शनिवार, 19 दिसंबर 2015

पहली बार तीन सौ से ज्यादा आदिवासी बने पंचायत प्रमुख

उत्तर प्रदेश की गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया जैसी आदिवासी जातियां गणतंत्र भारत के पैंसठ सालों में पहली बार मूल पहचान और आबादी के अनुपात में लड़ीं त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव। 

उत्तर प्रदेश में दस लाख से ज्यादा आबादी वाली ये जातियां देश की आजादी के बाद से ही अपनी पहचान और संवैधानिक अधिकारियों के लिए कर रही थीं संघर्ष।

उत्तर प्रदेश के आदिवासी बहुल जनपद सोनभद्र में पिछले डेढ़ दशक से करीब आधा दर्जन ग्राम पंचायतों का नहीं हो पा रहा था गठन।

by Shiv Das / शिव दास

देश की आजादी के करीब 68 सालों में पहली बार उत्तर प्रदेश की गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया जैसी आदिवासी जातियों के तीन सौ से ज्यादा लोग अपनी मूल पहचान पर त्रिस्तरीय पंचायतों के प्रमुख बने। जबकि कोल, कोरबा, मझवार, उरांव, मलार, बादी, कंवर, कंवराई, वनवासी सरीखी आदिम जातियों को अपनी मूल पहचान पर यह अधिकार हासिल करने के लिए अभी और संघर्ष करना होगा। 

सूबे में गौतमबुद्धनगर जिले को छोड़कर सभी 74 जिलों में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के परिणाम आ चुके हैं। अगर सूबे की 59,163 ग्राम पंचायतों की बात करें तो इनमें से अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित 336 ग्राम प्रधान पदों पर गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया जैसी आदिवासी जातियों के हजारों लोग आजाद भारत में पहली बार अपनी मूल पहचान के साथ आरक्षित सीटों पर ताल ठोंके। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव-2010 में अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए ग्राम प्रधान की केवल 76 सीटें आरक्षित थीं जो भोटिया, भुक्सा, जन्नसारी, रांजी और थारू आदिवासी जातियों की आबादी (0.03 प्रतिशत) के आधार पर तय की गई थीं। 

त्रिस्तरीय पंचायत-2015 में पहली बार उत्तर प्रदेश की अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल सभी जातियों की आबादी के आधार पर ग्राम प्रधान, ग्राम पंचायत सदस्य, जिला पंचायत सदस्य, क्षेत्र पंचायत अध्यक्ष (ब्लॉक प्रमुख) और क्षेत्र पंचायत सदस्य का पद आरक्षित किया गया है। इस बार अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए ब्लॉक प्रमुख के पांच पद आरक्षित किये गये हैं जो पहले एक था। इसी तरह ग्राम पंचायत सदस्य के 7,45,475 पदों पर हजारों की संख्या में आदिवासी अपने गांव के विकास की रूपरेखा तय करेंगे। 

सूबे के 821 विकास खंडों की बात करें तो इनमें से पांच ब्लॉक प्रमुखों के पदों पर उक्त आदिवासी जातियों के लोग दांव खेल रहे हैं। करीब 77,576 क्षेत्र पंचायत सदस्यों (बीडीसी) में से हजारों की संख्या में उक्त आदिवासी जातियों के लोग ब्लॉक प्रमुखों के चयन में प्रमुख भूमिका निभाएंगे और क्षेत्र के विकास की रूपरेखा तय करेंगे। इनमें से 191 तो केवल सोनभद्र से हैं। यहां दो विकास खण्डों दुद्धी और बभनी के प्रमुखों का ताज उक्त जातियों में किन्ही दो व्यक्तियों के सिर सजेगा। हालांकि सूबे की आबादी में करीब 0.568 प्रतिशत (जनगणना-2011 के अनुसार 11,34,273) हिस्सेदारी रखने वाला अनुसूचित जनजाति वर्ग के सिर पर अपनी मूल पहचान के साथ जिला पंचायत अध्यक्ष पद का ताज नहीं सज सकेगा क्योंकि सूबे के 75 जिला पंचायत अध्यक्ष पदों में से उनके लिए एक पद भी आरक्षित नहीं है। इसके बावजूद जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव और क्षेत्र के विकास में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होगी क्योंकि सूबे के 3,112 जिला पंचायत सदस्य पदों में से दर्जनों पर इसी जाति वर्ग के लोग चुने गए हैं जिनमें सात अकेले सोनभद्र से हैं।

