'वनांचल लेखक एवं पत्रकार मंच' तथा 'रीडिंग रूम्स पब्लिकेशन, नई दिल्ली' के संयुक्त तत्वावधान में 'साहित्य और मीडिया में सत्ता की घुसपैठ'
विषयक गोष्ठी का हुआ आयोजन
वनांचल न्यूज़ नेटवर्क
वाराणसी। लोकसभा चुनाव-2014 के बाद परिस्थितियां तेजी से बदली हैं और यह पहली बार है
कि लेखकों के लिखने और बोलने एवं उनकी अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदियां लगाई जा
रही हैं और लेखकों की हत्याएं हो रही हैं। यह शुद्ध रूप से उग्र हिंदुत्ववादी
आरएसएस की सरकार है जो कि अपनी पूर्ववर्ती एनडीए सरकार से भी भिन्न है। अटल बिहारी
वाजपेयी की सरकार के समय भी लेखकों और मीडिया पर इस तरीके के हमले नहीं हुए।
आरएसएस का निछद्दम राज है और विपक्ष गायब है।
ये बातें वरिष्ठ साहित्यकार एवं आलोचक प्रो. चौथी यादव ने सोमवार को मैदागिन
स्थित पराड़कर स्मृति सभागार में 'वनांचल लेखक एवं पत्रकार मंच' तथा 'रीडिंग रूम्स पब्लिकेशन, नई दिल्ली' द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित 'साहित्य और मीडिया में सत्ता की घुसपैठ'
विषयक गोष्ठी में बतौर मुख्य वक्ता कही। उन्होंने कहा कि 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने चाय का नारा दिया जो
बिहार विधानसभा आते आते गाय में बदल गया। पहली बार तो चाय चल गई लेकिन गाय पर जनता
ने मोदी को बॉय बॉय कर दिया। उन्होंने संक्षेप में इसे कहा,
लोकसभा में चाय-चाय, विधानसभा में गाय-गाय, जनता ने कर दिया बॉय-बॉय।
गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ पत्रकार संजय अस्थाना ने कहा साहित्य और
मीडिया में सत्ता एवं कॉर्पोरेट घरानों की घुसपैठ लेखकों और पत्रकारों के लेखन को
प्रभावित कर रही है। इसकी वजह से ये लोग जनता में जाना छोड़ रहे हैं जो एक
लोकतंत्र के लिए घातक है। दरअसल भारतीय लोकतंत्र में नीचले पायदान पर जीने वाले
आदिवासियों और गरीबों में राजनीतिक चेतना बढ़ी है लेकिन सत्ता के दबाव में मीडिया
और साहित्य जगत के लोग उसे सामने नहीं ला रहे हैं। पत्रकारों और लेखकों को जनता से
जुड़ना होगा। नहीं तो सत्ता का वर्तमान रूप और गहरा संकट खड़ा करता जाएगा।
दिल्ली से आए हस्तक्षेप.कॉम के संपादक और राजनीतिक विश्लेषक अमलेंदु उपाध्याय
ने कहा कि सत्ता की घुसपैठ मीडिया और साहित्य में पहले ही हो चुकी है लेकिन पहले
सत्ता सभ्य आवरण ओढ़े रहती थी लेकिन लोकसभा चुनाव-2014 के बाद सत्ता निर्लज्ज रूप से क्रूरतापूर्वक साहित्य और
मीडिया में न केवल घुसपैठ कर रही है बल्कि दमन भी कर रही है। ये दमन की संस्कृति
केवल केंद्रीय सत्ता तक सीमित नहीं है। बल्कि राज्यों में भी सरकारें इसी दमन की
संस्कृति को अुपना रही हैं।
दिल्ली निवासी पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने सत्ता के वर्तमान स्वरूप को सामने
रखा। उन्होंने कहा कि साहित्य और मीडिया में सत्ता में काबिज राजनीतिक पार्टियों
के दखलंदाजी बढ़ती जा रही जो केंद्र की वर्तमान सरकार में ज्यादा दिखाई पड़ रही
है। देश की कुछ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं को नाम लेते हुए उन्होंने कहा कि केंद्र की
वर्तमान सरकार के मुखिया ने चुन-चुनकर अपने लोगों को इन पत्रकारों के उच्च पदों पर
बैठाया और उनमें मनमाफिक रिपोर्टों को प्रकाशन कर रहा हैं जो भारतीय लोकतंत्र के
लिए एक बड़ा खतरा है।
सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतक चौधरी राजेंद्र ने बात को आगे बढ़ाते हुए नेहरू और
इंदिरा के जमाने में साहित्य और पत्रकारिता में सत्ता की घुसपैठ के उदाहरण गिनाए।
उन्होंने कहा कि साहित्य से नमक नहीं खरीदा जा सकता। ऐसे में लेखक और मीडिया समाज
को क्या बदलेंगे जब मक्सिम गोर्की रूस को टूटने से नहीं बचा पाए।
राजनीतिक कार्यकर्ता सुनील यादव ने सवाल उठाया कि सत्ता अगर मीडिया में घुसपैठ कर रही है तो पत्रकारों में भी सत्ता के सामने अपना समर्पण कर दिया। उन्होंने कहा कि साहित्य मीडिया की तुलना में ज्यादा जनपक्षधर है। उन्होंने सत्ता के देखने के नजरिये पर बात की और कहा कि सबसे अहम सवाल सत्ता के पुनर्गठन का है और यह है कि वे औजार क्या हों जिससे सत्ता को बदला जाए। कार्यक्रम का संचालन रीडिंग रूम्स पब्लिकेशन के प्रकाशक अवनीश कुमार ने किया।
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