लोकतंत्र में जागरूक नागरिक बनना एक मुश्किल काम है। आई आई टी के लिए तैयारी
करने से भी ज़्यादा अध्ययन की ज़रूरत पड़ती है। जलेबी का रस और समोसे का तेल सोखने
के काम आने वाले अख़बारो को पढ़ने से कोई फायदा नहीं। आपको देखना चाहिए कि उन
अख़बारों में ऐसी पत्रकारिता के लिए कोई जगह भी है या कभी आपने इस तरह की खोजी
पत्रकारिता देखी भी है, जिसमें दुनिया भर कई सैंकड़ों पत्रकार दिन रात लगे हों।
मुल्क की सीमाएँ और संगठन की दीवारें ध्वस्त हो गईं हों...
by रवीश कुमार
क्या आप बिल्कुल ही पनामा पेपर्स से उजागर हो रहे कारनामों को समझ नहीं पा रहे
हैं?
अंग्रेजी दैनिक अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' ने पिछले दिनों एक ही विषय पर लंबी लंबी कई रपटें
प्रकाशित कीं। यह भी हो सकता है कि वक्त की कमी के कारण आप पनामा पेपर्स को समय
नहीं दे पा रहे हों। दुनिया के कई देशों के अख़बारों में उनके यहां के कारनामों के
बारे में इसी तरह रिपोर्ट छप रही है। पनामा पेपर्स को अब तक सबसे बड़ा (लीक्स)
खुलासा बताया गया है। हालांकि ख़ुलासा सही शब्द नहीं है क्योंकि खुलासा का मतलब
होता है ज़रा सा बताना लेकिन हिन्दी मीडिया के चलन में ख़ुलासा ठीक उल्टा मतलब के
लिए इस्तमाल होने लगा है यानी सब कुछ बता देना।
कई बार ऐसे जटिल आर्थिक विषयों के प्रति उदासी समझ आती है। मैं ख़ुद अपनी
अयोग्यता और अकुशलता के कारण ऐसे तमाम विषयों में हाथ डालने से बचता हूं लेकिन इस
बार थोड़ा-थोड़ा करने समझने का प्रयास किया कि मामला क्या है। एक आम पाठक को क्यों
इसमें दिलचस्पी लेनी चाहिए और इसके बारे में बात करनी चाहिए। हमारे उद्योगपति
निवेश के नाम पर पैसे का किस तरह इस्तमाल करते हैं, कहां से पैसा लाते हैं और किस किस को मदद करते हैं,
इन सबकी हमें मामूली जानकारी भी नहीं होती। सबकुछ कानून और
रसूख की बंद दीवारों के भीतर होता है । भावावेश में आकर हम कई बार उन्हें या तो
चोर कह देते हैं या कई बार कुछ कह पाने की स्थिति में ही नहीं होते। दोनों ही
मामले में ख़ुद को जागरूक नागरिक समझने का भ्रम पालने वालों के लिए ये उदासी
ख़तरनाक साबित हो सकती है।
अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पनामा पेपर्स के खुलासे के दो दिन बाद कहा
है कि टैक्स चोरी से बचने के ये तरीके दुनिया भर के लिए समस्या हैं। इनमें से बहुत
से खाते और कंपनियां कानूनी हैं मगर समस्या तो यही है। ऐसा नहीं है कि इन लोगों ने
कानून तोड़े हैं बल्कि समस्या ये है कि ऐसे कानून ही क्यों हैं। भारतीय रिज़र्व
बैंक के गवर्नर ने कहा है कि कुछ खाते वैध भी हो सकते हैं लेकिन हम जांच करेंगे।
