बुधवार, 16 मार्च 2016

'शून्यकाल में बजता झुनझुना' को मलखान सिंह सिसोदिया कविता पुरस्कार-2015

2006 में प्रकाशित हुआ था रमेश प्रजापति का पहला कविता संग्रह पूरा हँसता चेहरा

वनांचल न्यूज नेटवर्क

अलीगढ़। मलखान सिंह सिसोदिया कविता पुरस्कार-2015 के लिए युवा कवि और शिक्षक रमेश प्रजापति के कविता संग्रह 'शून्यकाल में बजता झुनझुना' का चयन किया गया है। केपी सिंह मेमोरियल ट्रस्ट की ओर से 2 अप्रैल को अलीगढ़ में आयोजित कार्यक्रम में उन्हें यह पुरस्कार दिया जाएगा। ट्रस्ट की अध्यक्ष नमिता सिंह ने यह जानकारी दी। 


ट्रस्ट की ओर से जारी विज्ञप्ति में कहा नमिता सिंह ने जानकारी दी है कि कविता पुरस्कार के निर्णायक मण्डल में प्रख्यात कवि नरेश सक्सेना और युवा समीक्षक प्रोफेसर वेद प्रकाश ने युवा कवि रमेश प्रजापति के कविता संग्रह 'शून्यकाल में बजता झुनझुना' का चयन किया। निर्णायक मंडल के निर्णय से ट्रस्ट के पदाधिकारी भी सहमत हैं। आगामी 2 अप्रैल को अलीगढ़ में ट्रस्ट की ओर से एक कार्यक्रम किया जा रहा है जिसमें मलखान सिंह सिसोदिया कविता पुरस्कार-2015 प्रदान किया जाएगा। 

रमेश प्रजापति
गौरतलब है कि रमेश प्रजापति जन-जीवन से जुड़ी लोकधर्मी कविताओं के लिए चर्चित हैं। 2006 में उनका पहला कविता संग्रह पूरा हँसता चेहराप्रकाशित हुआ था। उनकी अनेक कविताओं का मलयालम, पंजाबी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। जीवन संघर्षों से जुड़े कवि रमेश प्रजापति की कविताओं में साधारणजन के संघर्षों के स्वर मुखर होते हैं। शून्यकाल में बजता झुनझुनाकी कविताएँ अपने समय को प्रतिबिंबित करती हैं। 

कविता संग्रह 'शून्यकाल में बजता झुनझुना' की समीक्षा

लड़की के रूखे बालों में यूँ ही ठूंसा कनेर का फूल

डा. कृष्ण चंद्र गुप्त

फ़िराक़ गोरखपुरी ने कहा था- ‘बज़्में ज़िंदगी बदली कि रंगे शायरी बदली।’’ ज़िंदगी की बज़्म का रंगरूप दिन-प्रतिदिन बदल रहा है। उस हिसाब से अधिकांश शायरी के मिजाज़ से बदलाव नहीं पड़ता लेकिन जो समय की नब्ज़ पकड़ने में सफल हुए हैं, उनमें बदलाव दिखाई पड़ता है। रमेश ऐसे ही रचनाकारों में से हैं। ‘‘शून्यकाल में बजता झुनझुना’’ उनका दूसरा कविता संकलन है। इसकी कविताओं में जनजीवन ही क्या लोक जीवन की धड़कनें साफ सुनी जा सकती हैं। वहाँ से भी वे कविता निकाल लेते हैं जहाँ पर अभिजात वर्ग क्या सामान्य वर्ग की दृृष्टि पड़ती नहीं। रमेश प्रजापति व्यक्तिगत जीवन की उलझनों, सामाजिक जीवन की उथल-पुथल को अनदेखा नहीं कर पाते, क्योंकि वहीं से उनकी संवेदनाएँ दाना-पानी ग्रहण करती है बड़ी ही सहजता से। केवल अव्यवस्था, शोषण, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिक हिंसा ही नहीं उन्हें चुभती, अपितु प्राकृतिक सौन्दर्य,मानवीय शील, शक्ति और सौन्दर्य की एक झलक भी उन्हें भाव-विभोर कर जाती है। निर्धनता और सामाजिक भेदभाव के शिकार भी उन्हें उद्वेलित कर जाते हैं। मुक्तिबोध को चाँद का मुँह टेढ़ा लगा था अपनी मानसिकता के कारण। तो रमेश प्रजापति को चाँद मज़दूर की दराँती लगता है। आधुनिकतम मनोदशाओं की जटिलता प्रकृति को इस अपरम्परागत रूप में देखती है। नई कविता की जटिलता और जनवादी कविता की नारेबाजी से हटकर रमेश की कविता अपने ही रंगरूप में व्यक्त होती है।

