(नोटः कनहर
सिंचाई परियोजना को लेकर सोनभद्र के अमवार गांव में जारी संघर्ष कई खेमों में बंट
गया है। गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओज) की आपसी लड़ाई में जिला प्रशासन अपना उल्लू
सीधा कर रहा है। उनकी गैर-संवैधानिक इन गुजारियों में सूबे की सत्ता में काबिज
राजनीतिक पार्टी के नुमाइंदे भी सहायता कर रहे हैं। अन्य राष्ट्रीय और क्षेत्रीय
पार्टियों के नुमाइंदे परियोजना निर्माण में खर्च होने वाली धनराशि में अपने-अपने
हिस्से का जुगाड़ करने में मशगूल हैं। वहीं परियोजना निर्माण से प्रभावित होने
वाले परिवारों की आवाज गुम सी हो गई है। उनका बहता लहू एनजीओज की जमीन को उर्वरा बना
रही है तो कुछ कलमवीर इसमें भविष्य तलाश रहे हैं। पिछले दिनों देश की राजधानी से
एक टोली भी यहां आई थी। उसने प्रायोजित विरोध-प्रदर्शनों समेत नौकरशाहों के
गैर-कानूनी क्रियाकलापों के बीच इलाके का दौरा किया। इस टोली में से एक हैं स्वतंत्र
पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव। उन्होंने एक रिपोर्ट भेजी है जिसे वैसे ही प्रकाशित
किया जा रहा है। इसमें कुछ तथ्य वास्तविकता से परे हैं। इसके लिए बहुत हद तक जिला
प्रशासन के आलाधिकारी भी जिम्मेदार हैं। वे जरूरी और आवश्यक सूचनाओं को
मीडियाकर्मियों को उपलब्ध नहीं करा रहे हैं। इस वजह से बाहर से आने वाले पत्रकार
एवं समाजसेवी चर्चाओं पर आधारित तथ्य को अपनी रिपोर्टों में इस्तेमाल कर रहे हैं
जो समाज में भ्रम की स्थिति पैदा किये हुए है। फिलहाल अभिषेक श्रीवास्तव की
रिपोर्ट यहां प्रकाशित की जा रही है। इस रिपोर्ट के कई तथ्यों से वनांचल
एक्सप्रेस
सहमत नहीं है। जल्द ही सही तथ्यों पर आधारित रिपोर्ट वनांचल
एक्सप्रेस
प्रकाशित करेगा- संपादक)
आओ देखो कनहर में बहता लहू...
reported by अभिषेक
श्रीवास्तव
इस साल अक्षय तृतीया पर जब
देश भर में लगन चढ़ा हुआ था, बारातें निकल रही थीं और हिंदी अखबारों के स्थानीय
संस्करण हीरे-जवाहरात के विज्ञापनों से पटे पड़े थे, तब बनारस से सटे सोनभद्र के
दो गांवों में पहले से तय दो शादियां टल गईं। फौजदार (पुत्र केशवराम, निवासी
भीसुर) के बेटे का 22 अप्रैल को तिलक था। अगले हफ्ते उनके बेटे की शादी होनी थी।
पड़ोस के गांव में 24 अप्रैल को देवकलिया और शनीचर (पुत्र रामदास, निवासी सुन्दरी)
की बेटी की शादी थी। फौजदार समेत देवकलिया और शनीचर सभी 20 अप्रैल तक दुद्धी तहसील
के ब्लॉक चिकित्सालय में भर्ती थे। देवकलिया की बेटी घर पर अकेली थी। 20 की शाम
को अचानक फौजदार और शनीचर को गंभीर घायल घोषित कर के पांच अन्य मरीज़ों के साथ
जिला चिकित्सालय में भेज दिया गया जबकि देवकलिया को दस मरीज़ों के साथ छुट्टी दे
दी गयी। देवकलिया जानती थी कि चार दिन में अगर वह शादी की तैयारी कर भी लेगी तो
उसके पति शनीचर को अस्पताल से नहीं छोड़ा जाएगा क्योंकि उत्तर प्रदेश के
समाजवादी राज में सरकारी अस्पताल का दूसरा नाम जेल है।
यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश
यादव को शायद नहीं पता कि हेम्बोल्ट विश्वविदयालय के अभिलेखागार से राममनोहर लोहिया
की जिस गायब थीसिस पर वे अप्रैल के तीसरे सप्ताह में ट्वीट कर के चिंता जता रहे
थे, उसे उत्तर प्रदेश की पुलिस ने कनहर नदी की तलहटी में हफ्ता भर पहले ही दफना
दिया था। पिछले पांच महीने से सोनभद्र जि़ले को 'विकास' नाम का रोग लगा हुआ है।
इसके पीछे पांगन नदी पर प्रस्तावित कनहर नाम का एक बांध है जिसे कोई चालीस साल
पहले सिंचाई परियोजना के तहत मंजूरी दी गयी थी। झारखण्ड (तत्कालीन बिहार), छत्तीसगढ़
(तत्कालीन मध्यप्रदेश) और उत्तर प्रदेश के बीच आपसी मतभेदों के चलते लंबे समय
तक इस पर काम रुका रहा और बीच में दो बार इसका लोकार्पण भी हुआ। पिछले साल जिस वक्त
अखिलेश यादव की सरकार ने नयी-नयी विकास परियोजनाओं का एलान करना शुरू किया, ठीक
तभी उनकी सरकार को इस भूले हुए बांध की भी याद हो आयी। कहते हैं कि उनके चाचा
सिंचाई मंत्री शिवपाल सिंह यादव ने इसमें खास दिलचस्पी दिखायी और सोनभद्र को
हरा-भरा बनाने के नाम पर इसका काम शुरू करवा दिया। दिसंबर में काम शुरू हुआ तो
ग्रामीणों ने विरोध करना शुरू किया। प्रशासन से उनकी पहली झड़प 23 दिसंबर 2014 को
हुई। इसके बाद 14 अप्रैल, 2015 को आंबेडकर जयन्ती के दिन पुलिस ने धरना दे रहे
ग्रामीणों पर लाठियां बरसायीं और गोली चलायी। एक आदिवासी अकलू चेरो को छाती के पास
गोली लगकर आर-पार हो गयी। वह बनारस के सर सुंदरलाल चिकित्सालय में भर्ती है। उसे
अस्पताल लाने वाले दो साथी लक्ष्मण और अशर्फी मिर्जापुर की जेल में बंद हैं। इस
घटना के बाद भी ग्रामीण नहीं हारे। तब ठीक चार दिन बाद 18 अप्रैल की सुबह सोते हुए
