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गुरुवार, 28 जुलाई 2016

जातिवादी दिशा में भटकी सामाजिक न्याय की लड़ाई- अनिल चमड़िया


सामाजिक न्याय की चुनावी राजनीति और सांप्रदायिक गठजोड़' विषयक गोष्ठी में बोले वक्ता, बेटियों के अपमान पर ही टिकी है सांप्रदायिक-जातिवादी राजनीति।

वनांचल न्यूज़ नेटवर्क

लखनऊ। जो जातिवादी होगा, वह सांप्रदायिक होगा और जो सांप्रदायिक होगा, वह जातिवादी होगा। इनका गहरा संबन्ध है। सामाजिक न्याय की लड़ाई जातिवादी दिशा में भटक गई है। यह इसलिए हुआ क्योंकि चुनावी राजनीति के लिए ऐसा करना कुछ राजनीतिक पार्टियों के लिए लाभकारी हो सकता है। सामाजिक न्याय की लड़ाई का मूल्यांकन इस तरह से करना चाहिए, क्या कारण है कि इस दौर में सांप्रदायिकता का विस्तार तेजी से हुआ है? दलित उत्पीड़न घटना नहीं, विचारधारा है। दलित उत्पीड़न के उन तमाम औजारों का इस्तेमाल देश के अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ भी किया जाता रहा है। गाय के बहाने यदि अल्पसंख्यकों पर हमले होते हैं तो उन हमलों से दलितों को भी नहीं बचाया जा सकता। इस तरह दलित उत्पीड़न और सांपद्रायिक उत्पीड़न एक ही है। जो दलित विचारधारा की राजनीति करने का दावा करते हैं, वह वास्तविक विचारधारा की लड़ाई नहीं लड़ते हैं, बल्कि दलित जातियों का वोट बैंक सत्ता पाने के अवसरों के रूप में करते हैं। चुनाव की राजनीति महज वोटों के गठजोड़ से नहीं होती, बल्कि उसका जोर सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक मुद्दों पर एकताबद्ध वोटों में विभाजन की बनावटी दीवार खड़ी करने की भी होती है। दलित चेतना के उत्पीड़न के लिए सामाजिक न्याय की चुनावी पार्टियां भी राज्य मशीनरी का उतना ही दुरुपयोग करती हैं, जितना कि सांप्रदायिक विचारधारा की पार्टियां सांप्रदायिक हमले के लिए करती हैं। जो मुसलमान धार्मिक हैं, वह सांप्रदायिक नहीं है और जो हिंदू सांप्रदायिक है, वह धार्मिक नहीं हैं।

मंगलवार, 28 जून 2016

मोदी खुद इन्हीं परिस्थितियों की पैदाइश हैं?

आपातकाल के दौरान संविधान में तकरीबन 25 संशोधन किए गए थे। हालांकि जनता पार्टी के शासन में आने के बाद उन सबको एक साथ रद्द कर दिया गया था। तब इन संशोधनों को मिनी संविधान करार दिया गया था। यहां तो पूरे संविधान को ही बदलने की बात की जा रही है...

महेंद्र मिश्रा
वैसे तो आपातकाल 26 जून को लगा था। वह दिन बीत गया है। कुछ लिखने की इच्छा के बावजूद दूसरी व्यवस्तताएं भारी पड़ीं। लेकिन चूंकि इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है इसलिए लिखना जरूरी हो गया था। इस सिलसिले में आए लेखों में दो चीज देखने को मिली। कुछ ने इंदिरा गांधी के आपातकाल को कोसने तक अपने को सीमित रखा। तो कुछ ने इसे मौजूदा संदर्भ से जोड़ने की भी कोशिश की। पहली जमात में ऐसे लोग हैं जिनकी कुछ राजनीतिक प्रतिबद्धताएं हैं। या फिर न तो वो लोकतंत्र के मर्म को समझते हैं और न ही उन्हें आपातकाल के खतरे का अहसास है। दूसरी श्रेणी के लोग भी अगर मौजूदा समय को सिर्फ आपातकाल के ही एक दूसरे चेहरे के तौर पर देख रहे हैं। तो वो भी असल तस्वीर से अभी दूर हैं।

रविवार, 15 मई 2016

पत्रकारों की हत्या और गिरफ्तारी पर मुखर हुए जनसंगठन


पत्रकार पुष्प शर्मा की गिरफ्तारी केंद्र की मोदी सरकार के दमन का प्रतीक- रिहाई मंच

वनांचल न्यूज नेटवर्क

लखनऊ। देश के विभिन्न इलाकों में हो रही पत्रकारों की हत्या को लेकर जन-पक्षधर संगठनों के साथ-साथ विभिन्न पत्रकार संगठनों ने सत्ताधारी पार्टियों को निशाने पर लिया है। मुसलमानों को योगा ट्रेनिंग के चयनित लोगों में मुसलमानों को शामिल नहीं करने से संबंधित खबर को ब्रेक करने वाले पत्रकार पुष्प शर्मा की गिरफ्तारी के मामले को रिहाई मंच ने केंद्र की मोदी सरकार में बढ़ रहे दमन का ताज़ा नज़ीर करार दिया है। साथ ही उसने बिहार और झारखंड में हाल ही में हुए दो पत्रकारों की हत्या को लोकतंत्र के लिए शर्मनाक बताया और इसमें शामिल हत्यारों की तुरंत गिरफ्तारी की मांग की है।

रिहाई मंच द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में मंच के महासचिव राजीव यादव ने भारत सरकार द्वारा योगा ट्रेनिंग में नीतिगत आधार पर मुसलमानों की नियुक्ति न करने का आरटीआई से खुलासा करने वाले पत्रकार पुष्प शर्मा की गिरफ्तारी और उक्त खबर को छापने वाले अखबार मिल्ली गजट के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने को मोदी सरकार की एक और ओछी हरकत बताया। उन्होंने कहा है कि इस मसले पर आयुश मंत्रालय द्वारा बिना अखबार से खबर के संदर्भ में कोई पूछताछ किए मुकदमा दर्ज करना साबित करता है कि आरटीआई में उजागर तथ्य बिल्कुल सही हैं और सरकार ने बदले की भावना के तहत पत्रकार को उत्पीड़ित करने के लिए जेल भेजा है। उन्होंने कहा कि इस मसले पर प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा पत्रकार के पक्ष में खड़े होने के बजाए खुलकर सरकार का पक्ष लेना साबित करता है कि पीसीआई जैसी संस्था का भी भगवाकरण हो गया है।

वहीं उन्होंने बिहार के सिवान में पत्रकार राजदेव रंजन और झारखंड चतरा में अखिलेश प्रताप सिंह की हत्या की निंदा करते हुए कहा है कि ये घटनाएं साबित करती हैं इन राज्यों में अपराधियों के हौसले कितने बुलंद हैं। उन्हांने दोनों मामलों में दोषियों की तत्काल गिरफ्तारी की मांग की है।

