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फाइल फोटो |
उत्तर
प्रदेश में पहली बार आदिवासियों के लिए आरक्षित दुद्धी और ओबरा विधानसभा सीटों का
निर्वाचन हो सकता है रद्द। केंद्रीय चुनाव आयोग द्वारा 'संसदीय
और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन आदेश-2008’ में किया गया संशोधन
संवैधानिक रूप से मान्य नहीं!
reported by शिव दास
लखनऊ।
लोकसभा चुनाव-2014 के बाद केंद्र की सत्ता में आई भाजपा के सियासी दांव में यूपी के आदिवासी एक
बार फिर फंस सकते हैं। सूबे में जारी विधानसभा चुनाव में अनुसूचित जनजाति वर्ग के
लिए आरक्षित विधानसभा सीटों पर ताल ठोंक रहे आदिवासियों की जीत कर भी हार जाने की
संभावना है। उत्तर प्रदेश में पहली बार आदिवासियों के लिए आरक्षित दुद्धी और ओबरा
विधानसभा सीटों का चुनाव भविष्य में कभी भी रद्द हो सकता है क्योंकि केंद्रीय
चुनाव आयोग द्वारा 'संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन आदेश-2008’ में
किया गया संशोधन संवैधानिक रूप से मान्य नहीं है! हालांकि यह 'संसदीय
और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन आदेश-2008' और 'संसदीय
और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति
प्रतिनिधित्व का पुनःसमायोजन (तीसरा) विधेयक-2013’ के आलोक में उच्चतम
न्यायालय के फैसले पर निर्भर करेगा।
गौरतलब
है कि केंद्र की पूर्व संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने 27
सितंबर 2013 को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को किसी राज्य में उनकी आबादी के
अनुपात में संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व देने के लिए 'संसदीय
और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति
प्रतिनिधित्व का पुनःसमायोजन (तीसरा) अध्यादेश-2013' जारी किया। लोकसभा चुनाव-2014 के
पहले केंद्र की तत्कालीन संप्रग सरकार ने राज्यसभा में इसे कानूनी रूप देने के लिए
'संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति
प्रतिनिधित्व का पुनःसमायोजन (तीसरा) विधेयक-2013’ पेश किया जो पास नहीं हो
सका और अध्यादेश निष्प्रभावी हो गया। लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में भाजपा की
अगुआई वाली राजग की सरकार बनी। जुलाई में संसद सत्र के दौरान भाजपा सरकार ने 'संसदीय
और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति
प्रतिनिधित्व का पुनःसमायोजन (तीसरा) विधेयक-2013’ को राज्यसभा से विधेयक को
वापस ले लिया और उसकी जगह नया विधेयक लाने का प्रस्ताव रखा लेकिन बाद में उसने ऐसा
कोई भी विधेयक पेश नहीं किया। ना ही उसने इससे संबंधित कोई नया अध्यादेश जारी किया
है। संवैधानिक प्रावधानों के तहत 'संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति
प्रतिनिधित्व कानून'
में संशोधन के बिना अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग
के लिए सीटों का आरक्षण विधिसम्मत नहीं हो सकता है।
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(फाइल फोटो) लोकसभा चुनाव-2004 के दौरान समानांतर बूथ लगाकर आदिवासियों के अधिकारों का मांग करती भाकपा (माले)। |
उधर, केंद्रीय
निर्वाचन आयोग ने तीनों अध्यादेश के आधार पर आदिवासियों की आबादी के आधार पर उत्तर
प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा सीटों के आरक्षण की प्रक्रिया को अंतिम रूप दे दिया
और उसी के आधार पर सूबे में जारी विधानसभा चुनाव के लिए अधिसूचना जारी कर दिया है
जिसमें दुद्धी और ओबरा विधानसभा सीट अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित की गई है
और उन पर चुनाव हो रहे हैं। अगर 'संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन आदेश-2008' के प्रावधानों
के साथ 'संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति
प्रतिनिधित्व कानून'
के प्रावधानों की बात करें तो केंद्रीय चुनाव आयोग द्वारा 'संसदीय
और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन आदेश-2008’ में किया गया संशोधन संवैधानिक
रूप से वैध नहीं है और इस आधार पर उत्तर प्रदेश में पहली बार आदिवासियों के लिए
आरक्षित दुद्धी और ओबरा विधानसभा सीटों का निर्वाचन भविष्य में कभी भी निरस्त हो
सकता है। अगर ऐसा होता है तो उत्तर प्रदेश के आदिवासियों को एक बार फिर अपने
संवैधानिक अधिकार के लिए सड़क से न्यायालय तक लड़ाई लड़नी पड़ सकती है। इससे पहले
भी भाजपा की अगुआई वाली राजग सरकार ने वर्ष 2003
में 'अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा (सुधार) अधिनियम-2002' लागू
कर उत्तर प्रदेश के आदिवासियों को झटका दिया था। इस कानून की वजह से सूबे के आदिवासी
अपनी पहचान पर करीब डेढ़ दशक तक त्रिस्तरीय पंचायतों समेत विधानसभा में अपनी
समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं कर सके। सड़क से न्यायालय तक लड़ाई लड़ने के बाद
केंद्र और सूबे की सत्ता में काबिज राजनेताओं ने उनकी बात सुनी और त्रिस्तरीय
पंचायतों से विधानसभा में उनको प्रतिनिधित्व देने की प्रक्रिया शुरू हुई।
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