ग्रामीणों को मार कर खदेड़ दिया गया, उनके धरनास्थल को साफ कर दिया गया और पूरे
जिले में धारा 144 लगा दी गयी। यह धारा अगली 19 मई तक पूरे जिले में लागू है। अब
तक दो दर्जन से ज्यादा गिरफ्तारियां हो चुकी हैं। आंदोलनकारियों को चुन-चुन कर
पकड़ा जा रहा है।
फौजदार, शनीचर और देवकलिया
उन पंद्रह घायलों में शामिल सिर्फ तीन नाम हैं जिन्हें 20 अप्रैल तक दुद्धी के ब्लॉक
चिकित्सालय में बिना पानी, दातुन और खून से लथपथ कपड़ों में अंधेरे वार्डों में
कैद रखा गया था। प्रशासन की सूची के मुताबिक 14 अप्रैल की घटना में 12 पुलिस
अधिकारी/कर्मचारी घायल हुए थे जबकि सिर्फ चार प्रदर्शनकारी घायल थे। इसके चार दिन
बाद 18 अप्रैल की सुबह पांच बजे जो हमला हुआ, उसमें चार पुलिसकर्मियों को घायल
बताया गया है जबकि 19 प्रदर्शनकारी घायल हैं। दोनों दिनों की संख्या की तुलना
करने पर ऐसा लगता है कि 18 अप्रैल की कार्रवाई हिसाब चुकाने के लिए की गयी थी। इस
सूची में कुछ गड़बडि़यां भी हैं। मसलन, दुद्धी के सरकारी चिकित्सालय में भर्ती
सत्तर पार के जोगी साव और तकरीबन इतनी ही उम्र के रुकसार का नाम सरकारी सूची में
नहीं है।
हम वास्तव में नहीं जान
सकते कि कनहर बांध की डूब से सीधे प्रभावित होने वाले गांवों सुन्दरी, भीसुर और
कोरची के कितने घरों में इस लगन बारात आने वाली थी, कितने घरों में वाकई आयी और
कितनों में शादियां टल गयीं। कितने घर बसने से पहले उजड़ गए और कितने बसे-बसाये घर
बांध के कारण उजड़ेंगे, दोनों की संख्या जानने का कोई भी तरीका हमारे पास नहीं
है। दरअसल, यहां कुछ भी जानने का कोई तरीका नहीं है सिवाय इसके कि आप सरकारी
बयानों पर जस का तस भरोसा कर लें। वजह इतनी सी है कि यहां एक बांध बन रहा है और
बांध का मतलब विकास है। इसका विरोध करने वाला कोई भी व्यक्ति विकास-विरोधी और
राष्ट्र-विरोधी है।
सोनभद्र में हालांकि हालांकि
विकास से काफी आगे जा चुकी है। याद करें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पद
संभालने के बाद पिछले साल न्यूयॉर्क के मैडिसन चौक में एक बात कही थी कि उनकी इच्छा
है कि ''विकास को जनांदोलन'' बना दिया जाए। इस बात को न तो बहुत तवज्जे दी गयी और
न ही इसका कोई फौरी मतलब निकाला गया, लेकिन ऐसा लगता है कि ''विकास को जनांदोलन''
बनाने की सीख सबसे पहले लोहिया के शिष्यों ने उत्तर प्रदेश में ली और उसे आज
सोनभद्र में लागू किया जा रहा हैा भरोसा न हो तो विंध्य मंडल के मुख्य अभियंता
कुलभूषण द्विवेदी के इस बयान पर गौर करें जिनके क्षेत्राधिकार में कनहर परियोजना
आती है। एक पत्रकार द्वारा नदियों की और पर्याव्रण की खराब सेहत पर सवाल पूछे
जाने के जवाब में उसे टोकते हुए अभियंता ने कहा, ''पहली बार देश को मर्द
प्रधानमंत्री मिला है। पूरी दुनिया में उसने भारत का सिर ऊंचा किया है वरना हम
कुत्ते की तरह पीछे दुम दबाए घूमते थे।'' इनका कहना है कि मुख्य सचिव, मुख्यमंत्री
और आला अधिकारी 14 अप्रैल की गोलीबारी के बाद कनहर बांध पर रोज़ बैठकें कर रहे हैं
और पूरे इलाके को छावनी तब्दील करने का आदेश ऊपर से आया है। फिलहाल कनहर में
मौजूद पुलिस चौकी को थाने में तब्दील किया जा रहा है। मोदी जिसे ''विकास का
जनांदोलन'' कहते हैं, उसकी शक्ल यहां ''बांध बनाओ हरियाली लाओ'' नाम के कथित
आंदोलन में देखी जा सकती है जिसने 20 अप्रैल को भाकपा (माले) की पोलित ब्यूरो
सदस्य कविता कृष्णन के नेतृत्व में दिल्ली से यहां आए एक जांच दल को पुलिस के
उकसावे पर भरपूर गालियां देते हुए दो घंटे तक अस्पताल में बंधक बनाए रखा और इसके
सदस्यों को ''विकास विरोधी'', ''अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी'' व ''आइएसआइ एजेंट'' के
तमगों से नवाज़ा।
विकास के इस कथित उग्र
''जनांदोलन'' के बारे में सोनभद्र के पुलिस अधीक्षक शिवशंकर यादव ऐसे समझाते हैं,
''पूरी पब्लिक साथ में है कि बांध बनना चाहिए। सरकार साथ में है। तीनों राज्य
सरकारों का एग्रीमेंट हुआ है बांध बनाने के लिए... हम लोगों ने जितना एहतियात बरता
है, उसकी पूरी पब्लिक तारीफ़ कर रही है।'' यादव का यह बयान एक मान्यता है जो
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आकांक्षा और अभियंता द्विवेदी के दावे जैसा है। इस
मान्यता के पीछे काम कर रही तर्क-प्रणाली को आप सोनभद्र के युवा जिलाधिकारी संजय
कुमार के इस बयान से समझ सकते हैं, ''हमने जो भी बल का प्रयोग किया, वह इसलिए ताकि
लोगों को मैसेज दिया जा सके कि लॉ ऑफ दि लैंड इज़ देयर...। आप समझ रहे हैं? ऐसे तो लोगों में प्रशासन और पुलिस का डर ही खत्म हो जाएगा। कल को लोग
कट्टा लेकर गोली मार देंगे... आखिर हमारे दो गज़ेटेड अफसर घायल हुए हैं...! बेचारे एसडीएम ने अपनी जेब से दस लाख अपने इलाज पर खर्च किया है!''