उधर, ऑल इंडिया जर्नलिस्ट एसोसिएशन, डेलही यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट, उपजा, भारतीय पत्रकार संगठन समेत देश के विभिन्न पत्रकार संगठनों ने बिहार और झारखंड में हुए दो पत्रकारों की हत्या की लिए सत्ताधारी पार्टियों को जिम्मेदार ठहराया। साथ ही उन्होंने मांग की कि हत्या में शामिल सभी लोगों को तत्काल गिरफ्तार किया जाए और पत्रकारों के परिजनों को मुआवजा मुहैया कराया जाए। 

शुक्रवार, 13 मई 2016

आतंकवाद के आरोपों से बरी मुस्लिम युवकों के खिलाफ अपील में जाना सपा सरकार की मुस्लिम विरोधी मानसिकता- रिहाई मंच

वनांचल न्यूज नेटवर्क

लखनऊ । निचली अदालत द्वारा आतंकवाद के आरोपों से बरी किए गए मुस्लिम युवकों के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील करना उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार की मुस्लिम विरोधी मानसिकता को दर्शाता है। सपा सरकार ने यह कदम उठाकर मुसलमानों के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया है।

रिहाई मंच के प्रवक्ता शहनवाज आलम की ओर से जारी विज्ञप्ति में ये बाते कही गई हैं। साथ ही मंच ने एनआईए द्वारा मालेगांव बम धमाकों की आरोपी साध्वी प्रज्ञा पर से मकोका हटाने की कार्रवाई को न्यायिक व्यवस्था पर संघी हमला करार दिया है।

मंच के अध्यक्ष एडवोकेट मोहम्मद शुऐब ने कहा है कि सपा ने आतंकवाद के नाम पर फंसाए गए बेगुनाहों को छोड़ने का वादा तो पूरा नहीं किया, जो लोग अदालतों से बरी हुए हैं अब उनके खिलाफ भी सरकार उच्च न्यायालय में अपील करके मुसलमानों के जख्मों पर नमक छिड़क रही है। उन्होंने कहा कि 2 अक्टूबर 2015 को जलालुद्दीन, नौशाद, अजीजुर रहमान, शेख मुख्तार, मोहम्मद अली अकबर हुसैन और नूर इस्लाम मंडल को लखनऊ की विशेष न्यायाधीश (एससीएसटी) अपर जिला एंव सत्र न्यायालय ने बरी कर दिया था। इन अभियुक्तों पर लखनऊ में विस्फोट करने की रणनीति बनाने के आरोप के साथ ही उनसे भारी मात्रा में विस्फोटक बरामद करने का एसटीएफ ने दावा किया था। अदालत ने अपने फैसले में लिखा था मामले की परिस्थतियों व साक्ष्य की भिन्नताएं व विसंगतियां इस बरामदगी को संदेहास्पद बनाती हैं और मामले की परिस्थतियों से यह इंगित हो रहा है कि अभियुक्तगण को पुलिस कस्टडी रिमांड में लेकर उनके खिलाफ फर्जी बयानों के आधार पर यह बरामदगी भी प्लांट की गई है।

इन अभियुक्तों के वकील रहे रिहाई मंच अध्यक्ष ने कहा है कि अपनी जिंदगी के आठ साल जेलां में बिना किसी कुसूर के बिता चुके इन मुस्लिम नौजवानों के बरी होने से सपा सरकार इस कदर दुखी है कि उसने 29 फरवरी 2016 को उच्च न्यायालय में फैसले के खिलाफ अपील दायर कर दी है। जिसकी सुनवाई 10 मई को पड़ी थी। लेकिन सरकारी वकील ने उसे मुल्तवी करा लिया और अब अगस्त में सुनवाइ होगी। उन्हांने कहा कि सरकार के इस रवैये से एक बार फिर साबित हो गया है कि प्रदेश सरकार ने इन मामलों में खुद ही अदालतों को पत्र लिख कर आरोपियों को छोड़ने की जो अपील की थी वह सिवाए नाटक के कुछ नहीं था। मोहम्मद शुऐब ने आगे कहा है कि इन मामलां से बरी हुए बेगुनाह मुस्लिमां में से अधिकतर पश्चिम बंगाल के हैं जिन्हें यहां जमानतदार तक नहीं मिले और किसी तरह उन्होंने खुद अपनी पत्नी, सालों और दूसरे करीबियों को जमानतदार बना कर इन्हें छुड़वाया था। ऐसे में उनकी रिहाई के खिलाफ सरकार का अपील करना सपा सरकार का विशुद्ध साम्प्रदायिक और मुस्लिम विरोधी कार्रवाई है।
हीं विज्ञप्ति में रिहाई मंच के महासचिव राजीव यादव ने कहा कि एक तरफ तो सपा ने मुजफ्फरनगर साम्प्रदायिक हिंसा के मास्टरमाइंड संगीत सिंह सोम और सुरेश राणा और मुसलमानों के हाथ काटने की धमकी देने वाले भाजपा नेता वरूण गांधी के खिलाफ तो सुबूत होने के बावजूद उनके खिलाफ कानूनी कार्रवई में नहीं गई और उन्हें बरी होने में पूरा सहयोग किया। तो वहीं दूसरी ओर बेगुनाह मुस्लिमों का बरी होना उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रहा है। मुलायम सिंह को संघ परिवार का पुराना स्वयंसेवक बताते हुए राजीव यादव ने कहा कि इससे पहले भी मुलायम सिंह बाबरी मस्जिद विध्वंस के मास्टरमाइंड लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ बाबरी ध्वंस के आरोपों को वापस ले चुके हैं और आज उनके बेटे भी खुल कर उनके पदचिन्हों पर चलते हुए पहले कानपुर के बजरंगदल के कार्यकर्ताओं जिनकी मौत बम बनाते समय हो गई थी और जिनके पास से कई किलो विस्फोटक बरामद हुआ था के मामले में भी सत्ता में आते ही फाइनल रिपोर्ट लगवा दिया और कानपुर दंगे के षडयंत्रकर्ता एके शर्मा को डीजीपी बना दिया।

उन्होंने कहा कि सपा के इसी मुस्लिम विरोधी नीति के कारण आज भी जहां कई बेगुनाह नौजवान आतंकवाद के आरोप में जेलों में बंद हैं तो वहीं इन आरोपों से बरी हुए वासिफ हैदर जैसे मुस्लिम युवक दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं क्योंकि अखिलेश सरकार ने उन्हें मुआवजा और पुर्नवास का वादा भी पूरा नहीं किया।

राजीव यादव ने कहा कि एनआईए द्वारा मालेगांव आतंकी विस्फोट की आरोपी साध्वी प्रज्ञा पर से मकोका हटाना और सपा सरकार का एनआईए व दिल्ली स्पेशल सेल को प्रदेश में घुस कर बेगुनाह मुस्लिम युवकों को पकड़ने की खुली छूट देना और बरी मुसलमानों के खिलाफ अपील में जाना यह सब आपस में जुड़ी हुई कड़ियां हैं। जो साबित करता है यूपी समेत पूरे देश में बेगुनाह मुस्लिमों को फंसाने का खेल बड़े पैमाने पर शुरू होने वाला है।


बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

भाजपा-सपा गठजोड़ को 'जन विकल्प मार्च' के जरिये बेनकाब करेगा रिहाई मंच

-संघ और भाजपा नेताओं द्वारा  छात्र संगठन एसआईओ के कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमला मुसलमानों पर हो रहे सरकार संरक्षित हमले की ताजा मिसालः रिहाई मंच।
-मंच 16 मार्च को निकालेगा 'जन विकल्प मार्च'

वनांचल न्यूज नेटवर्क

लखनऊ। देश के विभिन्न इलाकों में बेगुनाहों की रिहाई के लिए सशक्त अभियान चलाने वाला 'रिहाई मंच' आगामी 16 मार्च को 'जन विकल्प मार्च' निकालकर भाजपा और समाजवादी पार्टी के गठजोड़ को बेनकाब करेगा। साथ ही उसने राज्य की सपा सरकार पर मुसलमानों से वादाखिलाफी करने, सूबे को सांप्रदायिक हिंसा में ढकेलने समेत दलितों और महिलाओं का उत्पीड़न करने का आरोप लगाया। मंच ने स्पष्ट कहा कि चुनाव जीतने के लिए कभी मुजफ्फरनगर तो कभी लव जेहाद जैसे एजेंडे को आगे किया जाता है। कभी एखलाक की हत्या की जाती है तो कभी हरियाणा में दलितों की हत्या का नंगा नाच किया जाता है। खुफिया एजेंसियों द्वारा अलकायदा के नाम पर कभी संभल तो कभी आईएस के नाम पर लखनऊ और कुशीनगर को निशाना बनाया जाता है। पूरे देश में वे जिस तरह से मुस्लिम युवाओं को फंसा रही हैं,  'जन विकल्प मार्च' उसके खिलाफ एक संगठित आवाज होगा जो जन आंदोलन के माध्यम से नए राजनीतिक विकल्प का निर्माण करेगा। साथ ही यह कॉर्पोरेट और मीडिया परस्त राजनीति को शिकस्त देगा।

रिहाई मंच ने दलित छात्र रोहित वेमुला और जेएनयू के छात्रों के समर्थन में गांधी प्रतिमा हजरतगंज लखनऊ में हस्ताक्षर अभियान चला रहे छात्र संगठन एसआईओ के छात्रों पर संघ और भाजपा नेताओं द्वारा जानलेवा हमले को सपा सरकार में पूरे सूबे के मुसलमानों पर हो रहे सरकार संरक्षित हमले की ताजा मिसाल बताया है। मंच ने कहा है कि विधानसभा से सौ मीटर की दूरी पर सैकड़ों पुलिस वालों की मौजूदगी में किया गया हमला बिना प्रशासनिक मिलीभगत के संभव नहीं है। मंच ने संघ के साम्प्रदायिक आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए हजरतगंज कोतवाली के पूरे पुलिस अमले को तत्काल बर्खास्त करने की मांग की है। मंच ने आरोप लगाया है कि इसी साम्प्रदायिक पुलिस अमले ने कुछ दिनों पहले एसएफआई कार्यालय पर भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा हमला करवाया था। मंच ने यह भी कहा है कि यह अकारण नहीं है कि सपा मुखिया मुलायम सिंह के यह कहते ही ऐसे हमले बढ़ गए हैं कि उन्हें बाबरी मस्जिद तोड़ने आए भाजपाईयों पर गोली चलाने का आदेश देने पर दुख है।

रिहाई मंच द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में मंच के अध्यक्ष एडवोकेट मुहम्मद शुऐब ने कहा है कि सपा ने 2012 में मुसलमानों से 16 सूत्री वादा किया था जिसमें से चार साल पूरे होने के बावजूद एक भी वादा पूरा नहीं किया गया। उन्होंने कहा कि सपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र के पृष्ठ संख्या 12 से 15 पर यह वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाह मुस्लिम युवकों को छोड़ दिया जाएगा, इन आरोपों से बरी हुए लोगों का पुर्नवास किया जाएगा, मुसलमानों को 18 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा, सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशों पर अमल किया जाएगा, पुलिस में मुसलमानों की भर्ती के लिए विशेष प्राविधान किया जाएगा, मुस्लिम बहुल जिलों में नए सरकारी शैक्षिक संस्थानों की स्थापना की जाएगी, मुस्लिम बहुल इलाकों में उर्दू माध्यम के स्कूलों की स्थापना की जाएगी, मदरसों में तकनीकी शिक्षा के लिए विशेष बजट आवंटित किया जाएगा। लेकिन ये सारे वादे झूठे साबित हुए हैं। 

उन्होंने कहा कि इसी तरह बुनकरों से वादा किया गया था कि किसानों की तरह उन्हें भी बिजली मुफ्त दी जाएगी। लेकिन यह वादा भी झूठा साबित हुआ। इसीतरह वादा किया गया था कि कब्रिस्तानों की सुरक्षा की गारंटी करने के लिए विशेष बजट का प्रावधान किया जाएगा। लेकिन सच्चाई यह कि इन चार सालों में कब्रिस्तानों का अतिक्रमण और बढ़ा है जिसमें कई जगह तो सीधे सपा नेताओं की भूमिका उजागर हुई है। उन्होंने कहा कि सपा सरकार न सिर्फ चुनावी वादों से मुकर गई है बल्कि खुल कर संघ और भाजपा के मुस्लिम विरोधी एजेंडे को बढ़ा रही है। इसीलिए दादरी में हुई एखलाक की हत्या की सीबीआई जांच का उसने आदेश नहीं दिया तो वहीं मुजफ्फरनगर जनसंहार के दोषीयों को बचाने के लिए उसने जस्टिस सहाय कमीशन की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया।

मंच के अध्यक्ष ने कहा कि सपा ने चुनावी वादा किया था कि वह आतंकवाद के नाम कैद बेगुनाहों को रिहा करेगी पर उसने वादा पूरा नहीं किया और जब आरडी निमेष कमीशन की रिपोर्ट ने मौलाना खालिद और तारिक कासमी की गिरफ्तारी को संदिग्ध कहते हुए दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की तो उसने पुलिस और खुफिया एजेंसियों को बचाने के लिए मौलाना खालिद की हत्या करवा दी। उन्होंने कहा कि रिहाई की इस मुहिम के तहत लगातार बेगुनाह आदालती प्रक्रिया से छूट रहे हैं पर सपा जिस तरह से वादा करने के बाद भी पुर्नवास नहीं कर रही है वो साबित करता है कि अखिलेश यादव संघी मानसिकता से अदालतों से बाइज्जत बरी मुस्लिम नौजवानों को आतंकी समझते हैं।