गत 13 और 14 दिसंबर को ग्राम प्रधान और ग्राम पंचायत सदस्य चुनाव के परिणामों की घोषणा के साथ जिला पंचायत अध्यक्षों और ब्लॉक प्रमुखों के चयन की कवायद शुरू हो गई है। इसी के साथ त्रिस्तरीय पंचायतों में सूबे की उक्त आदिवासी जातियों का प्रतिनिधित्व अपनी मूल पहचान के साथ सुनिश्चित हो जाएगा क्योंकि इसके अभाव में सोनभद्र के आदिवासी बहुल करीब आधा दर्जन ग्राम पंचायतों का गठन पिछले डेढ़ दशक से नहीं हो पा रहा था। इन ग्राम पंचायतो में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या नगण्य हो गई थीं।

दुद्धी विकास खंड का जाबर, नगवां विकास खंड का रामपुर, बैजनाथ, दरेव एवं पल्हारी ग्राम सभाएं इसका उदाहरण हैं। वहां 2001 की जनगणना के आधार पर अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हुई ग्राम प्रधान एवं ग्राम पंचायत सदस्य के पदों पर योग्य उम्मीदवारों की प्रर्याप्त दावेदारी नहीं होने के कारण ग्राम पंचायत सदस्यों की दो तिहाई सीटें खाली रह जाती थीं। इन ग्राम सभाओं का गठन नहीं हो पाता था क्योंकि ग्राम सभा के गठन के लिए ग्राम पंचायत सदस्यों की संख्या दो तिहाई होना जरूरी होता है। इन ग्राम सभाओं में जिला प्रशासन द्वारा तीन सदस्यीय कमेटी का गठन कर विकास कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है। अब ये समस्याएं दूर हो जाएंगी।

उदाहरण के तौर पर नगवां विकासखंड का पल्हारी ग्राम सभा। 13 ग्राम पंचायत सदस्यों वाले पल्हारी ग्रामसभा में पंचायत चुनाव-2005 के दौरान कुल 1006 वोटर थे। इस गांव में अनुसूचित जाति का एक परिवार था। शेष अनुसूचित जनजाति एवं अन्य वर्ग के थे। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 12 ग्राम पंचायत सदस्य के पद खाली थे क्योंकि इस पर अनुसूचित जाति का कोई सदस्य चुनाव नहीं लड़ सका था। ग्राम पंचायत सदस्यों के दो-तिहाई से अधिक पद खाली होने के कारण पल्हारी ग्राम सभा का गठन नहीं हो पाया। जिला प्रशासन द्वारा गठित समिति विकास कार्यों को अंजाम दे रही थी। कुछ ऐसे ही हालात पंचायत चुनाव-2010 में भी वहां थे। इससे छुटकारा पाने के लिए गैर सरकारी संगठनों के साथ गैर राजनीतिक पार्टियां भी आदिवासियों की आवाज को सत्ता के नुमाइंदों तक पहुंचाने के लिए विभिन्न हथकंडे अपना रहे हैं। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव-2005 के दौरान भी आदिवासियों और कुछ राजनीतिक पार्टियों ने सरकार की नीतियों के खिलाफ आवाजें मुखर की थी।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) ने उस समय आदिवासियों की इस आवाज को सत्ता के गलियारों तक पहुंचाने के लिए म्योरपुर विकासखंड के करहिया गांव में पंचायत चुनाव के दौरान समानान्तर बूथ लगाकर आदिवासियों से मतदान करवाया था। भाकपा(माले) के इस अभियान में 500 लोगों ने अपने मत का प्रयोग किया। वहीं, राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा पंचायत चुनाव के दौरान लगाए गए बूथ पर मात्र 13 वोट पड़े थे। अनुसूचित जाति के दो परिवारों (दयाद) के सदस्यों में से एक व्यक्ति नौ वोट पाकर ग्राम प्रधान चुना गया। शेष सदस्य निर्विरोध सदस्य चुन लिए गये थे। आदिवासियों और भाकपा(माले) के इस अभियान ने राजनीतिक हलके में हडकंप मचाकर रख दी। इसके बाद भी केंद्र एवं राज्य की सरकार की नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इसके बाद भी सूबे की सरकार ने राज्य की त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडल और संसद में आदिवासियों की आबादी के अनुपात में सीटें आरक्षित कराने की पहल नहीं की।