भारत सरकार ने भी इसकी जांच के लिए कई एजेंसियों को जिम्मा सौंपा है। पाकिस्तान
में भी इसकी न्यायिक जांच की घोषणा हो गई है। नार्वे से लेकर आस्ट्रेलिया तक में
जांच होने लगी है।
मेरे ख़्याल से राष्ट्रपति ओबामा का बयान वैध अवैध की सीमा से आगे जाकर यह कह
रहा है कि ऐसे नियम ही क्यों बने हैं। जहां लोग कानूनी तरीके से कागज़ी कंपनियां
बनाते हैं, उनमें निदेशक बनते हैं, कई बार आम लोगों से भी शेयर के ज़रिये पैसा बटोरते हैं,
कई बार दलाली से लेकर हथियार सौदे का पैसा लगाकर काले धन को
कानूनी कर देते हैं। पनामा पेपर्स में जिन दो लाख से अधिक कंपनियों के नाम आए हैं।
वो कंपनियां कानूनी तरीके से बनाई गईं होंगी मगर क्या उनमें लगे पैसे भी कानूनी
रूप से ही कमाये गए होंगे। इसके लिए कंपनी बनाने और निवेश के नियमों की समझ ज़रूरी
है मगर यह जानकारी न भी हो तो एक एंगल से मामले को आसानी से समझा जा सकता है।
पनामा पेपर्स के एक करोड़ से भी अधिक दस्तावेज़ कंपनी के चालीस साल के
कारनामों के हिसाब हैं। यह दस्तावेज़ हैं मोज़ाक फोंसेका कंपनी के। यह कंपनी
दुनिया भर के तमाम राष्ट्र प्रमुखों, नेताओं, कारोबारियों और मशहूर हस्तियों के पैसे का बंदोबस्त करने के
लिए काग़ज़ी कंपनियां खुलवाती है और उनमें निवेश करवाती है। फोंसेका का दावा है कि
वो यह काम कानूनी तरीके से करती है। फोंसेका अपने ग्राहकों के बारे में नहीं जानती
क्योंकि ये ग्राहक उस तक मशहूर बैंकों के ज़रिये पहुंचते हैं। ऐसा भी पता चला है
कि बड़े बैंक और फोंसेका मिलकर इधर-उधर का गेम खेलते हैं। ग्राहक अपना पैसा लेकर
बैंक के पास पहुंचता है और बैंक उस पैसे को ठिकाने लगाने के लिए फोंसेका की मदद से
कंपनी खुलवा देते हैं। बकायदा इसके प्रमाण हैं। पनामा पेपर्स से पहले ही ये पहलू
साबित हो चुका है। अब हम प्रयास करेंगे कि मोज़ाक फोंसेका नाम की कंपनी के ज़रिये
इस मामले के नैतिक और कानूनी पहलू को समझा जाए।
एक बार जब आप फोंसेका के ग्राहकों की वेरायटी जान लेंगे तब आपको पता चलेगा कि
आतंक से लड़ने के नाम पर और बिजनेस बढ़ाने के नाम पर आपको कैसे उल्लू बनाया जा रहा
है। यह सही हो सकता है कि फोंसका ने कई उद्योगपतियों के लिए कानूनी तरीके से
कंपनियां खुलवाने में मदद की जहां वे निवेश कर सके या अपना पैसा रख सके। हम और आप
भी टैक्स बचाते हैं लेकिन हम छिपा कर नहीं बचाते हैं। हम उसके लिए जीवन बीमा
खरीदते हैं या मकान ख़रीदते हैं। क्या इन उद्योपतियों को कानून ने इजाज़त दी है कि
वे अपना टैक्स बचाने के लिए पनामा में कंपनी खोल सकते हैं?
कंपनी खोली भी तो क्या सबने अपने अपने देश में उनकी जानकारी
दी?
वेबसाइट पर बताया? अपने शेयरधारकों को बताया?