मंच के अध्यक्ष ने कहा कि जेएनयू के छात्र जिस तरह से संघर्ष कर रहे हैं वह देश में इंसाफ की लड़ाई को नई दिशा देगा। आज जिस तरह से उमर खालिद, कन्हैया समेत तमाम छात्रों को भाजपा और सुरक्षा-खुफिया एजेंसियों का गठजोड़ देशद्रोही कह कर हमले कर रहा है वह बताता है कि यह हमला उन तमाम प्रगतिशील मूल्यों पर है जो वंचित समाज के हक में हैं। उन्होंने कहा कि जिस तरह से उमर खालिद को इस घटना के बाद मुस्लिम होने का एहसास हुआ और उनके पिता वेलफेयर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष कासिम रसूल इलियास व उनके बच्चों को धमकियां दी गई वह साबित करता है कि देश में मुसलमानों की स्थिति दोयम दर्जे की हो गई है।


मुहम्मद शुऐब ने कहा है कि मुसलमानों की तरह ही प्रदेश के दलितों और महिलाओं को  भी चार साल तक धोखा दिया गया। जहां दलितों और महिलाओं पर सामंती हमला बढ़ा है वहीं मुख्यमंत्री के आवास के पीछे से भी लड़कियों के शव मिलने लगे हैं। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि जनता सपा सरकार के झूठे दावों की पोल खोले और नए समाज निर्माण की राजनीतिक जिम्मेदारी को उठाने का संकल्प ले। उन्होंने कहा कि 16 मार्च को रिफाह-ए-आम से विधान सभा तक जन विकल्प मार्चनिकाल कर रिहाई मंच सपा सरकार के झूठ और लूट को उजागर करेगा।   

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

JNU: विश्वविद्यालयों से पहले संघ मुख्यालयों में तिरंगा लगवाए केंद्र सरकारः रिहाई मंच

'उमर खालिद को बतौर आतंकवादी प्रचारित करने की साजिश में संलिप्त हैं खुफिया एजेंसियां'

वनांचल न्यूज नेटवर्क

लखनऊ। बेगुनाहों की रिहाई और जनमुद्दों पर बेबाक आवाज बुलंद करने वाले संगठन 'रिहाई मंच' ने कहा है कि भाजपा की अगुआई वाली केंद्र की राजग सरकार देश के विश्वविद्यालयों में तिरंगा लगाने से पहले संघ मुख्यलायों में तिरंगा लगवाये। साथ ही वह संघ परिवार के दफ्तर से सावरकर और गोलवरकर जैसे देशद्रोहियों की तस्वीर हटवाए जिन्होंने न केवल अंग्रेजों से माफी मांगी थी बल्कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या का षडयंत्र भी रचा था। मंच ने आरोप लगाया गया है कि गोडसे ने गांधी जी की हत्या के प्रयासों में जिस तरह नकली दाढ़ी, टोपी और पठानी सूट पहनी थी, ठीक उसी तरह जेएनयू में एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का नारा लगाया। इसके सुबूत वीडियो के रूप में सोशल साइटों पर वायरल हो चुके हैं। इसके बावजूद पुलिस उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं कर रही। मंच ने यह भी मांग किया कि जेएनयू प्रकरण पर वामपंथियों की आलोचना करने वाले मंत्री किरन रिजुजू पहले 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का नारा लगाने वाले सावरकर के शिशुओं पर कार्रवाई करें। जेएनयू प्रकरण में मीडिया के एक हिस्से द्वारा शोधार्थी उमर खालिद को आतंकवाद से जोड़ने पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए मंच ने कहा कि खालिद के मुस्लिम होने के चलते उसके नाम पर अफवाहों को फैलाया जा रहा है। इसमें केन्द्र की खुफिया और सुरक्षा एजेंसियां संलिप्त हैं।

रिहाई मंच की ओर से जारी बयान में प्रवक्ता शाहनवाज आलम ने कहा, पहले कहा गया कि जेएनयू के छात्र पाकिस्तान समर्थक और देशद्रोही हैं। अब कहा जा रहा है कि नक्सल समर्थक छात्र संगठन डीएसयू के नेताओं ने नारे लगाए। यह मोदी और संघ परिवार के खिलाफ उभरते राष्ट्रव्यापी छात्र आंदोलन को भ्रम और अफवाह के जरिए साम्प्रदायिक रंग देकर तोड़ने की कोशिश है। जिस तरह से डीएसयू को इसके लिए जिम्मेदार बताया जा रहा है वह संघी साजिश और मीडिया के वैचारिक दिवालिएपन का सुबूत है। वामपंथी संगठन अन्तर्राष्ट्रीयतावाद में विश्वास करते हैं। उनके लिए किसी देश का जिंदाबाद या मुर्दाबाद के नारे लगाना कोई एजेंडा नहीं होता। उन्होंने मांग की कि इस मुद्दे में जिन जेएनयू के छात्रों को फरार बताया जा रहा है उनकी सुरक्षा की गारंटी की जाए। इसके लिए देश का सर्वोच्च न्यायालय संज्ञान में लेकर उन छात्रों को इंसाफ देने की अपील करे जिससे देश निर्माण के प्रति संकल्पित वो छात्र जो संघी आतंकवाद के खौफ के चलते अपने परिवारों से दूर हो गए हैं वह वापस आ सके। मंच ने कहा है कि लोकतंत्र में आस्था रखने वाला पूरा समाज इन छात्रों के परिवार के साथ खड़ा है।

शाहनवाज आलम ने कहा कि जिस तरह से उमर खालिद के पिता वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक-राजनीतिक कासिम रसूल इलियास का बयान आया कि सिर्फ मुस्लिम होने के नाते या फिर उनके पूर्व में सिमी से जुड़े होने के चलते उनके बेटे को इस घटना के लिए दोषी बताया जा रहा है वह इस लोकतांत्रिक देश में बहुत दुखद है। इस लोकतंत्र में एक व्यक्ति को जब यह कहना पड़ जाए के उसके मुस्लिम होने के चलते उसके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है तो इससे बद्तर कुछ नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि पोलिटिकल प्रिजनर्स कमेटी से जुड़े प्रो0 एसएआर गिलानी को जिस तरह से मीडिया देशद्रोही बता रहा है वह साबित करता है कि ऐसा खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों के इशारे पर किया जा रहा है। क्योंकि उनका संगठन नक्सलवाद और आतंकवाद के नाम पर इन एजेंसियों द्वारा फंसाए जाने वाले बेगुनाहों को छुड़ा कर उनके मुंह पर तमाचा मारता रहता है। रिहाई मंच नेता ने कहा कि ऐसे ही संगठनों के प्रयासों से न्याय व्यवस्था की कुछ गरिमा बची हुई है। 