आदिवासियों की गैर-सरकारी संस्था प्रदेशीय जनजाति विकास मंच और आदिवासी विकास समिति ने त्रिस्तरीय पंचायतों में उचित प्रतिनिधित्व के संवैधानिक अधिकार की मांग को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका संख्या-46821/2010 दाखिल की। इसपर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति सुनील अंबानी और काशी नाथ पांडे की पीठ ने 16 सितंबर, 2010 को दिए फैसले में साफ कहा है कि अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल जाति समुदाय के लोगों का आबादी के अनुपात में विभिन्न संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार उनका संवैधानिक आधार है जो उन्हें मिलना चाहिए। पीठ ने राज्य सरकार के उस तर्क को भी खारिज कर दिया था कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002’ लागू होने के बाद राज्य में आदिवासियों की जनगणना नहीं हुई है। 

पीठ ने साफ कहा कि 2001 की जनगणना में अनुसूचित जाति वर्ग और अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल जातियों की जनगणना अलग-अलग कराई गई थी और इसका विवरण विकासखंड और जिला स्तर पर भी मौजूद है। इसकी सहायता से अनुसूचित जाति से अनुसूचित जनजाति में शामिल हुई जातियों की आबादी को पता किया जा सकता है। पीठ ने आदिवासियों के हक में फैसला देते हुए त्रिस्तरीय पंचायतों में सीटें आरक्षित करने का आदेश दिया लेकिन चुनाव की अधिसूचना जारी हो जाने के कारण पंचायत चुनाव-2010 में उच्च न्यायालय का आदेश लागू नहीं हो पाया था। राज्य निर्वाचन आयोग ने जनगणना-2011 के आंकड़ो के आधार पर त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव-2015 में अनुसूचित जनजाति वर्ग की आबादी के आधार पर उनके लिए सीटें आरक्षित कर दी हैं।

वहीं आदिवासी पहचान के लिए जूझ रही सूबे की कोल, कोरबा, मझवार, उरांव, मलार, बादी, कंवर, कंवराई, वनवासी सरीखी जातियों को अपनी मूल पहचान पर यह अधिकार हासिल करने के लिए अभी और संघर्ष करना होगा क्योंकि राजनीतिक गुणा-भाग में जुटे सियासतदानों ने उन्हें अभी भी उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति में बनाए रखा है जबकि इन जातियों की सामाजिक स्थिति भी इन जिलों में अन्य जनजातियों के समान ही है। अगर हम इनके संवैधानिक अधिकारों पर गौर करें तो कोल मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में, कोरबा बिहार, मध्य प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल में, कंवर मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में, मझवार मध्य प्रदेश में, धांगड़ (उरांव)  मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र में, बादी (बर्दा) गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र में अनुसूचित जनजाति वर्ग में हैं। उत्तर प्रदेश में भी इन जातियों के लोगों की सामाजिक स्थिति अन्य प्रदेशों में निवास करने वाली आदिवासी जातियों के समान ही है जो समय-समय पर सर्वेक्षणों और मीडिया रिपोर्टों में सामने आता रहता है।

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वोटबैंक की राजनीति में उलझा आदिवासियों का मूलाधिकार

माज के निचले पायदान पर जीवन व्यतीत करने वाले आदिवासियों के संवैधानिक और मूलाधिकार को लेकर केंद्र और राज्य सरकारें हमेशा उदासीन रही हैं। उन्होंने उन्हें केवल वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल किया लेकिन उन्हें उनका हक देने में हमेशा पीछे रहीं हैं। इसमें कांग्रेस की भूमिका हमेशा संदेह के घेरे में रही है। उत्तर प्रदेश में निवास करने वाली विभिन्न आदिवासी जातियां कांग्रेस के शासनकाल में संसद से पास हुए अनुसूचित जनजाति (उत्तर प्रदेश) कानून-1967 के लागू होने के समय से ही खुद को ठगा महसूस कर रही हैं। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उत्तर प्रदेश के सबसे निचले तबके यानी आदिवासी पर यह कानून जबरन थोप दिया था। इसकी वजह से वे आज तक अपने लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित हैं। इस कानून के तहत उत्तर प्रदेश की पांच आदिवासी जातियों (भोटिया, भुक्सा, जन्नसारी, रांजी और थारू) को अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल किया गया लेकिन कोल, कोरबा, मझवार, उरांव, मलार, बादी, कंवर, कंवराई, गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया आदि आदिवासी जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग में ही रहने दिया गया। जबकि इन जातियों की सामाजिक स्थिति आज भी उक्त पांच आदिवासी जातियों के समान ही है। इन जातियों ने अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ाई शुरू कर दी। उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों ने वोट बैंक की गणित के हिसाब से अपना-अपना जाल बुना और उनके वोट बैंक का इस्तेमाल कर सत्ता हासिल की लेकिन उन्हें उनके संवैधानिक अधिकार से वंचित रखा।