पनामा पेपर्स से पता चलता है कि मोज़ाक फोंसेका नाम की कानूनी सहायता प्रदान
करने वाली कंपनी ने ऐसी कंपनी आतंकवादी संगठनों की मदद करने वाले,
ड्रग माफिया से लेकर बैंक लुटेरों और यहां तक कि दाऊद
इब्राहीम के पैसे को ठिकाने लगाने में मदद की। फोंसेका एक ऐसी दुकान है जहां एक
कानून का पालन करने वाला अमीर उद्योगपति भी जाने का दावा करता है,
जहां कोई आतंकवादी संगठन से जुड़ा हुआ अपना पैसा लेकर चला
जाता है,
ड्रग माफिया भी चला जाता है। फिर भी आप इतनी आसानी से मान
ले रहे हैं कि इस खुलासे में तो कुछ भी नहीं हुआ। दुनिया भर के 370 पत्रकार बेकार में ही साल भर तक इन लाखों पन्नों को पलटते
रहे और अपने अपने मुल्कों में छानबीन करते रहे।
सीरीया में युद्ध चल रहा है। इस युद्ध में कई देश शामिल हैं और सबने सीरीया पर
प्रतिबंध लगाये हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि राष्ट्रपति असद ने अपने नागरिकों की
हत्या करवाई है। अब जब प्रतिबंध लग गया है तो फिर फोंसेका सीरीया को तेल और गैस
सप्लाई करने के लिए बेनामी कंपनी खुलवाने में कैसे मदद कर सकती है। इस सीरीया संकट
से खतरनाक आतंकी संगठन आई एस आई एस का उभार हुआ है जिससे दुनिया तंग है। अब जब ये
देश इतनी संजीदगी से आतंक के खिलाफ लड़ने का राष्ट्रीय प्रसारण करते हैं तो उन्हें
ये बात कैसे पता नहीं चली कि कुछ लोग हैं जो कंपनी बनाकर सीरीया को तेल और गैस
सप्लाई कर रहे हैं। ये तेल और गैस क्या एक आदमी के सपने से सीराया के राष्ट्रपति
के सपने में ट्रांसफर हो जाते होंगे। जाते तो किसी रास्ते से ही होंगे न तो क्या
वो भी नहीं दिखता है। रूस के राष्ट्रपति
ने भी पिछले साल आरोप लगाया था कि आतंकी संगठन के साथ कई देश कारोबार कर रहे हैं।
ये खेल चल रहा है आतंक को लेकर। और इस खेल में आम आदमी कहीं हिन्दू मुस्लिम के
एंगल से भिड़ा हुआ है तो कहीं इस्लामी आतंक के एंगल से। सीरीया की मददगार कोई एक
कंपनी नहीं है बल्कि कई कंपनियों का नेटवर्क है।
और तो और इनमें से तीन कंपनियां ऐसी हैं जिन पर अमरीकी कानून के तहत प्रतिबंध
भी लगा हुआ है। इन्हीं में से एक कंपनी के लिए मोज़ाक फोंसेका ने काम भी किया है।
अमरीका के अपने रिकार्ड कहतेहैं कि 334 लोगों और कंपनियों के साथ मोज़ाक फोंसेका ने काम किया है।
अमरीकी दस्तावेज़ों के मुताबिक पश्चिम एशिया में सक्रिय आतंकवादियों और युद्ध
अपराधियों के संदिग्ध साहूकारों( फाइनेन्सर्स) के लिए काग़ज़ी कंपनी बनाकर मोज़ाक
फोंसेका ने पैसे कमाए हैं।
हैं न कमाल का खेल ये। अगर कोई उद्योगपति या वकील सही तरीके से कंपनी खोलकर
इंग्लैंड और जर्मनी में निवेश कर सकता है तो क्या आप या हम ये मान लें कि इन देशों
में बिजनेस करने का एकमात्र रास्ता यही है कि आप पहले पनामा या ब्रिटिश वर्जीन
आइलैंड जाकर काग़ज़ी कंपनी बनाए, इन कंपनियों में ऐसे निदेशक रखें जिनके नाम के आगे दिए गए
पते पर पहाड़गंज या मुंबई के चाल में रहने वाले ग़रीब लोग रहते हो। ऐसा कैसे हो