रिहाई मंच नेता राजीव यादव ने कहा कि जेएनयू प्रकरण पर यूपी के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का यह कहना कि देश में न जाने किस-किस मुद्दे पर बहस चल रही है, संस्थान चर्चा में व्यस्त हैं और वो उत्तर प्रदेश के विकास पर केन्द्रित हैं यह गैर जिम्मेदाराना और बचकाना बयान है। ठीक यही भाषा मोदी की भी है जब गुजरात दंगों का सवाल उठता है तो वो विकास का भोंपू बजाने लगते हैं। उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद को तोड़ने आए संघीयों पर गोली चलवाने के लिए माफी मांगने वाले मुलायम सिंह को इस मसले पर अपनी राय रखनी चाहिए कि वे अफजल गुरू की फांसी को सही मानते हैं या गलत। 

उन्होंने कहा कि गृह राजमंत्री किरन रिजुजू जो कि जेएनयू प्रकरण के लिए वामपंथियों को दोषी ठहरा रहे हैं उन्हें अपने छात्र संगठन एबीवीपी के उन कार्यकर्ताओं जिन्होंने अपने ही संगठन की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए एबीवीपी से इस्तीफा दे दिया है, पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि सपा सरकार ने अपने प्रयास से जिस तरह वयोवृद्ध खालिस्तानी नेता 70 वर्षीय बारियाम सिंह को रिहा किया वह स्वागतयोग्य है लेकिन सवाल उठता है कि आखिर आतंकवाद के नाम पर फंसाए गए मुस्लिम नौजवानों को सरकार क्यों जेलों में सड़ाने पर तुली है। जबकि उनको छोडने का वादा सपा ने अपने घोषणापत्र में किया था।

राजीव यादव ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर बस्सी जो पहले कन्हैया द्वारा देशद्रोही नारे लगाने के सबूतों के होने की बात कह रहे थे और अब किसी सुबूत के होने से ही इंनकार कर चुके हैं पर टिप्पणी करते हुए कहा कि झूठे बयान देकर समाज में अराजकता फैलाने के आरोप में उनके खिलाफ कानूनी कार्रवई की जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि बस्सी ने जिस तरह खुल कर संघ और भाजपा के गंुडों को बचाया है, वांछित आरोपी वकीलों को गिरफ्तार करने के बजाए उन्हें साम्प्रदायिक वकीलाकें के गिरोहों द्वारा सम्मानित किए जाने के खुला छोड़ दिया उससे पूरी पुलिस व्यवस्था ही अपमानित हुई है। 

रिहाई मंच कार्यकारिणी सदस्य अनिल यादव और लक्ष्मण प्रसाद ने कहा कि कोर्ट परिसर में जिस तरह से हमले हुए हैं वह दिल्ली पुलिस की सोची समझी साजिश का नतीजा है जिससे कि मुकदमों न लड़ा जा सके। उन्होंने बताया कि ठीक इसी तरह 2008 में आतंकवाद का मुकदमा लड़ने वाले रिहाई मंच अध्यक्ष एडवोकेट मुहम्मद शुएब व उनके मुवक्किलों पर लखनऊ कोर्ट परिसर में हमला किया गया और मुहम्मद शुऐब के कपड़े फाड़ अर्धनग्न अवस्था में चूना-कालिख पोत घुमाया गया और उल्टे उनके ऊपर ही पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाने का आरोप लगाया गया था। यह हमले लगातार हुए और शाहिद आजमी की भी इन्हीं खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों ने ऐसे मुकदमें लड़ने की वजह से हत्या करवा दी। उन्होंने कहा कि यह मुल्क के आईन को बचाने की लड़ाई हैं जिसे शहादत देकर भी लड़ा जाएगा।

(प्रेस विज्ञप्ति)

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

‘राष्ट्रवाद’ के पन्नों में देशद्रोह

इतिहास की किताबों में राष्ट्रवाद को लेकर अनंत व्याख्याएं हैं। अव्वल तो राष्ट्रवाद और देशभक्ति दोनों में ही मीलों का अंतर है। एक जटिल मसले का अगर हम बात-बात में राजनीतिक इस्तमाल करेंगे तो आप दर्शकों को राष्ट्रवादी होने से पहले इतिहास की दस बीस किताबें पढ़ लेनी चाहिए। राष्ट्रगान लिखने वाले टगौर ने राष्ट्रवाद को अजगर सापों की एकता नीति कहा था। इस तरह के उदाहरणों से भी हमारी समझ साफ नहीं होती है। मगर राष्ट्रवाद को उचक्कों की शरणस्थली भी कहा गया है और राष्ट्रवाद के लिए लोगों ने सर्वोच्च बलिदान भी दिये हैं...

रवीश कुमार

राष्ट्रवाद के साथ सबसे बड़ी खूबी यह है कि कोई भी बिना जाने इसे जानने का दावा कर सकता है। 19वीं सदी से पहले तो इसके बारे में कोई जानता ही नहीं था लेकिन पिछले 200 सालों में राष्ट्र और राष्ट्रवाद का स्वरूप उभरता चला गया। इन 200 सालों में राष्ट्रवाद के नाम पर फासीवाद भी आया जब लाखों लोगों को गैस चैंबर में डाल कर मार दिया गया। हमारे ही देश में राष्ट्रवाद का नाम जपते जपते आपात काल भी आया और दुनिया के कई देशों में एकाधिकारवाद जिसे अंग्रेजी में टोटेलिटेरियन स्टेट कहते हैं। जिसमें आप वो नहीं करते जो राज्य और उसके मुखिया को पसंद नहीं।

सत्ता पर जिस पार्टी का कब्ज़ा होता है वो पुलिस के दम पर आपके नाक में दम कर देती है। मेरी राय में राजनीतिक दलों के पास राष्ट्रवाद की अंतिम परिभाषा नहीं होती है न होनी चाहिए। मैंने कहा कि राजनीतिक दलों के पास राष्ट्रवाद की अंतिम परिभाषा तब होती है जब उनका इरादा लोकतंत्र को खत्म कर देना होता है।

क्या कभी आपने देखा है कि राजनीतिक दल के कार्यकर्ता किसी नीति, घटना और घोटाले के वक्त अपने ही दल के खिलाफ नारे लगा रहे हों कि उनके लिए दल नहीं देश महत्वपूर्ण है। ऐसा होता तो बीजेपी से पहले कांग्रेस के कार्यकर्ता 2जी घोटाले के खिलाफ़ सड़कों पर आ गए होते। ऐसा होता तो बीजेपी के कार्यकर्ता, नेता व्यापम घोटाले पर पार्टी से इस्तीफा दे देते। देश जब 200 रुपये किलो दाल खा रहा था तो अपनी ही सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते। केरल में आरएसएस कार्यकर्ता पी.वी. सुजीत की हत्या कर दी गई। क्या आप उम्मीद करेंगे कि कांग्रेस, सीपीएम के नेता इस हत्या कांड के खिलाफ सड़क पर उतरेंगे। क्या आप उम्मीद करेंगे कि बीजेपी के सभी नेता अपने ही नेता ओ.पी. शर्मा के खिलाफ सड़क पर उतरेंगे। निंदा परनिंदा छोड़ दीजिए। इसलिए दलों की राजनीति दलों के हित के लिए होती है। हिंसा का इतिहास आपको हर राजनीतिक दल की सरकार में मिलेगा। आप हर घटना को राष्ट्रवाद के चश्मे से नहीं देख सकते। दंगे किस दल की सरकार में नहीं हुए और किस दल का नाम नहीं आया है, तो क्या आप उन्हें गद्दार या राष्ट्रविरोधी कहेंगे।