केंद्र की सत्ता में काबिज भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक पार्टी (राजग) ने वर्ष 2002 में संसद में संविधान संशोधन का निर्णय लिया। इसमें उसके नुमाइंदों की सत्ता में बने रहने की लालच भी थी। तत्कालीन राजग सरकार ने उत्तर प्रदेश की गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया आदिवासी जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल करने की कवायद शुरू की। इसके लिए उसने संसद में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा (सुधार) विधेयक-2002’ पेश किया। संसद ने इसे पारित कर दिया। हालांकि सियासी पृष्ठभूमि मंु इस कानून में कुछ विशेष जिलों के आदिवासियों को ही शामिल किया गया था। इस वजह से आदिवासी बहुल चंदौली जिले में इन जातियों के लोग आज भी अनसूचित जाति वर्ग में ही हैं जबकि उत्तर प्रदेश की सत्ता को पहली बार इस जिले से नक्सलवाद का लाल सलाम हिंसा के रूप में मिला।   

फिलहाल अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा (सुधार) अधिनियम-2002’ के संसद से पास होने के बाद राष्ट्रपति ने भी इसे अधिसूचित कर दिया। केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्रालय ने 8 जनवरी 2003 को भारत सरकार का राजपत्र (भाग-2, खंड-1) जारी किया। इसके तहत गोंड़ (राजगोंड़, धूरिया, पठारी, नायक और ओझा) जाति को उत्तर प्रदेश के 13 जनपदों महराजगंज, सिद्धार्थनगर, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया, मऊ, आजमगढ़, जौनपुर, बलिया, गाजीपुर, वाराणसी, मिर्जापुर और सोनभद्र में अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल कर दिया। साथ में खरवार, खैरवार को देवरिया, बलिया, गाजीपुर, वाराणसी और सोनभद्र में, सहरिया को ललितपुर में, परहिया, बैगा, अगरिया, पठारी, भुईया, भुनिया को सोनभद्र में, पंखा, पनिका को सोनभद्र और मिर्जापुर में एवं चेरो को सोनभद्र और वाराणसी में अनुसूचित जनजाति में शामिल कर लिया गया।

उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002’ कानून ने एक बार फिर आदिवासी समुदाय के दुखते रग पर हाथ रख दिया। इसके तहत अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल हुआ आदिवासी समुदाय सत्ता में अपने भागीदारी के संवैधानिक अधिकार से ही वंचित हो गया। इस कानून के लागू होने से वे त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडलों और संसद में अपनी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व करने से ही वंचित हो गए क्योंकि राज्य में उनकी आबादी बढ़ने के अनुपात में इन सदनों में उनके लिए सीटें आरक्षित नहीं की गईं। 3 मई, 2002 से 29 अगस्त, 2003 तक राज्य की सत्ता में तीसरी बार काबिज रही बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने भी आदिवासियों के जनप्रतिनिधित्व अधिकार की अनदेखी की। मायावती अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल हुई आदिवासियों की संख्या का रैपिड सर्वे कराकर उनके लिए विभिन्न सदनों में आबादी के आधार पर सीट आरक्षित करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार, परिसीमन आयोग और चुनाव आयोग को भेज सकती थीं लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। 