यह बात अपने आप में चौंकाने
वाली है कि एक एसडीएम ने अपने इलाज पर अपनी जेब से दस लाख रुपये कैसे खर्च कर दिए।
ज़ाहिर है, होगा तभी खर्च किए होंगे। सुन्दरी, भीसुर और कोरची के आदिवासियों के
पास अपने ऊपर खर्च करने को सिर्फ आंसू हैं। समय के साथ वे भी अब कम पड़ते जा रहे हैं।
दुद्धी के अस्पताल में भर्ती जोगी साव (जिनका नाम घायलों की सरकारी सूची में दर्ज
नहीं है) हमें देखते ही फफक कर रो पड़ते हैं। गला भर्रा जाता है। इशारे से दिखाते
हैं कि कहां-कहां पुलिस की मार पड़ी है। पैर के ज़ख्म दिखाने के लिए हलका सा
झुकते हैं तो कमर पकड़कर ऐंठ जाते हैं। इनकी उम्र सत्तर बरस के पार है। 18 अप्रैल
की सुबह धरनास्थल पर ये सो रहे थे। जब पुलिस बल आया, तो नौजवानों की फुर्ती से ये
भाग नहीं पाए। वहीं गिर गए। वे रोते हुए बताते हैं, ''ओ दिन हमहन रह गइली ओही
जगह... एके बेर में पहुंच गइलन सब... धर-धर के लगावे लगलन डंटा। मेहरारू के झोंटा
धर के लेसाड़ के मारे लगलन... लइकनवो के नाहीं छोड़लन...।'' जोगी साव के शरीर पर
डंडों के निशान हैं। उनके आंसू नहीं रुकते जब वे हाथ दिखाते हुए कहते हैं, ''एक
डंटा मरले हउवन... दू डंटा गोड़े में... तब जीप में ले आके इहां गिरउलन।'' यह पूछे
जाने पर कि क्या कोई मुकदमा भी दर्ज हुआ है उनके खिलाफ़, वे बोले, ''मुकदमा त
दर्ज नाहीं कइलन, बाकी कहलन कि अस्पताल में चलिए, जेल नहीं जाना पड़ेगा।''
जांच दल के सदस्यों कविता
कृष्णन, प्रिया पिल्ल्ई, पूर्णिमा गुप्ता, ओमप्रकाश सिंह, रजनीश और सिद्धांत
मोहन समेत देबोदित्य सिन्हा के साथ जब यह लेखक 20 अप्रैल को दुद्धी अस्पताल के
इस वार्ड में पहुंचा, तो कुल आठ पुरुष यहां भर्ती थे। महिला वार्ड में पांच
महिलाएं थीं और अस्पताल के गलियारे में दो घायलों को अलग से लेटाया गया था। कुल
दस पुरुषों में बस एक नौजवान था जिसका नाम था मोइन। बाकी नौ पुरुषों की औसत उम्र
साठ के पार रही होगी। गलियारे में पहले बिस्तर पर जो बुजुर्ग लेटे थे, उनके चेहरे
पर कोई भाव नहीं था। नाम- बूटन साव, गांव कोरची। इन्हें भी डंडे की मार पड़ी थी।
चोट दिखाते हुए बोले, ''आप जनते के तरफ से हैं न?'' हां में
जवाब देने पर बोले, ''हम लोगों को छोड़वा दीजिए घर तक''। और इतना कह कर वे अचानक रोने
लगे। यह पूछने पर कि कब यहां से छोड़ने को कहा गया है, बूटन बोले, ''छोड़ेंगे
नहीं... किसी को मिलने भी नहीं आने दे रहे हैं। बोले हैं यहीं रहना है, नहीं तो
जेल जाओ।''
सुन्दरी में 18 अप्रैल की
सुबह साठ-सत्तर साल के बूढ़ों के सिर पर डंडा मारा गया है। औरतों के कूल्हों में
डंडा मारा गया है। जहूर को पुलिस ने इतनी तेज़ हाथ पर मारा कि तीन उंगलियां ही फट
गयी हैं। पुलिस अधीक्षक यादव कहते हैं, ''सिर पर इरादतन नहीं मारा गया, ये
''इन्सिडेन्टल'' (संयोगवश) है।'' ''क्या तीनों बुजुर्गों के सिर पर किया गया वार
''इन्सिडेन्टल'' है?'' इस सवाल के जवाब में वे बोले, ''बल प्रयोग किया गया था, ''इन्सिडेन्टल''
हो सकता है। हम कोई दुश्मन नहीं हैं, इसकी मंशा नहीं थी।'' ''और 14 अप्रैल को
अकलू के सीने को पार कर गयी गोली?'' यादव विस्तार से बताते
हैं, ''पुलिस ने अपने बचाव में गोली चलायी। थानेदार (कपिलदेव यादव) को लगा कि मौत
सामने है। वैसे भी हमारे यहां पहले एसडीएम पर हमला हो चुका है। सबसे पहले अकलू ने
बांस की पटिया से थानेदार को मारा। फिर उसके भाई रमेश ने थानेदार के हाथ पर कुल्हाड़ी
से हमला किया। पुलिस अफसर नीचे गिर गया। उसे लगा कि वह नहीं बच पाएगा, तो उसने
रक्षा के लिए हवा में दो राउंड फायर किया।'' यह पूछे जाने पर कि हवा में फायर करने
से अकलू की छाती के पास गोली कैसे लगी, यादव कहते हैं,''थानेदार ''लेड डाउन'' (पीछे
की ओर झुका हुआ) था, ऐसी आपात स्थिति में ज्योमेट्री नहीं नापी जाती है। उसने खुद
कहा कि उसे पता ही नहीं चला कि गोली कहां लगी है।'' इस घटना के बारे में बीएचयू
में भर्ती अकलू का कहना है, ''हमको मारकर के थानेदार (कपिलदेव यादव) अपने हाथे में
गोली मार लिए हैं और कह दिए कि ये मारे हैं... बताइए...।''
यादव के मुताबिक आपात स्थिति
में ''ज्योमेट्री'' नहीं नापी जाती है। उनके हिसाब से एकबारगी अगर मान भी लें कि पुलिस
ने गोली ''आत्मरक्षा'' में चलायी और सिर पर डंडा ''संयोगवश'' चल गया, तो सवाल
उठता है कि गांवों में घुसकर लोगों को पहाड़ तक खदेड़ देना, औरतों के साथ बदतमीज़ी
करना, घरों पर हमला करना, उनके मुर्गे-मुर्गियां पकाकर खा जाना कौन सी गणित कहलाता
है?