मैं यह नहीं कह रहा है कि राजनीतिक दल के लोग देशभक्त नहीं होते। बिल्कुल होते हैं। हर दल अपनी सोच के हिसाब से देश को सजाने संवारे की कल्पना करता है। लेकिन जब धर्म, नस्ल, रंग, भाषा और यहां तक कि टैक्स के नाम पर राष्ट्रवाद को परिभाषित करने का प्रयास किया जाता है तो उसका इरादा राष्ट्रवाद नहीं होता। उसका इरादा कुछ और होता है। राष्ट्रवाद के नाम पर अपना एकाधिकार काम करना। हर दलील को चुप करा देना। जहां दल और नेता की चलती है। बाकी सब उसके इशारे पर चलते हैं।

जेएनयू में भारत को तोड़ने और बर्बादी के नारे लगाने वालों की अभी तक पहचान क्यों नहीं हुई है। क्यों सूत्रों के हवाले से खबरें आ रही हैं। सभी ने इनका विरोध किया है। जेएनयू के तमाम छात्रों और शिक्षकों ने भी। उनका विरोध कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी को लेकर है जिसके खिलाफ अभी तक देशद्रोह के कोई सबूत नहीं मिले हैं। दिल्ली पुलिस कहती है कि अब अगर वो ज़मानत के लिए अप्लाई करेगा तो विरोध नहीं करेंगे। वो नौजवान है, उसे दूसरा मौका दिया जा सकता है। इस हृदय परिवर्तन से पहले गली गली में रैली कर जेएनयू को बदनाम किया गया कि वहां राष्ट्रविरोधी तत्व पढ़ते हैं। पटियाला हाउस कोर्ट में दूसरे दिन भी जो हुआ वो क्या है।

क्या कोई भीड़ हाथ में तिरंगा लेकर खड़ी हो जाएगी तो वो हमसे आपसे ज़्यादा देशभक्त हो जाएगी। क्या अब तिरंगा लेकर लोगों को डराया जाएगा और इंसाफ के हक से वंचित किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट की नाराज़गी के बाद भी दूसरे दिन कन्हैया कुमार के साथ मारपीट की कोशिश हुई। सुप्रीम कोर्ट ने जिन वकीलों को कोर्ट के भीतर जाने की अनुमति दी थी उन्होंने बताया कि गालियां दी गई हैं। भय का माहौल है। सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप कर सुनवाई रोक दी और कोर्ट रूम को खाली कराया। कन्हैया कुमार को 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। तीस हज़ारी कोर्ट के वकीलों ने कहा है कि पटियाला कोर्ट मामले में यदि किसी वकील को गिरफ्तार किया गया तो दिल्ली पुलिस का विरोध किया जाएगा। दिल्ली के तमाम बार संघ हड़ताल पर जाने का विचार कर रहे हैं। सुनवाई हुई नहीं, फैसला आया नहीं लेकिन चैनलों और वकीलों और संगठनों ने आतंकवादी घोषित कर दिया। अगर ऐसी ही भीड़ आपको उठा ले जाए और हाथ में तिरंगा लेकर घोषित कर दे कि आतंकवादी हैं और मार दे तो आप इंसाफ के लिए कहां जाएंगे।

इतिहास में यह सब हुआ है। राष्ट्रविरोधी बताकर राजनीतिक विरोधियों की हत्याएं हुई हैं। जर्मनी में साठ लाख यहूदियों को गैस की भट्टी में झोंक दिया गया। ये राष्ट्रवाद के अपने ख़तरे हैं। इन ख़तरों पर हमेशा बात होनी चाहिए तब तो और जब लोग राष्ट्रवाद की खूबियां बघारने में जुटे हों।

कोलकाता की जाधवपुर युनिवर्सिटी में भी कुछ छात्रों ने आज़ादी के नारे लगाए और अफज़ल गुरु का समर्थन किया। इन्हें रेडिकल ग्रुप का बताया जा रहा है। एक छात्र ने सफाई दी कि हमने अभिव्यक्ति की आज़ादी के संदर्भ में आज़ादी का नारा लगाया तो एक छात्रा ने कहा कि उसने कश्मीर की आज़ादी और अफज़ल गुरु के लिए नारे लगाए हैं। मेरे नारे राष्ट्रविरोधी कैसे हो सकते हैं क्योंकि बीजेपी ने तो पीडीपी से मिलकर सरकार बनाई है और पीडीपी के लिए अफज़ल गुरु शहीद है। कई छात्रों ने ऐसी सोच का विरोध किया है और तमाम संगठनों ने निंदा की है। जाधवपुर यूनिवर्सिटी के वीसी ने कहा है कि जिन लोगों ने नारे लगाए वो विश्वविद्यालय के छात्र नहीं थे, बाहर के असामाजिक तत्व थे। वाइस चांसलर ने कहा है कि असमाजिक तत्वों की हरकत की वजह से छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकार को नहीं छीनना चाहिए।

कानून के पन्ने पर देशद्रोह की अलग समझ है और जनता के दिलो दिमाग में अलग। इतिहास की किताबों में राष्ट्रवाद को लेकर अनंत व्याख्याएं हैं। अव्वल तो राष्ट्रवाद और देशभक्ति दोनों में ही मीलों का अंतर है। एक जटिल मसले का अगर हम बात-बात में राजनीतिक इस्तमाल करेंगे तो आप दर्शकों को राष्ट्रवादी होने से पहले इतिहास की दस बीस किताबें पढ़ लेनी चाहिए। राष्ट्रगान लिखने वाले टगौर ने राष्ट्रवाद को अजगर सापों की एकता नीति कहा था। इस तरह के उदाहरणों से भी हमारी समझ साफ नहीं होती है। मगर राष्ट्रवाद को उचक्कों की शरणस्थली भी कहा गया है और राष्ट्रवाद के लिए लोगों ने सर्वोच्च बलिदान भी दिये हैं।

जेएनयू में प्रोफेसरों ने राष्ट्रवाद पर अगले एक हफ्ते तक सार्वजनिक क्लास लगाने का फैसला किया है। पांच बजे से ये क्लास लगेगी। बुधवार को प्रोफेसर गोपाल गुरु ने हज़ारों छात्रों के बीच पहली क्लास ली। टॉपिक था राष्ट्र क्या है। इसके बाद प्रोफेसर जी अरुणिमा, तनिका सरकार, निवेदिता मेनन, आयशा किदवई, अचिन विनायक का राष्ट्रवाद पर लेक्चर होगा। ये खूबी आपको सिर्फ जेएनयू में मिलेगी। मेरी तरफ से दो गुज़ारिश है। एक कि यह ओपन क्लास हो सके तो हिन्दी में भी हो और दूसरा इसमें आरएसएस से जुड़े प्रोफेसरों को भी राष्ट्रवाद पर लेक्चर देने के लिए बुलाया जाए।