उन्होंने इन विसंगतियों के साथ कानून को राज्य में लागू कर दिया। इससे एक बार फिर आदिवासियों के समानुपातिक प्रतिनिधित्व का संवैधानिक अधिकार कानूनी और सियासी पचड़े में उलझ गया। समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव की अगुआई में 29 अगस्त, 2003 को राज्य में सरकार बनी। तत्कालीन सपा सरकार में मंत्री और दुद्धी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से करीब 27 साल तक विधायक रहे विजय सिंह गोंड़ त्रिस्तरीय पंचायतों समेत विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लड़ने से वंचित हो गए। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका भी दायर की, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके बाद वे सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई। दूसरी तरफ आदिवासी बहुल सोनभद्र के आदिवासियों में अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए जागरूकता बढ़ी और वो लखनऊ से लेकर दिल्ली तक कूंच कर गए, लेकिन 2004 में सत्ता में आई कांग्रेस की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार यानी संप्रग और 13 मई, 2007 में राज्य की सत्ता में आई मायावती सरकार ने उनकी आवाज को एक बार फिर नजर अंदाज कर दिया। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश का आदिवासी समुदाय अपने हक के लिए जिला प्रशासन से लेकर उच्चतम न्यायालय तक अपनी आवाज पहुंचाता रहा।

मौके की नजाकत को भांपते हुए पूर्व विधायक विजय सिंह गोंड़ ने कांग्रेस का दामन थामने का निर्णय लिया। उन्होंने इसकी पृष्ठभूमि भी तैयार कर ली। इसके बाद उन्होंने अपने बेटे विजय प्रताप की ओर से 2011 के आखिरी महीने में उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका संख्या-540ध्2011 दाखिल करवाई। केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के हक में रिपोर्ट दी। उच्चतम न्यायालय ने केंद्रीय निर्वाचन आयोग, भारत सरकार और उत्तर प्रदेश को तलब किया। केंद्र सरकार, राज्य सरकार और केंद्रीय चुनाव आयोग को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 10 जनवरी, 2012 को आदिवासियों के हक में फैसला दिया। हालांकि उसने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने और सीटों के आरक्षण की प्रक्रिया में तीन महीने का समय लगने की वजह से उस समय आदिवासियों के हक में सीटें आरक्षित करने से इंकार कर दिया। अब निर्वाचन आयोग ने उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए विधानसभा की दो सीटें दुद्धी और ओबरा आरक्षित कर दी हैं।

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सपा सरकार की पहल भी काम नहीं आईं

त्तर प्रदेश में अगस्त, 2003 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी थी। उसने पहली बार राज्य के आदिवासी जिलों में विभागीय सर्वेक्षण कराया था। इसमें सामने आया कि राज्य में आदिवासियों की संख्या 2001 की जनगणना के 1,07,963 से बढ़कर 6,65,325 हो गई थी। हालांकि उसका यह सर्वेक्षण गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया जैसी आदिवासी जातियों के काम नहीं आई। जनगणना-2011 के अनुसार अब यह आबादी 11,34,273 हो गई है जो राज्य की आबादी का 0.57 प्रतिशत के करीब है। इस आधार पर राज्य की विधानसभा में दो सीटें अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित हो गई हैं। इनमें सोनभद्र की आदिवासी बहुल दुद्धी और ओबरा विधानसभा सीटें शामिल है। 

अपनी मूल पहचान पर लोकसभा में प्रतिनिधित्व करने के लिए उत्तर प्रदेश के आदिवासियों को अभी भी इंतजार करना पड़ेगा। अगर जिलेवार बात करें तो अनुसूचित जनजातियों की संख्या सोनभद्र में 3,85,018, मिर्जापुर में 20,132, वाराणसी में 28,617, चंदौली में 41,725, बलिया में 1,10,114, देवरिया में 1,09,894, कुशीनगर में 80,269 और ललितपुर में 71,610 है। सोनभद्र में अनुसूचित जनजातियों की संख्या जिले की आबादी का 20.67 प्रतिशत है जो राज्य में किसी भी जिले में अनुसूचित जनजातियों की संख्या से अधिक है। सोनभद्र में अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों की संख्या घटकर 22.63 प्रतिशत हो गई है। जनगणना-2001 के अनुसार यह 6,13,497 थी जो जिले की आबादी का 41.92 प्रतिशत थी। विभागीय सर्वेक्षण-2003-04 के अनुसार सोनभद्र में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 3,78,442 थी।

जनगणना-2011: उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक अनुसूचित जनजाति जनसंख्या वाले पांच जिले-

क्रमांक जनपद               अनसूचित जनजाति                   प्रतिशत
1       सोनभद्र                        3,85,018                      20.67
2       बलिया                         1,10,114                        3.40
3       देवरिया                        1,09,894                        3.54
4       कुशीनगर                         80,269                         2.25
5       ललितपुर                         71,610                         5.86