यादव पूछते हैं, ''आप ही बताइए कौन सा घर तोड़ा गया। पुलिस आज तक
गांव में नहीं घुसी है।'' डीएम भी उनकी बात का समर्थन करते हैं। ''और पीएसी?'' इससे भी वे इनकार करते हैं। यादव पलटकर कहते हैं, ''तब तो आपने यह भी
सुना होगा कि छह लोगों को मारकर पुलिस ने दफना दिया है?''
हमारे इनकार करने पर वे दोबारा इस बात पर ज़ोर देते हैं। जिलाधिकारी संजय कुमार
कहते हैं, ''हज़ारों मैसेज सर्कुलेट किए गए हैं कि छह लोगों को मारकर दफनाया गया
है। इंटरनेशनल मीडिया भी फोन कर रहा है। एमनेस्टी वाले यही कह रहे हैं। हम लोग
पागल हो गए हैं जवाब देते-देते। इतनी ज्यादा अफ़वाह फैलायी गयी है। चार दिन तक हम
लोग सोये नहीं। ''
कौन फैला रहा है यह अफ़वाह? जवाब में जिलाधिकारी हमें एक एसएमएस दिखाते हैं जिसमें 18 तारीख के हमले
में पुलिस द्वारा छह लोगों को मार कर दफनाए जाने की बात कही गयी है। भेजने वाले का
नाम रोमा है। रोमा सोनभद्र के इलाके में लंबे समय से आदिवासियों के लिए काम करती
रही हैं। 14 अप्रैल की घटना के बाद जिन लोगों पर नामजद एफआइआर की गयी उनमें रोमा
भी हैं। पुलिस को उनकी तलाश है। डीएम कहते हैं कि कनहर बांध विरोधी आंदोलन को
रोमाजी ने अपना निजी एजेंडा बना लिया है। ''तो क्या सारे बवाल के केंद्र में
अकेले रोमा हैं?'' यह सवाल पूछने पर वे मुस्करा कर कहते
हैं, ''लीजिए, सारी रामायण खत्म हो गयी। आप पूछ रहे हैं सीता कौन है।'' डीएम और एसपी
दोनों अबकी हंस देते हैं।
कनहर बांध के मामले में कुछ
तो है जो छुपाया जा रहा है। कुछ है जो उजागर तो हो गया है लेकिन शीशे की तरह साफ़
नहीं है। एक सच उनका है जिनके घर डूब जाएंगे। इन्हें बदले में क्या मिलेगा, इस
पर सवाल है। यह सवाल हमेशा से रहा है। भाखड़ा-नंगल से लेकर रिहंद तक एक से ज्यादा
बार विस्थापित होने वाले परिवारों को साठ साल में कायदे से उचित मुआवज़ा नहीं
मिला। नर्मदा की लड़ाई तीस साल से हमारे सामने है। बहरहाल, दूसरा सच उनका है जिनके
घर नहीं डूबेंगे। जिनके घर डूब रहे हैं, वह आदिवासी ग्रामीण है। जिनके नहीं डूब
रहे, वह मोटे तौर पर गैर-आदिवासी और शहरी है। चूंकि इस तबके को बांध बनने से कोई
नुकसान नहीं है, लिहाज़ा इस तबके को बांध बनने तक कुछ न कुछ फायदा ज़रूर है। जब
2800 करोड़ का एक बांध बनता है तो उसमें बहुत सी चीज़ों की ज़रूरत होती है। किसी
का डम्पर चलता है। कोई ट्रक चलवाता है। कोई रोड़ी देता है। कोई बालू और कंक्रीट
देता है। कोई मजदूर सप्लाई करता है। किसी का गेस्ट हाउस चमक जाता है। एक बांध के
इर्द-गिर्द एक समूची परजीवी अर्थव्यवस्था खड़ी हो सकती है। इसका मतलब कि बांध से
नुकसान झेलने वाले और उससे लाभ उठाने वाले वर्ग वास्तव में परस्पर शत्रुवत
स्थिति में होते हैं। इन दोनों से इतर एक तीसरा पक्ष भी है। इसका अपना सच है। यह
सच उन लोगों से जुड़ा है जो कनहर बांध के खिलाफ़ आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं। ये
वे लोग हैं जिनका बांध बनने से कोई निजी नुकसान तो नहीं हो रहा, लेकिन फिर भी वे
बांध के खिलाफ और आदिवासी ग्रामीणों के साथ खड़े माने जाते हैं। रोमा इसी पक्ष की
नुमाइंदगी करती हैं, लेकिन कनहर बांध के संबंध में उनकी सक्रियता बहुत पुरानी नहीं
मानी जाती है।
बताते हैं कि कनहर नदी को
बचाने के लिए बांध के विरोध में आंदोलन का आरंभ गांधीवादी कार्यकर्ता महेशानंद ने
आज से पंद्रह साल पहले किया था। उनके लोग आज भी गांवों में आदिवासियों के बीच
सक्रिय हैं लेकिन महेशानंद समूचे परिदृश्य से नदारद हैं। दिलचस्प बात यह है कि
बांध-विरोधी ग्रामीणों से लेकर बांधप्रेमी प्रशासन तक महेशानंद के बारे में एक ही
राय रखते हैं जो अकसर एक ही जैसे वाक्य में भी ज़ाहिर होती है, ''वो तो भाग
गया।'' 18 अप्रैल की सुबह जब सोते हुए ग्रामीणों पर लाठियां बरसायी गयीं, उसके कुछ
देर बाद सुन्दरी गांव में आंदोलन का महिला नेतृत्व मानी जाने वाली सुकालो ने फोन
पर बताया था, ''यहां कोई लीडर मौजूद नहीं था। महेशानंद तो भाग गया है। कहीं छुपा
हुआ है।'' भीसुर गांव के नौजवान शिक्षक उमेश प्रसाद कहते हैं, ''सब लीडर फ़रार
हैं। गम्भीरा, शिवप्रसाद, फणीश्वर, चंद्रमणि, विश्वनाथ- सब फ़रार हैं। इसीलिए
जनता परेशान है। पहले ये लोग महेशानंद के ग्रुप के थे, बाद में इसमें रोमा घुस
गयीं।'' यह पूछने पर कि यहां के लोग अपने आंदोलन का नेता किसे मानते हैं, उन्होंने
कहा, ''यहां के लोग तो गम्भीराजी को ही अपना नेता मानते हैं, लेकिन उनको फरार
मानकर ही चलिए। जब से आंदोलन बदरंग हुआ, रामप्रताप यादव जैसे कुछ लोग बीच में आकर
