नीतीश कुमार अब क्या करेंगे। वह कल्पना नहीं कर पा रहे थे कि पिछड़ों का मॉडल इस देश को स्वीकार है कि नहीं। हालांकि नीतीश का मॉडल देश का मॉडल नहीं हो सकता। मणिक सरकार और चंद्रबाबू नायडू या यूं कहें कि तमिलनाडु का मॉडल देश का मॉडल नहीं बन सकता। फिर भी ऐसे मॉडलों से अरविन्द मोहन जैसे समाजशास्त्री और बुद्धिजीवी परेशान थे।
इन विश्लेषणों में न जाया जाए तो एक बात साफ थी कि समरेन्द्र की किताब और उनके साथियों द्वारा वेदांता के खिलाफ चलाया जा रहा आंदोलन अधिवेशन में चर्चा के विषय बने रहे। इंग्लैंड में वेदांता के खिलाफ आंदोलन की अगुआई कर रही मीरियम रोज और उनकी साथी भी इस अधिवेशन का हिस्सा बनीं।
अधिवेशन का प्रतिफल जो भी रहा हो लेकिन समाजवादी जन परिषद अंदर और बाहर दोनों तरफ लड़ाई शुरू करना चाह रहा था। हालांकि इसके लिए आवश्यक संगठन अभी तैयार नहीं था। उसके भी कारण में मेरे गांव का मंदिर टूटना है, ऐसा मुझे लगता है। उन दोनों को आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण और बाजारीकरण के रूप में देखा जा सकता है। देश का मूल्य टूट चुका था और नए सृजन की तलाश की जा रही थी?
साथी सुनील से मेरी चौथी मुलाकात चंचल मुखर्जी की किताब की दुकान पर हुई जो बहुत महत्वपूर्ण और जरूरत की थी। अर्जक संघ के साथियों के साथ संभवतः उनकी अंतिम मुलाकात थी। इस मुलाकात में समाजवादी चिंतक सुनील की बहुत सारी बातें सामने आईं। अर्जक संघ के साथियों ने भी उन्हें काफी प्रभावित किया। साथी सुनील ने कबीर के एक दोहे से अपनी बात खत्म की-
“साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप स्वभाव,
सार-सार को गहि रहै, थोता
देहि उड़ाए।”
आज मैं उनके विश्लेषण का आकलन करता हूं कि “प्रयोगधर्मी के रूप में सुनील ने समाज में एक नया आयाम पैदा किया। कल क्या होगा, परिस्थितियां क्या बनेंगी, कैसे बनेंगी, यह गर्भ में है! लेकिन रास्ते की तलाश में सुनील भी हैं? और उनका रुचिकर ध्येय है!
बंद रास्ते की तलाश अधूरी है या पूर्ण होगी, यह गांधी के शिष्यों पर निर्भर करेगा।
“सुनील नहीं हैं, परन्तु यादे हैं।”
यादें
नई सृजन की जमीन तय करेंगी?
(लेखक पूर्व छात्रनेता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)
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