कुछ उदाहरण इसकी गवाही देते हैं। सामान्य जनजीवन के दुख दर्द से तटस्थ रहने वाले ईश्वर से तीखा प्रश्न है यह- ‘‘तू अगर ईश्वर है/तो क्यों आराम फरमाता है पूजाघरों में।’’ इस मज़दूर की जिजीविषा तो देखिए-‘‘फुटपाथ पर बैठा/टांग हिलाता मज़दूर/ बुरे दिनों को चबा जाता है/मुट्ठी भी चनों-सा।’’ माँ का यह चित्र कितना भेदक है-‘‘माँ की उदास आँखों में/आज भी टहलते रहते हैं पिता/कंधे पर अंगोछा डाले/बीड़ी फूँकते /और मुझे डाँटते-डपटते।’’ किसानी जीवन की देखिए क्या विडम्बना है-‘‘फिर तीन बेटियों और एक बेटे के साथ/किसान ने की है आत्महत्या/दुनिया की संवेदना बटोरने/या अपने चैनल को सर्वश्रेष्ठ साबित करने/इलेक्ट्रोनिक मीडिया में मची है होड़/ मातम में डूबी कश्मीरी बाई की फोटो खींचने में।’’ लाशों की सौदागिरी शायद इसी को कहते हैं।

आदिवासी माँ के जीवन का यह दृश्य अविस्मरण्ीय है-‘‘ऐसे निचोड़ रहा है सूखा नदी की देह/जैसे भूख से बिलबिलाता साँवला बच्चा/निचोड़ रहा है / जीवन के उजाड़ चैराहे पर बैठी/मरियल देहवाली आदिवासी माँ का स्तन/ कांप रहा है समुद्र का कलेजा।’’ सांप्रदायिक उन्माद की आँधी ने कितना अकेला कर दिया है इस माँ को-‘‘कैसी है हफीजन ताई/रूखे गले से सुबकती हुई माँ बस इतना ही कह पाई/कि अब वे चले गए हंै गाँव छोड़कर/मेरी आत्मा में बैठ गई लम्बी उदासी।’’ यह दृश्य भी कितना कारुणिक है-‘‘रात के सन्नाटे में गूँज रही है/शहर गई बेटी की प्रतीक्षा में /माँ की धड़कनों की धुकधुकी।’’ पितरों का श्राद्ध करते हुए यह अपराधबोध मन को मथ रहा है-‘‘आओ पितरो!/ अभी-अभी हमने छीना है बच्चों के मुँह से निवाला/एक लाचार स्त्री के सपनों का बेझिझक किया है ख़ून/एक बूढ़े कों अभी ठोकर मारकर /गिराया है तेज दौड़ती सड़क पर/एक अपाहिज मज़दूर को नहीं दी है हमने/ उसके पसीने की सही-सही कीमत/परन्तु तुम्हारे वास्ते खले हैं इन दिनों/दान के सभी रास्ते।’’ घर के विभाजन की यह त्रासदी-‘‘दीवार उठती है जो बाँटती हुई आँगन /भालू की जीभ-सी चाटती है मेरा अंतःकरण।’’