उत्तर प्रदेश शासन विभागीय जनगणना-2003-

उत्तर प्रदेश शासन समाज कल्याण अनुभाग-3 के शासनादेश संख्या-111, भा00/26.03.2003-3(सा)/2003, दिनांक-03.07.2003 में अधिसूचित जनपद-सोनभद्र में अनुसूचित जनजातियों की सूची

क्रमांक   जाति                 जनसंख्या
1       गोंड़                   1,30,662
2       खरवार                  73,212
3       चेरो                      60,578
4       बैगा                      32,212
5       पनिका                  26,806
6       अगरिया                18,383
7       राजगोंड़                14,518
8       भुईयां                   14,218
9       खैरवार                   2,513
10     पठारी                    2,374
11     पहरिया                  1,367
12     पंखा                      1,324
13     भुनिया                      275
14     धुरिया                           0
15     नायक                            0
16     ओझा                             0
          योग                 3,78,442


शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

सत्ताई धनलोलुपता में उड़े इंसानियत के चिथड़े

सोनभद्र में रासपहरी पहाड़ी क्षेत्र में हुए विस्फोट के बाद
मलबे से शव निकालते स्थानीय लोग।
सफेदपोश खनन माफियाओं, भ्रष्ट नौकरशाहों और तथाकथित जनप्रतिनिधियों ने रची साजिश! मुअावजा और मजिस्ट्रेट जांच के नाम पर जनता की आवाज को दबाने की कोशिश। सीबीसीआईडी/ सीबीआई से हो 27 फरवरी 2012 और 15 अक्टूबर, 2015 को हुए हादसों की जांच। 

शिव दास / वनांचल न्यूज नेटवर्क 

सोनभद्र। जनप्रतिनिधियों, नौकरशाहों और सफेदपोश धंधेबाजों की सत्ताई धनलोलुपता में पिछले दिनों एक बार फिर इंसानियत के चिथड़े उड़े। गत 15 अक्टूबर को सोनभद्र की रासपहरी पहाड़ी बारूदी विस्फोट से थर्रा गई और लोग लोथड़े इकट्ठा करते रह गए। घड़ियाली आंसूओं और चंद कागजी टूकड़ों की खैराती बख्शीशों का सपना दिखाकर स्थानीय जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों ने जहां जनता की उग्र आवाज का सौदा किया, वहीं  सफेदपोश खनन माफियाओं, भ्रष्ट नौकरशाहों और तथाकथित जनप्रतिनिधियों के गठजोड़ ने खनन मजदूरों की ‘संगठित हत्या’ का राज दफन करने की कवायद शुरू की।

जिलाधिकारी जीएस प्रियदर्शी ने अपने मातहत डिप्टी कलेक्टर गिरजा शंकर सिंह को पिछले दिनों बिल्ली-मारकुंडी खनन क्षेत्र में हुए विस्फोट की मजिस्ट्रेट जांच सौंपी। डिप्टी कलेक्टर हादसे के लिए जिम्मेदार विभिन्न पहलुओं के साथ संबंधित विभागों के अधिकारियों और कर्मचारियों की भूमिका से संबंधित जांच रिपोर्ट 15 दिनों के अंदर जिलाधिकारी को सौंपेंगे। वहीं सूबे की राजधानी स्थित खनन निदेशालय के निदेशक एसके राय ने सोनभद्र के खनिजों का अवैध दोहन कराकर खनन मजदूरों के लिए मौत का कुआं (पत्थर की खदान) तैयार कराने वाले विभागीय अधिकारी आरपी सिंह को जांच के लिए भेजा है जो यहां जिला खान अधिकारी रह चुके हैं। गौर करने वाली बात है कि आरपी सिंह के कार्यकाल के दौरान जिले में अवैध खनन और परिवहन का गोरखधंधा जमकर फलफूल रहा था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह कितनी जिम्मेदारी और ईमानदारी से हादसे की जांच करेंगे।