समझौता कर लिए। महेशानंद भी समझौते में चले गए हैं। रोमाजी तो यहां हइये नहीं हैं,
बाकी आंदोलन तो उन्हीं का है। उन्हीं के लोग यहां लाठी खा रहे हैं।''
बांध विरोधी आंदोलन के नेता
गम्भीरा प्रसाद को 20 अप्रैल की शाम इलाहाबाद से गिरफ्तार कर के जेल भेजा जा चुका
है। सबसे ताज़ा गिरफ्तारी भीसुर के पंचायत मित्र पंकज गौतम की है।
आंदोलन के नेतृत्व के बारे
में सवाल पूछने पर पुलिस अधीक्षक शिवशंकर यादव कहते हैं, ''महेशानंद आंदोलन छोड़कर
भाग गए हैं। उन्होंने मान लिया है कि उनके हाथ में अब कुछ भी नहीं है। उनका कहना
है कि बस उनके खिलाफ मुकदमा नहीं होना चाहिए। उनके जाने के बाद रोमाजी ने कब्ज़ा
कर लिया है।'' आंदोलन पर ''कब्ज़े'' वाली बात इसलिए नहीं जमती क्योंकि लोग अब भी
इसे रोमा का आंदोलन मानते हैं। ऐसा लगता है कि प्रशासन को दिक्कत दूसरी वजहों से
है। यादव कहते हैं, ''महेशानंद बांध क्षेत्र से बाहर के इलाके में शांतिपूर्ण
आंदोलन चलाते थे। इससे हमें कोई दिक्कत नहीं थी।'' प्रशासन को दिक्कत रोमा के
आने से हुई। जिलाधिकारी संजय कुमार कहते हैं, ''रोमाजी बहुत अडि़यल हैं।'' वे इसके
लिए ''पिग-हेडेड'' शब्द का इस्तेमाल करते हैं। वे कहते हैं, ''वे कहती हैं कि
हमें बात करनी ही नहीं है... आप हमें गोली मार दीजिए, हम बांध नहीं बनने देंगे।
उन्होंने संवाद की कोई जगह छोड़ी ही नहीं है। आखिर हम कहां जाएं?''
माना जाता है कि रोमा का यह
समझौता नहीं करने वाला रवैया ही जनता को और महेशानंद के पुराने लोगों को उनके पाले
में खींच लाया है। इसके अलावा महेशानंद के आंदोलन से हट जाने का लाभ कुछ दूसरे
किस्म के समूहों ने भी उठाया है। मसलन, पीयूसीएल की राज्य इकाई से लेकर
भाकपा(माले)-लिबरेशन और आज़ादी बचाओ आंदोलन के लोग भी अचानक इस आंदोलन में सक्रिय
हो गए हैं। पड़ोस के सिंगरौली में महान के जंगल और नदी को बचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय
संस्था ग्रीनपीस के सहयोग से जिस महान संघर्ष समिति का गठन हुआ था, वह भी अब
सोनभद्र के आंदोलन में जुड़ गयी है। ये सभी धड़े रोमा को आंदोलन का असली नेता
मानते हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि 14 और 18 अप्रैल को जब कनहर के आदिवासियों
पर पुलिस का कहर टूटा, तब और उसके बाद भी रोमा वहां नहीं मौजूद रहीं क्योंकि उनके
आते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता। लोग इस बात को भी समझते हैं।
बांध के विरोध में अलग-अलग
संगठनों का इतना बड़ा गठजोड़ बनने के जवाब में बांध समर्थक लोगों ने भी आंदोलन
खड़ा कर दिया है। इस आंदोलन का नाम है ''बांध बनाओ, हरियाली लाओ''। दिलचस्प है कि
इस आंदोलन में भाकपा(माले) के कुछ पुराने लोग शामिल हैं जिनमें अधिवक्ता प्रभु
सिंह प्रमुख हैं। भीसुर गांव के रामप्रकाश कहते हैं, ''माले वाले भी हक के लिए ही लगे
हुए हैं, लेकिन इनमें से कुछ लोग हैं जो बिचौलिये का काम कर रहे हैं। वे इधर भी
हैं और उधर भी हैं।'' माले के एक स्थानीय नेता कहते हैं, ''हम लोग यहां स्थिति को
बहुत संभालने की कोशिश किए। रोमा तो हम लोगों के बाद आयीं और बने-बनाए आंदोलन में
घुस गयीं।''
इस मामले में सबसे दिलचस्प
पहलू यहां की विधायक रूबी प्रसाद से जुड़ा है। स्थानीय प्रशासन ने विधायक रूबी
प्रसाद की अध्यक्षता में पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना के मसले पर 16 जून 2014 को
ग्रामीणों की एक सभा बुलायी। तहलका में प्रकाशित ''कनहर कथा'' में अंशु मालवीय
लिखते हैं, ''इस सभा में हजारों लोग मौजूद थे। मंच पर आकर सभी ग्रामीण आदिवासियों
ने कनहर बांध के विरोध में बात रखी। यहां वक्ताओं में वे ग्राम प्रधान भी मौजूद थे
जिन्होंने बांध के विरोध में प्रस्ताव पारित कर रखा है। अंत में मुख्यमंत्री को
संबोधित एक ज्ञापन भी प्रशासन को सौंपा गया, लेकिन जब इस सभा की
कार्यवाही की रपट प्रधानों के पास पहुंची तो वे चकित रह गए। इसमें सिर्फ सरकारी
अधिकारी एवं विधायक के वक्तव्य थे। जनता के विरोध को उसमें जगह ही नहीं दी गई थी।
इससे पता चलता है कि प्रशासन एवं सरकार एक कृत्रिम सहमति बनाने की कोशिश कर रही है।''
रूबी प्रसाद की सभा में उठी ग्रामीणों
की बांध के विरोध में आवाज़ों के चलते कई लोगों को यह भ्रम हुआ था कि विधायक खुद
बांध के विरोध में हैं। पुलिस अधीक्षक यादव इसे साफ़ करते हुए कहते हैं कि रूबी
प्रसाद तो बांध के समर्थन में हैं। लोगों को भ्रम है। विधायक ने खुद यादव से कहा
था कि ''अगर आप खाली नहीं करवा पा रहे (बांध स्थल को प्रदर्शनकारियों से) तो कहिए