सकता है कि फोंसेका एक सही कारोबारी के लिए काम करती है और आतंकवादी के लिए भी।
काग़ज़ पर कंपनी खुले और फिर बंद हो जाए, पैसा डाला जाए और निकाल कर कहीं और लगा दिया जाए इसमें कुछ
ग़लत ही नहीं है। वाह रे दुनिया।
बुधवार के इंडियन एक्सप्रेस में खबर छपी है कि बाहर की एक कंपनी को भारतीय नोट
छापने का ठेका चाहिए। कंपनी ने दिल्ली में रहने वाले किसी व्यक्ति को संपर्क किया
कि आपको करोड़ों देंगे। इस व्यक्ति ने ठेके दिलवा दिये और उसे पैसे देने के लिए
बाहर वाली कंपनी ने दिल्ली वाले सज्जन के लिए एक कंपनी बनवा दी। कंपनी बनाई
फोंसेका ने और सज्जन जी को करोड़ों रुपये मिल गए। फिर भी हंगामा नहीं। एक नागरिक
के तौर पर ऐसी उदासीनता इसलिए ठीक नहीं है कि नेता का नाम नहीं आया। क्या आप ठीक
ठीक जानते हैं कि इस खेल में शामिल कंपनियां सभी प्रकार के दलों की आर्थिक मदद
नहीं करती होंगी. ये उद्योगपति या कारोबारी इन नेताओं के फ्रंट नहीं होंगे।
लोकतंत्र में जागरूक नागरिक बनना एक मुश्किल काम है। आई आई टी के लिए तैयारी
करने से भी ज़्यादा अध्ययन की ज़रूरत पड़ती है। जलेबी का रस और समोसे का तेल सोखने
के काम आने वाले अख़बारो को पढ़ने से कोई फायदा नहीं। आपको देखना चाहिए कि उन अख़बारों
में ऐसी पत्रकारिता के लिए कोई जगह भी है या कभी आपने इस तरह की खोजी पत्रकारिता
देखी भी है, जिसमें दुनिया भर कई सैंकड़ों पत्रकार दिन रात लगे हों। मुल्क की सीमाएँ और
संगठन की दीवारें ध्वस्त हो गईं हों।
यह सवाल पाठक के तौर पर आपको खुद से करना है कि ट्रैक्टर ट्राली के टक्कर की
ख़बरें पढ़ने के लिए आप महीने का तीन सौ चार सौ रुपया क्यों देते हैं?
ये अख़बार ट्रैक्टर ट्राली के टक्कर की ख़बरों में मारे गए
लोगों से इंसाफ भी नहीं करते। बस किसी कोने में छाप देते हैं जिन्हें हम अपनी
ज़ुबान में ख़बर लगाना कहते हैं। खासकर हिन्दी के अख़बारों में आपने ख़बरों के
प्रकाशन की परंपरा देखी है ? न्यूज़ चैनलों में ऐसी परंपरा देखी है?
नहीं देखी है तो उनसे पूछा क्यों नहीं है। इसीलिए पनामा
पेपर्स से जो उजागर हो रहा है उसके साथ साथ एक पाठक के तौर पर भी आप भी उजागर हो
रहे हैं। जिसे अंग्रेज़ी में एक्सपोज़ होना कहते हैं। कहीं आप एक आलसी और लापरवाह पाठक तो नहीं हैं।
अपनी बेरूख़ी से ये ज़ाहिर न करें कि मेहनत से की गई पत्रकारिता के कद्रदान आप
नहीं हैं। पाठक कद्र नहीं करेंगे तो पत्रकारों का दिल टूट जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। इन दिनों वह एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एक्ज़ेक्यूटिव एडिटर पद पर कार्यरत हैं। यह लेख उनके ब्लॉग 'कस्बा' से लेकर प्रकाशित किया जा रहा है ताकि आप भी उनकी नज़रों से अंग्रेजी दैनिक 'इंडियन एक्सप्रेस' के 'पनामा पेपर लीक्स' के महत्व को समझ सकें।- संपादक)
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