अगर वाराणसी परिक्षेत्र के खान सुरक्षा निदेशालय के डायरेक्टर यूपी सिंह की बात करें तो इस मामले में वह और दो कदम आगे हैं। वाराणसी परिक्षेत्र के तहत शामिल सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली क्षेत्र में खनन व्यवसाय में करीब दस हजार से ज्यादा मजदूर काम करते हैं लेकिन उन्होंने उनकी सुरक्षा और पंजीकरण को लेकर परिक्षेत्र में संचालित होने वाली खदानों और क्रशर प्लांटों को लेकर कभी भी संजीदगी नहीं दिखाई। ना ही उन्होंने उनके खिलाफ कोई कठोर प्रशासनिक कार्रवाई की जबकि परिक्षेत्र की सीमा के अंतर्गत शामिल खनन क्षेत्रों में हर दिन करीब दो मजदूरों की मौत सुरक्षा व्यवस्थाओं की वजह से होती है। विस्फोटकों के इस्तेमाल के लिए प्रशिक्षित मजदूरों और उनकी सुरक्षा को लेकर उन्होंने केवल खानापूर्ति तक की है। इसी की देन है कि सोनभद्र के बिल्ली-मारकुंडी, सिंदुरिया, सुकृत आदि खनन क्षेत्र में संचालित होने वाली पत्थर की खदानों में खान सुरक्षा निदेशालय की ओर से जारी आदेशों और दिशा-निर्देशों का पालन सुनिश्चित नहीं किया जाता है। और, आए दिन मजदूर खनन माफियाओं और सत्ता के दलालों की सांठगांठ में मारे जाते हैं।

पुलिस प्रशासन इस मामले में कुछ ज्यादा ही आगे है। पूर्व पुलिस अधीक्षकों समेत वर्तमान पुलिस अधीक्षक शिव शंकर यादव जिले में तैनात थाना प्रभारियों की उदासीनता को खत्म करने में नाकाम साबित हुए हैं। चोपन, ओबरा, रॉबर्ट्सगंज थानों समेत डाला और सुकृत पुलिस चौकी के प्रभारियों ने अवैध खनन माफियाओं की काली करतूतों को छिपाने और मजदूरों की आवाज को दफन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने क्षेत्र में होने वाले अवैध खनन और विस्फोट को अंदरुनी खाने से जमकर शह दिया है जिसके कारण इन इलाकों की खदानों में मजदूरों की होने वाली मौतें सरकारी फाइलों में दर्ज तक नहीं होती। ना ही इसके लिए जिम्मेदार हत्यारों को कोई कानूनी सजा मिल पाती है। चंद रुपयों में अवैध खनन और विस्फोट से होने वाली मौतों के समर्थन में उठने वाली आवाज को दबा दिया जाता है।

जिले में सफेदपोश समाजसेवियों और जनप्रतिनिधियों की हालत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जो लोग कुछ सालों पहले बेरोजगारी का दंश कम करने के लिए चट्टी-चौराहों पर चापलूसी करते थे, वे आज लक्जरी गाड़ियों में दौड़ लगा रहे हैं। दो साल पहले जिनके पास लाख रुपये की जमा पूंजी नहीं थी, आज वह करोड़पति बन बैठे हैं। हालांकि वे ना ही कोई नौकरी करते हैं और ना ही उनका कोई व्यवसाय है। अगर उनका कोई धंधा है तो वह केवल राज-नीति, वह भी लेन-देन की। समाजसेवा का चोला पहने ऐसे तथाकथित जनप्रतिनिधियों की जिले में भरमार है। 

फिलहाल 15 अक्टूबर 2015 की घटना के मामले में सत्ताधारी पार्टी के एक जनप्रतिनिधि का चेहरा कुछ अलग दिखाई दिया है। जिला प्रशासन के दावों के मुताबकि सूबे के मुखिया अखिलेश यादव ने इस हादसे में मरने वाले व्यक्तियों के परिजनों और आश्रितों को मुख्यमंत्री कोष से दो-दो लाख रुपये मुआवजा देने की घोषणा की है जो रॉबर्ट्सगंज के विधायक और सपा जिलाध्यक्ष अविनाश कुशवाहा की पहल पर आधारित है। हालांकि घायलों को मुख्यमंत्री कोष से कोई धनराशि मिलेगी या नहीं, इसका विवरण नहीं दिया गया है। साथ ही जिला प्रशासन ने विस्फोट में मरने वाले व्यक्तियों के आश्रितों को राष्ट्रीय पारिवारिक लाभ योजना के तहत 30-30 हजार रुपये का अतिरिक्त मुआवजा देने का सब्जबाग दिखाया है। 