हम करवा दें।'' यादव दावा करते हैं, ''सभी पार्टियों के लोग बांध के समर्थन में
हैं। एक सौ एक परसेंट लोग चाहते हैं कि बांध बने।''
एक सौ एक परसेंट लोगों से
यादव का आशय उन लोगों से है जिन्हें बांध के बनने से कोई नुकसान नहीं हो रहा।
इसमें सरकार, प्रशासन, गैर-आदिवासी शहरी वर्ग और हर राजनीतिक दल शामिल है। ये सब
बांध के समर्थन में एकजुट हैं, लिहाजा आदिवासी ग्रामीण बिलकुल अकेले पड़ गए हैं। कुल
22000 के आसपास इन आदिवासियों को कोई भी मनुष्यों के बीच नहीं गिन रहा। यह संख्या
सिर्फ उनकी है जो उत्तर प्रदेश की सीमा में रहते हैं। कनहर की डूब में आने वाले
छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के गांवों को भी गिन लिया जाए तो 101 परसेंट का बर्बर
चेहरा और साफ हो जाएगा। गोलीकांड के बाद कनहर के आदिवासियों की आखिरी उम्मीद
रोमा, स्थानीय नेता गम्भीरा और शिवप्रसाद पर टिकी थी। रोमा मौके पर पहुंच पाने
में असमर्थ हैं क्योंकि उन्हें जिला बदर कर दिया गया है जबकि गम्भीरा को 20
अप्रैल की रात इलाहाबाद से गिरफ्तार कर लिया गया जब वे पीयूसीएल के वकील रविकिरण
जैन के घर गए हुए थे। गम्भीरा को वहां से सोनभद्र लाकर पूछताछ की गई और बाद में
जेल भेज दिया गया।
बांध विरोधी आंदोलन में
सक्रिय भीसुर के एक नौजवान दुखी मन से कहते हैं, ''आंदोलन की दिशा टूटने के कगार
पर जा चुकी है। जनता बहुत चोटिल हो चुकी है। आधे लोग धरने से उठकर चले गए थे। उन्हें
किसी तरह वापस लाया गया है। पूरा इलाका धारा 144 लगाकर सील कर दिया गया है। जैसे
ही लोग जमा होते हैं, कोई न कोई पुलिस की मुखबिरी कर देता है।''
इस शहर में मुखबिरों की कमी
नहीं है। हर आदमी एक संभावित मुखबिर है। सोनभद्र का शहरी समाज बिलकुल सिंगरौली की
तर्ज पर विकसित हो रहा है जहां हर आदमी हर दूसरे आदमी को मुखबिर मानता है, हर कोई
हर किसी पर अविश्वास करता है और छोटी-छोटी टुच्ची आकांक्षाओं व हितों का नतीजा
अंतत: पुलिस की लाठी और गोली के रूप में दिखायी देता है जिसे ''लॉ ऑफ दि लैंड'' कह
कर जायज़ ठहराया जाता है। ऐसा समाज बनाने में स्थानीय मीडिया की भूमिका सबसे ज्यादा
नज़र आती है। सोनभद्र के प्रमुख अख़बारों में खबरों का प्रमुख स्रोत पुलिस और
प्रशासन हैं। पत्रकार सच्चाई को सामने नहीं लाने के लिए कटिबद्ध हैं क्योंकि
उनके अपने हित झूठ के कारोबार के साथ जुड़े हुए हैं। यही कारण है कि 14 और 18
अप्रैल की घटना के बाद आदिवासी ग्रामीणों के साथ हुई नाइंसाफी की ख़बर को इस कदर
दबाया गया कि उसे सामने लाने के लिए दिल्ली से एक तथ्यान्वेषी दल को यहां आना
पड़ा, जिसमें यह लेखक भी शामिल था।
इस तथ्यान्वेषी दल में कुल
छह लोग थे- भाकपा(माले)-लिबरेशन की कविता कृष्णन, ग्रीनपीस की प्रिया पिल्लई, स्वतंत्र
स्त्री अध्रिकार कार्यकर्ता पूर्णिमा गुप्ता, स्वतंत्र पत्रकार रजनीश, विंध्य
बचाओ अभियान से देबोदित्य सिन्हा और यह लेखक। साथ में बनारस से पत्रकार सिद्धांत
मोहन भी जुड़ गए थे। गोलीकांड की सच्चाई को दबाने के लिए स्थानीय प्रशासन किस हद
तक जा सकता है, उसका पता इस दल के सामने खड़ी की गयी मुश्किलों और इसके उत्पीड़न
से लगता है। इस दल ने 19 अप्रैल की सुबह बनारस में भर्ती अकलू चेरो से मुलाकात कर
के उसका बयान दर्ज किया, जिसके सीने में 14 को गोली लगी थी। इसके बाद शुरू हुआ
पुलिसिया निगरानी का सिलसिला, जो अगले दिन वापसी तक लगातार जारी रहा।
बनारस से रॉबर्ट्सगंज के बीच
19 अप्रैल को कड़ा पहरा था। हमारी गाड़ी को रास्ते में तीन बार रोकर जांचा गया।
किसी तरह सूरज ढलते-ढलते दुद्धी के गांवों में जब दल ने प्रवेश किया, तो उसे
बिलकुल अंदाज़ा नहीं था कि आगे क्या होने वाला है। कोरची से कुछ दूरी पर बघाड़ू
नाम का एक गांव है। यह गांव आधा डूब में आता है। यहीं पर शाम सात बजे के आसपास दल
के सदस्य एक चाय की दुकान के बाहर बैठकर सुस्ता रहे थे कि जंगल के घुप्प अंधेरे
में अचानक पुलिस की कुछ गाडि़यां आकर रुकीं। अचानक कुछ पुलिसवाले एक सादे कपड़े
वाले अफसर के नेतृत्व में नीचे उतरे और उन्होंने पूछताछ शुरू कर दी। सादे कपड़े
वाले अफसर ने अपना परिचय नहीं बताया, अलबत्ता उसकी गाड़ी पर उपजिला मजिस्ट्रेट
अवश्य लिखा हुआ था। पहले पूछा गया कि आप यहां क्या कर रहे हैं। फिर कहा गया कि यह
नक्सली इलाका है और वे हमारी सुरक्षा करने आए हैं। उसके बाद कविता कृष्णन पर
मोबाइल से रिकॉर्डिंग करने का आरोप लगाते हुए सादे कपड़े वाले अफसर ने कहा, ''ज्यादा
होशियारी मत दिखाइए वरना बेइज्जत हो जाएंगी।'' ऐसा कहते हुए उसने कविता और दल की
महिला सदस्यों के साथ बदतमीज़ी की और मोबाइल छीनने की कोशिश की। दल के सदस्य