राष्ट्रवाद 19वीं सदी की सबसे ताकतवर विचारधारा रही है जिसने हम इंसानों को हमेशा हमेशा के लिए बदल दिया। एक राष्ट्र एक भाषा एक संस्कृति जैसी सोच ने तमाम तरह की विविधताओं को कुचल दिया तो कहीं इन विविधताओं ने इस विचारधारा के खिलाफ संघर्ष करते हुए खुद को बचाए भी रखा। कई लोग कहते हैं कि सियाचिन में जान देने वाले सैनिक को क्या यह छूट है कि वो अफजल गुरु के लिए नारे लगाए। लेकिन क्या इसी देश में जंतर मंतर पर वन रैंक वन पेंशन की मांग कर रहे सैनिकों के कुर्ते नहीं फाड़े गए। मेडल नहीं खींचे गए। सैनिकों की चिन्ता है तो जंतर मंतर पर सैनिक महीनों बाद भी क्यों बैठे हैं। क्या वे देशद्रोही हैं। कुछ ने कहा कि टैक्सपेयर के पैसे से जेएनयू क्यों चले। इस तरह की बेतुकी दलील देने वाले यह भी कहते हैं कि आईआईटी, एम्स और आईआईएम के छात्र टैक्स पेयर के पैसे पर पढ़ते हैं और देश सेवा छोड़ विदेश नौकरी करने चले जाते हैं। टैक्स राष्ट्रवाद ने क्यों नहीं आवाज़ उठाई कि बैंक और उद्योंगों के लाखों करोड़ रुपये के कर्ज क्यों माफ हो रहे हैं और गरीब किसानों के क्यों नहीं। ज़ाहिर है टैक्स राष्ट्रवाद की दलील ग़रीब विरोधी है।

इकोनोमिक टाइम्स में आज स्वामिनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर ने एक लेख लिखा है। लेख का उन्वान है कि राष्ट्रवाद विरोधी महज़ एक गाली है, एक मुक्त समाज में इसकी कोई जगह नहीं। उन्होंने एक मिसाल दी है। 1933 का साल था जब ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के छात्र संघ में इस बात पर बहस हुई कि यह सदन किसी भी परिस्थिति में राजा या देश के लिए नहीं लड़ेगा। प्रस्ताव पास हो गया और पूरे ब्रिटेन में खलबली मच गई। छात्रों की जमकर आलोचना हुई लेकिन किसी को देशद्रोह के मामले में गिरफ्तार नहीं किया गया। स्कॉटिश नेशनल पार्टी ब्रिटेन से अलग होना चाहती है। अपना स्काटिश राष्ट्र बनाना चाहती है तो क्या उनके नेताओं को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाए। ऐसा तो हुआ नहीं। अय्यर ने इस तरह के कई उदाहरण दिये हैं।

दुनिया के नक्शे में राष्ट्र के बनने की प्रक्रिया अभी भी मुकम्मल नहीं हुई है। कहीं राष्ट्र तबाह हो रहे हैं तो कहीं बिखर भी रहे हैं। हर साल कहीं नया झंडा बनता है तो कहीं पुराना गायब हो जा रहा है। जेएनयू की घटना के बाद बीजेपी और संघ इस बात को लोगों को तक पहुंचाने में सफल रहे कि राष्ट्रविरोधी नारों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। जो भारत को तोड़ने की बात करेगा उसे गोली मार देने की बात तक कही गई। कानून अदालत का कोई लिहाज़ नहीं। राष्ट्रवाद कानून हाथ में लेने का लाइसेंस नहीं है। असम में ही बोडो अलग राज्य की मांग करते रहे हैं लेकिन उनके एक गुट के साथ कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा था। इसी देश में अगल खालिस्तान की मांग को लेकर ख़ून खराबा हो चुका है। क्या राम जेठमलानी ने इंदिरा गांधी की हत्या से जुड़े लोगों का मुकदमा नहीं लड़ा था। क्या जेठमलानी को बीजेपी ने राज्य सभा का सदस्य नहीं बनाया। पार्टी में शामिल नहीं किया। पीडीपी की अफज़ल गुरु के बारे में क्या राय है कौन नहीं जानता। उनके साथ किसने सरकार बनाई कौन नहीं जानता।

दिक्कत ये है कि जब इतिहास पढ़ने की बारी आती है तो आप और हम इतिहास का मज़ाक उड़ाते हैं। फिर जब राजनीति करनी होती है तो इतिहास की अनाप शनाप व्याख्याएं करने लगते हैं। मौजूदा समय में राष्ट्रवाद का राजनीतिक इस्तेमाल राष्ट्रवाद की कोई नई समझ पैदा कर रहा है या जो पहले कई बार हो चुका है उसी का बेतुका संस्करण है। यह ख़तरनाक प्रवृत्ति है या लोग ऐसे ख़तरों से निपटने में सक्षम हैं।

साभारः एनडीटीवी.कॉम

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

वोटबैंक की राजनीति से उपजे रोहित वेमुला की खुदकुशी के हालात

दक्षिण के तरीकबन सभी प्रदेशों में सवर्णों को विस्थापित कर पिछड़ा तबका शासक वर्ग बन गया है। इस या उस पार्टी के साथ सत्ता में रहता है। ऐसे में सत्ता का ख्वाब देखने वाली किसी भी दक्षिणपंथी पार्टी के लिए पिछड़ा तबका उसका स्वाभाविक आधार होगा। बीजेपी की भी इसी हिस्से पर नजर है लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है...

महेंद्र मिश्रा

बहुत दिनों से यह खिचड़ी पक रही थी। पूरा परिवार इसको पकाने में जुटा था। तिल को ताड़ एक खास मकसद से बनाया गया । दो छात्रों के बीच की एक मामूली लड़ाई अनायास ही नहीं दिल्ली पहुंच गई। देखते ही देखते दो-दो केंद्रीय मंत्री शामिल हो गए। एचआरडी मंत्रालय से तीन महीने के भीतर चार-चार रिमाइंडर भेज दिए गए। स्थानीय बीजेपी विधायक इसकी अगुवाई करने लगा। परिसर कब सड़क और बाहर की राजनीति से जुड़ गया पता ही नहीं चला। दरअसल इस बीरबली खिचड़ी पर बड़ा दांव लगा था। उत्तर भारत में संघ-बीजेपी की पकड़ मजबूत हो गयी है। लेकिन दक्षिण भारत अभी भी उसकी पहुंच से दूर है। हालांकि कर्नाटक में बीजेपी का आधार जरूर है। लेकिन आंध्रा, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल में पैर रखने के लिए उसे जमीन की तलाश है। ऐसे में दक्षिण की इस भूख को पूरा करने में यह खिचड़ी बेहद मददगार साबित होती।