यहां गौर करने वाली बात है कि जिला प्रशासन जिस अविनाश कुशवाहा की पहल पर मुख्यमंत्री कोष से दो-दो लाख रुपये मुआवजा बांटने की बात कह रहा है, वह इतने सालों से क्या कर रहे थे? पिछले दो सालों से वे समाजवादी पार्टी के जिलाध्यक्ष हैं। पार्टी के प्रदेश इकाई के मुखिया और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उनके ही चश्मे से सोनभद्र की तस्वीर देखते हैं। घोरावल विधानसभा क्षेत्र के विधायक रमेश दुबे और दुद्धी विधानसभा क्षेत्र की विधानसभा सदस्य रुबी प्रसाद की बात करना ही बेमानी है। रमेश दुबे और उनके परिवार के सदस्यों पर सोनभद्र और मिर्जापुर में अवैध खनन कराने का आरोप है जिसकी जांच चल रही है। जबकि रुबी प्रसाद कांग्रेस से पाला बदलकर सपा का दामन पकड़ी हैं। जैसा माना जाता है कि स्थानीय स्तर पर पार्टी का जिलाध्यक्ष और साफ-सुथरी छवि वाला जनप्रतिनिधि ही सूबे के मुखिया की आंख होता है। बहुत हद तक ये पहलू अविनाश कुशवाहा के पक्ष में हैं। लेकिन, विधायक बनने के बाद उनकी और उनके परिवार के सदस्यों समेत उनके रिश्तेदारों और नजदीकियों की संपत्ति में हुआ इजाफा उनकी इस साफ-सुथरी छवि में दाग लगा रहा है। रॉबर्ट्सगंज तहसील द्वार के सामने कुछ जमीन को कब्जा करने का आरोप लगाकर कुछ अधिवक्ता उनके खिलाफ धरना भी दे चुके हैं। 

पिछले तीन सालों से जिले में हो रहे अवैध खनन, परिवहन और विस्फोट की गतिविधियों की वजह से हुई मौतों पर उनकी चुप्पी उनकी पहल पर सवाल भी खड़ा करती है। कहीं उनकी यह कवायद उस साजिश का हिस्सा तो नहीं जो पिछले दिनों हुए हादसे से उठने वाली आवाज को दफन करने के लिए बुनी गई है। बहुजन समाज पार्टी की सरकार के दौरान वर्ष 2012 में 27 फरवरी को बिल्ली-मारकुंडी खनन हादसे में शासन और प्रशासन की ओर से की गई कार्रवाई में कुछ ऐसा ही देखने को मिला था। उस दौरान मारे गए करीब एक दर्जन मजदूरों के परिजनों/आश्रितों को उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से आज तक मुआवजे के रूप में एक फुटी कौड़ी नहीं मिली। ना ही इसके लिए जिम्मेदार खनन माफियाओं, भ्रष्ट नौकरशाहों और सफेदपोशों को सजा मिली। 

क्या अविनाश कुशवाहा की यह जिम्मेदारी नहीं थी कि वे उस हादसे में मारे गए लोगों को भी मुख्यमंत्री कोष से मुआवजे की धनराशि की मांग करते? क्या विधायक अविनाश कुशवाहा और अन्य जनप्रतिनिधि 15 अक्टूबर, 2015 और 27 फरवरी 2012 के हादसों समेत जिले में हो रहे अवैध खनन, विस्फोट और परिवहन की जांच सीबीसीआईडी अथवा सीबीआई अथवा उच्च न्यायालय में कार्यरत न्यायमूर्ति से कराने की अपील मुख्यमंत्री से करेंगे? अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो सोनभद्र में हो रहे खनिजों के अवैध दोहन, परिवहन और विस्फोट की घटनाओं में उनकी भूमिका पर सवाल उठना लाजिमी ही है। साथ-साथ प्रदेश की कथित लोकतांत्रिक व्यवस्था और उसके प्रतिनिधियों पर आम आदमी का भरोसा कमजोर होगा जो एक स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं है। जरूरी है कि उत्तर प्रदेश की सरकार सोनभद्र और आस-पास के जिलों में हो रहे खनिजों के अवैध दोहन, परिवहन और विस्फोट की जांच किसी न्यायमूर्ति/सीबीसीआईडी/सीबीआई से कराये और मजदूरों की हत्या के लिए जिम्मेदार लोगों को जेल भेजे ताकि आम आदमी का भरोसा उत्तर प्रदेश सरकार समेत भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर बना रहे।  

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