देबोदित्य सिन्हा ने जब इस कार्रवाई पर आपत्ति जतायी तो अफसर ने कहा, ''यही नक्सली
है। इसे अंदर करो।'' कुछ हस्तक्षेप के बाद जब यह मामला ठंडा हुआ तो पुलिस ने दल
के ड्राइवर को पकड़कर उसे धमकाना शुरू किया। बड़ी मुश्किल से उसे छुड़ाया गया तो
कथित मजिस्ट्रेट ने सामान की तलाशी के आदेश दे डाले। एसडीएम की मौजूदगी में
पुलिसवालों ने एक-एक कर के सबका सामान जांचना शुरू किया। जब दल की महिलाओं ने
पुरुषों द्वारा महिलाओं के सामान की जांच पर आपत्ति जतायी, तब महिला सिपाहियों को
बुलाने के लिए वायरलेस करने की बात कही गयी लेकिन अंत तक कोई नहीं आया।
छत्तीसगढ़ की सीमा से महज
कुछ किलोमीटर की दूरी पर अंधेरे जंगल में पुलिस का व्यवहार ऐसा था जैसे
आतंकवादियों के साथ किया जाता है। तकरीबन एक घंटे तक पुलिस ने दल को हिरासत में
रखा। कथित मजिस्ट्रेट का आग्रह था कि दल को दुद्धी थाने ले जाकर पूछताछ की जाए।
जब दल ने जिलाधिकारी को भेजे पत्र की प्रति दिखायी, तब अचानक खुद को मजिस्ट्रेट
कह रहा सादे कपड़ों वाला शख्स कहीं गायब हो गया और एक सभ्य पुलिस इंस्पेक्टर
जाने कहां से आ गया। इस दौरान घटना की सूचना बड़े पैमाने पर फोन और एसएमएस से
फैलायी जा चुकी थी। कुछ पत्रकारों ने सोनभद्र के डीएम को फोन भी कर दिया था। इस
दबाव में इंस्पेक्टर ने माना कि प्रशासनिक स्तर पर दल के आने की सूचना को निचले
अधिकारियों तक नहीं भेजा गया था और यह एक चूक है। इसके बावजूद दल को गांव में
रुकने से मना किया गया और नक्सलियों सुरक्षा के नाम पर खदेड़ कर दुद्धी तहसील तक
ले आया गया।
बाज़ार में पुलिस की
गाडि़यां नदारद हो गयीं और अचानक खुद को एसडीएम बताने वाले एक और अधेड़ शख्स सादे
कपड़ों में अवतरित हुए। आखिर जंगल में मिला खुद को मजिस्ट्रेट कहने वाला वह शख्स
कौन था?
इसका पता अब तक नहीं चल सका है। बार-बार कहने पर जिलाधिकारी ने भी
उसकी पहचान उजागर नहीं की। बहरहाल, रात में दुद्धी के जिस डीआर पैलेस नामक होटल
में कमरा देखा गया, उसने भोजन के बाद कमरा देने से इनकार कर दिया। उसके ऊपर संभवत:
कोई दबाव था, जिसका उद्घाटन सवेरे हुआ। रात में खुद को होटल का मालिक बताने वाले
मनोज जायसवाल नाम के व्यक्ति से बातचीत कर के रुकने का इंतज़ाम हुआ लेकिन रात भर
होटल की गश्त लगने की आवाज़ें आती रहीं। सवेरे पता चला कि रात में होटल में मौजूद
कर्मचारी के पास थाने से दो बार फोन आए थे और पुलिसवाले भी वहां पहुंचे थे।
अगले दिन सुबह होटल से बाहर
निकलते ही दल को पुलिस ने घेर लिया। डीएस यादव नाम के पुलिसकर्मी ने दल के ऊपर लौट
जाने का भारी दबाव बनाया। यह दल जब घायलों से मिलने अस्पताल पहुंचा तो वहां पुलिस
ने भीतर जाने से रोकते हुए धारा 144 का हवाला दिया। डीएम से फोन पर बातचीत के बाद
भीतर जाने की अनुमति तो मिली, लेकिन असली दृश्य अभी बाकी था। थोड़ी देर बाद एक दो
सितारा पुलिसकर्मी देवेश मौर्य एक उत्तेजित भीड़ को लेकर विजयी भाव में अस्पताल
पहुंचे। यह भीड़ भड़काऊ नारे लगा रही थी और किसी तरह दल को बाहर निकालने पर आमादा
थी। ''एनजीओ वापस जाओ'', ''विकास विरोधी मुर्दाबाद'', ''आइएसआइ एजेंट वापस जाओ'',
''मारो जुत्ता तान के'', आदि नारे लगाने वाले करीब डेढ़ सौ लोग थे जिन्होंने अस्पताल
को घेर लिया था। पुलिस वालों में इस भीड़ में दोगुनप उत्साह आ गया था। संदीप
कुमार राय नाम के एक पुलिसकर्मी ने पत्रकार सिद्धांत मोहन से चुटकी लेते हुए कहा,
''सबका समय आता है। कल तक आपका था, आज हमारा समय है।'' यह भीड़ पूरी तरह पुलिस की
ओर से प्रायोजित थी जिसमें बाज़ार के लोग, व्यापारी, वकील और ठेकेदार शामिल थे जो
बांध समर्थक हैं।
एक बार फिर डीएम के हस्तक्षेप
के बाद पुलिस ने उग्र भीड़ को पीछे धकेला और तकरीबन दो घंटे तक दल को अस्पताल में
बंधक बनाए रखने के बाद उसकी गाड़ी तक पुलिस संरक्षा में छोड़ा गया। इसके बावजूद
एसडीएम की जिस गाड़ी में दल के सदस्यों को उनके होटल तक ले जाया गया, उस पर पीछे
से जूते और चप्पल फेंके गए। दो बजे रॉबर्ट्सगंज में डीएम से बैठक थी। वहां जाते
वक्त हाथीनाला पर एक बार फिर दल को पुलिस ने रोका और सबके नाम लिखवाए। डीएम से इन
घटनाओं की बाबत पूछे जाने पर संक्षिप्त-सा जवाब मिला, ''अगर अभद्रता हुई है तो आइ
फील सॉरी फॉर इट।''
पुलिस अधीक्षक का कहना था कि
''आपको इलाके में चुपके-चुपके नहीं जाना चाहिए था।'' जब ईमेल से भेजे गए पत्र का
हवाला दिया गया तो यादव बोले, ''ईमेल की क्या विश्वसनीयता है?'' जांच दल की महिलाओं के साथ हुए दुर्व्यवहार पर यादव ने कहा, ''अगर