अच्छे दिनों की यह अभिव्क्त दर्शनीय है-‘‘अच्छे दिन/झरते है माँ के सूनेपन में /झटकते हुए धूल से सनी पिता की कमीज़।’’ निर्धनता का यह झेला गया अभिशाप रह-रहकर चुभता है-‘’बेदर्द सुख/भरा पूरा खड़ा खेत में पुकार रहा था/घर के कोठी-कुठलों को/ और चिड़ियाँ गा रही थीं स्वागत गीत/हमसे पहुँचने से पहले ही /बनिए तक पहुँच गई थी उसकी हाँक/ कसमसाकर हाथ मलता रह गया था पूरा घर।’’ निम्न मध्यम परिवार में जन्म लेने और बड़े होने पर ही यह दृश्य दिखाई पड़ता है। मज़दूर की यह दिनचर्या -‘‘मज़दूर ढोते हुए अपनी नंगी पीठ पर/घर की जरुरतों का बोझ/बीड़ी के धुएँ में उड़ा देता है थकान ।’’ आदिवासी जीवन का भोगा हुआ यह यथार्थ हृदय को आज भी चीर जाता है-‘‘पूँजीपतियों की रातें जगमग करने के लिए/बाँध दी गई है नदी की रवानी/जंगल सेे बिछड़ी मटमैली आदिवासी औरत की देह भी/चुभती है हवस से भरी कुछ शातिर आँखों में।’’ जीवन-संघर्ष के लिए भीतरी आग बहुत ही जरुरी है-‘‘अंतिम हथियार साबित होती है आग/वक़्त-बेवक़्त जरुरत के वास्ते/जलने दो इसे भीतर के अलाव में।’’ सुख की यह अनुभूति कितनी क्षणिक लेकिन आल्हादिक है-‘‘जंगले से कूदकर/गुनगुनी धूप और खुनक हवा का/चुपके से आकर मस्तक सहलाना।’’ रोज़ी-रोटी की चक्की में पिसते हुए लोगों के बीच में ही कवि रहना चाहता है-‘‘वहा ँसे देखो मुझे/जहाँ चकमा देकर/कुछ पिता/कुछ माँएँ/कुछ भाई /छीन लाते हैं/ मृत्यु के विकराल मुँह से/जीवन के कुछ खुशनुमा रंग।’’ वैसा ही झेले गये अभिशाप का यह दृश्य अविस्मरण्ीय है-‘‘इनकी आँखों में झाँकती है/उस भूखी माँ की लाचारी/जिसने कुछ दिन पहले /वक़्त के हाथों मासूम बेटियों को बेच दिया/कौड़ियों के भाव।’’ आज के कबीर की यह विडम्बना-‘‘कुर्तक और सांप्रदायिक वेदी की धूल में/रेंग रहे हैं विषधर/ज्ञान की आँधी/किरकिरा रही है कबीर की आँखों में/अंतःकरण के लहू से/तरबतर हो गई है कबीर की कुरती।’’ हीये की आँखों से ही यह दिखाई पड़ता है।

पाश्चात्य सभ्यता की चकाचैंध में यह दृश्य -‘‘आधुनिकता से दूर/मेरे गाँव की भोली लड़की के रूखे बालों में/ यूँ हीं ठुँसा कनेर का फूल/पश्चिम की खिड़की से कूदकर आए/ चालाक समय को दिखाता है ठेंगा।’’ परम्परागत और अभिजात सौन्दर्य के मानदंड़ों से इसे नहीं परखा जा सकता। ऐसे ही प्रकृति का यह बिम्ब-‘‘किसी नटखट बच्चे की दवात से/बूँद-बूँद टपक रही है रात/आवारा कुत्ते-सा सन्नाटा टहल रहा है गलियों में।’’एक निम्नवर्गीय परिवार का यह दृश्य-‘‘ढिबरी/रोशन रखती है घर का पूरा संसार/ताज़ा रखती है पूर्वजों की याद।’’ महानगरीय जीवन को झेलते हुए ही इसकी अनुभूति हो सकती है। बूढ़ों की उपेक्षा कितनी मार्मिकता से व्यक्त हुई है-‘‘अपने दुखों में डूबते-उतराते/हमारे बुजुर्ग / फिर भी चिंतित रहते हैं/ प्रतिदिन हमारे लिए।’’

एक ओर सीलमपुर की झुग्गियाँ हैं-‘‘यहाँ टूटती हैं भ्रम की सारी गाँठें/यहाँ धसक जाती है बीड़ी-गुटकों के दलदल में/ दुख भरी हाँफती-खाँसती रातें/ टूट जाता है बासी रोटी-सा/ इनकी खुरदरी हथेली पर रखा दिन/ कड़वे अनुभवों से भरे मटमैले धब्बों का इतिहास/पढ़ा जा सकता है मकड़ी के जाले से बुने/इनके झुर्रादार चेहरों पर।’’ दूसरी ओर धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले डल झीलवाला कश्मीर की वास्तविकता निगाहों में चुभे बिना नहीं रहती-‘‘थके हुए मज़दूर की मानिंद/झुकने लगी थी दिन की पीठ/.../ सैलानियों और यहाँ के बाशिंदों की चहल-पहल से/ झील की कोढ़िन देह/जरा कान लगाकर सुनो!/इनकी आत्मा की कुढ़न से/ रिसती रहती हैं वैभवशाली दिनों की स्मृतियाँ।’’

ऐसा व्यापक फलक है रमेश प्रजापति की काव्य संवेदनाओं का, जिसमें आज की दुनिया का घिनौना चेहरा चाहे-अनचाहे एक संवेदनशील पाठक को उद्वेलित कर ही जाता है।


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