आपने बता दिया होता कि पत्रकार हैं तो कोई दिक्कत नहीं होती।'' यह पूछे जाने पर
कि क्या इसका मतलब यह माना जाए कि आपको सामाजिक कार्यकर्ताओं से दिक्कत है, तो
यादव ने सामाजिक कार्यकर्ताओं के प्रति खुले तौर पर अपना विद्वेष जाहिर किया। बाद
में निजी बातचीत में यादव ने कहा, ''हमें गुप्तचर विभाग से सूचना मिली थी कि दिल्ली
से जो टीम आ रही है, वह गांवों में जाकर लोगों को संगठित करने का काम करेगी।''
जांच दल से मुलाकात के बाद
20 अप्रैल की देर शाम जिलाधिकारी संजय कुमार ने एक प्रेस नोट जारी किया। उसमें
लिखा है:
''वाकई 'कनहर सिंचाई
परियोजना' के विस्थापितों को सभी अनुमन्य सुविधाएं दी जाएंगी। किसी विस्थापित को
विस्थापन राशि के लिए भटकना नहीं होगा। डूब क्षेत्र के सुन्दरी, भीसुर, कोरकी, कुदरी, बड़खोरा आदि गांवों में कैम्प लगाकर दस दिनों के अन्दर चेक वितरण का कार्य
किया जाएगा।'' उक्त बातें जिलाधिकारी श्री संजय कुमार ने कनहर सिंचाई परियोजना के
डूब के गांव सुन्दरी के प्राथमिक विद्यालय प्रांगण में वरिष्ठ सपा नेता इस्तयाक
अहमद की पहल पर कनहर विस्थापितों के साथ खुली बातचीत/बैठक में कहीं।
''जिलाधिकारी श्री कुमार ने मौके
पर मौजूद राबर्ट्सगंजजिलाध्यक्ष समाजवादी पार्टी अविनाश कुशवाहा, जिला महासचिव विजय यादव, विधानसभा अध्यक्ष दुद्धी
श्री अवध नारायण यादव, जुबैर आलम, डा.
लवकुश प्रजापति, तकरार अहमद, नूरूल हक
सदर, चन्द्रमणि, ग्राम प्रधान कुदरी
इस्लाउद्दीन, ग्राम प्रधान सुन्दरी राम प्रसाद, प्रधान कोरची रमेश कुमार, प्रधान भीसुर परमेश्वर यादव
के सार्थक प्रयासों की तारीफ करते हुए सारा श्रेय ग्रामीणों/विस्थापितों को दिया।''
अगले दिन इस प्रेस नोट को
सारे स्थानीय अखबारों ने प्रमुखता से छापा, लेकिन किसी ने भी यह सवाल पूछने की
ज़हमत नहीं उठायी कि जिलाधिकारी की इस बैठक में समाजवादी पार्टी के वे तमाम नेता
क्यों मौजूद थे जो उसी सुबह दुद्धी अस्पताल के बाहर जांच दल के खिलाफ नारा लगाते
और गाली देते पाए गए थे। 22 अप्रैल के अखबारों में यह ख़बर तो छपी कि सुन्दरी
गांव में सर्वे का काम शुरू हो गया है, लेकिन किसी ने भी यह सूचना मिलने के बावजूद
छापने की ज़हमत नहीं उठायी कि अकलू के साथी लक्ष्मण और अशर्फी जिन्हें 14 के बाद
से लापता बताया जा रहा था, वे मिर्जापुर जेल में हैं। अलबत्ता जो खबरें छापी गयीं
उनका शीर्षक कुछ ऐसे था:
1. कनहर बांध के निर्माण ने
अब पकड़ी रफ्तार (हिन्दुस्तान)
2. कनहर परियोजना मार्च 2018
तक होगी पूरी (हिन्दुस्तान)
3. पुलिस पर हमले का मुख्य
आरोपी गिरफ्तार (दैनिक जागरण, गम्भीरा प्रसाद की खबर)
4. सुंदरी गांव में शुरू हुआ
सर्वे (दैनिक जागरण)
5. एसडीएम, कोतवाल का हमलावर
बंदी (अमर उजाला, गम्भीरा प्रसाद की खबर)
इनके अलावा एक अप्रत्याशित
खबर सभी अखबारों के सोनभद्र संस्करण में 22 अप्रैल को प्रकाशित हुई:
''खनन
हादसे में दो खान अफसरों समेत आठ फंसे''
यह खबर 27 फरवरी 2012 को
बिल्ली-मारकुंडी खनन क्षेत्र में हुए एक हादसे की मजिस्ट्रेटी जांच से जुड़ी है
जिसमें 11 मजदूर मारे गए थे। लंबे समय से इसकी जांच चल रही थी लेकिन अचानक इस जांच
को पूरा कर के जिलाधिकारी संजय कुमार ने रिपोर्ट पेश कर दी जिसमें दो खन अधिकारी,
एक डीएफओ और आठ लोगों को दोषी बना दिया गया है। स्थानीय अखबार ''वनांचल एक्सप्रेस''
के संपादक शिवदास का कहना है, ''यह रिपोर्ट इसलिए लायी गयी है ताकि कनहर में हुए
गोलीकांड पर परदा डाला जा सके और प्रशासन की साफ-सुथरी छवि को सामने लाकर
आदिवासियों के दमन पर उठी ताज़ा बहस को कमजोर किया जा सके।''
कनहर की जटिल कहानी यहीं
रुकने वाली नहीं है। बांध पर लगातार काम जारी है। इलाके में पुलिस बल बढ़ा दिया
गया है। जांच दल के आने से जो खबरें और तस्वीरें बाहर निकल पायी हैं, उनसे
प्रशासन बहुत चिंतित है क्योंकि मामला सिर्फ एक अवैधानिक बांध बनाने का नहीं
बल्कि पैसों की भारी लूट और बंटवारे का भी है जिसके सामने आने का डर अब पैदा हो
गया है। जांच दल के बाद गांधीवादी संदीप पांडे और नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा
पाटकर भी इलाके का दौरा कर चुकी हैं। जांच दल की वापसी के बाद कनहर की ओर राष्ट्रीय
मीडिया ने भी दबाव में अपना रुख़ कर लिया है। एनडीटीवी ने छोटी ही सही लेकिन एक
अहम खबर आदिवासियों के दमन पर 21 अप्रैल को प्रसारित की है। जांच दल से दुर्व्यवहार
की खबरें अंग्रेज़ी के अखबारों में आने के बाद उम्मीद बंधी है कि कि शायद यह
मामला आने वाले दिनों में राष्ट्रीय फ़लक पर उठ सकेगा।
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