सूबे के बंटवारे के बाद तेलंगाना में टीआरएस और आंध्रा में टीडीपी का शासन है। तेलंगाना से हटकर टीडीपी का केंद्रीकरण अब आंध्र प्रदेश में हो गया है। ऐसे में उसका पुराना आधार और सूबे के गठन के संक्रमण से पैदा हालात बीजेपी के लिए नये मौके मुहैया कराते हैं। जिसमें वह अपने लिए एक नई जमीन तैयार कर सकती है। आम तौर पर बीजेपी का अपना विश्वसनीय आधार सवर्ण तबका होता है। लेकिन दक्षिण में पिछड़ों के सशक्तीकरण ने इस तबके को राजनीतिक तौर पर अप्रासंगिक बना दिया है। या फिर इसकी इतनी संख्या नहीं है कि उस पर पारी खेली जा सके। दक्षिण के तरीकबन सभी प्रदेशों में सवर्णों को विस्थापित कर पिछड़ा तबका शासक वर्ग बन गया है। इस या उस पार्टी के साथ सत्ता में रहता है। ऐसे में सत्ता का ख्वाब देखने वाली किसी भी दक्षिणपंथी पार्टी के लिए पिछड़ा तबका उसका स्वाभाविक आधार होगा। बीजेपी की भी इसी हिस्से पर नजर है लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है। 

हैदराबाद समेत कुछ शहरों में मुस्लिम तबके के खिलाफ सांप्रदायिक गोलबंदी से भले ही कुछ माहौल बन जाए लेकिन ठोस आधार बन पाना मुश्किल है। गांवों और सुदूर इलाकों के लिहाज से यह हथियार कारगर नहीं है। यह प्रकरण उसी की तलाश है। दरअसल वंचित जातियों के सशक्तीकरण के बावजूद दक्षिण में अभी भी पिछड़ों और दलितों के बीच एक गहरा अंतरविरोध है। बीजेपी इसका ही इस्तेमाल कर पिछड़ों में अपनी पैठ बनाना चाहती है। अनायास ही नहीं उसने किसी और की जगह बंडारू दत्तात्रेय का चेहरा आगे किया। जो एक पिछड़ी जाति से आते हैं। और घटना के बाद पार्टी उसे बढ़-चढ़ कर प्रचारित करने में लगी है। नहीं तो एचआरडी मंत्री स्मृति ईरानी को अपने पहले ही संवाददाता सम्मेलन में दत्तात्रेय की जाति बताने की क्या जरूरत पड़ गई? इतना ही नहीं उन्होंने शुरुआत भी सुशील कुमार की जाति बताने के साथ ही किया ।

इस देश में जातीय उत्पीड़न की घटनाएं अक्सर होती हैं। लेकिन यह पहली ऐसी घटना है जिसमें सीधे तौर पर सत्ता और उसकी सवारी करने वाले लोग शामिल हैं। रोहित ने आत्महत्या नहीं की बल्कि सत्ता के इन बहेलियों ने उसे घेर कर मारा है। इस वाकये ने उच्चशिक्षण संस्थानों, सत्ता प्रतिष्ठानों और पूरी व्यवस्था के ब्राह्मणवादी चेहरे को नंगा कर दिया है। इस घटना ने यह साबित कर दिया कि यह उत्पीड़न गांव की दलित बस्तियों तक सीमित नहीं है। उच्च शैक्षणिक संस्थाएं भी इन्हीं का विस्तार हैं। संघ अपने इन सामंती किलों को और मजबूत करने में जुट गया है। हैदराबाद विश्वविद्यालय से लेकर बीएचयू और इलाहाबाद से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय और जेएनयू से लेकर अलीगढ़ और जामिया में आये दिन सरकार की दखलंदाजी इसी के प्रमाण हैं। 

घटना के बाद विपक्षी दलों पर राजनीति करने का आरोप लगाया जा रहा है। लेकिन अभी तक बीजेपी-संघ-परिषद ने जो किया उसे किस श्रेणी में रखा जाएगा? और अगर इस देश में कानून नाम की कोई चिड़िया है और वह काम भी करती है तो रोहित की आत्महत्या के मामले में अब तक सक्रिय क्यों नहीं हुई? खुदकुशी के लिए मजबूर करने वाले जेल क्यों नहीं भेजे गए? इस मामले में केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय के खिलाफ थाने में एफआईआर दर्ज है। और कानून व्यवस्था का मामला भी राज्य का होता है। ऐसे में सूबे की पुलिस की क्या यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह बंडारू समेत सभी आरोपियों की गिरफ्तारी की पहल करे?

बीजेपी और उसके समर्थक याकूब मेमन मामले से जोड़कर इसे सांप्रदायिक रंग देना चाहते हैं। लेकिन उन्हें इस बात को जरूर समझना चाहिए कि इस देश में किसी भी नागरिक को किसी भी मसले पर अपनी राय रखने की पूरी छूट है। इस देश में एक बड़ी संख्या है जो फांसी की सजा की विरोधी है। हर किसी फांसी के मौके पर उसका प्रतिरोध सामने आता है। यह केवल याकूब की बात नहीं है बल्कि धनंजय चटर्जी के मसले पर भी पूरे देश में इसी तरह से बहस खड़ी हुई थी। और याकूब के मामले पर सरकार का खुद पक्ष बहुत कमजोर था ऐसे में देश और समाज में उस पर दो राय बननी स्वाभाविक थी। 

अगर ऐसा नहीं होता तो तीन बजे रात में सुप्रीम कोर्ट की पीठ को नहीं बैठना पड़ता। ऐसे में उस पर बहस को सीधे कैसे देशद्रोह करार दिया जा सकता है। क्या ऐसे लोग जो फांसी के विरोधी हैं सब को देशद्रोही मान लिया जाए? या फिर उन्होंने जीने का अधिकार खो दिया है। और कहीं भी कभी भी उनकी हत्या की जा सकती है? हम किसी आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में रह रहे हैं या फिर मध्ययुग के बर्बर सामंती दौर में पहुंच गए हैं। यह कार्रवाई बिल्कुल ही छात्रों के बीच विवाद के मसले पर हुई थी। उसको वहीं तक सीमित रखा जाए। बाकी उसे सांप्रदायिक रंग देने की साजिश सवर्णों के एक हिस्से द्वारा की जा रही है जो घोर दलित और मुस्लिम विरोधी होने के साथ बीजेपी समर्थक हैं।

(लेखक टीवी पत्रकार हैं)

ROHIT VEMULA: SC/ST फैकल्टी ने किया आंदोलन का समर्थन, 10 ने दिया इस्तीफा


प्रेस विज्ञप्ति में की स्मृति ईरानी के हालिया बयान की निंदा। प्रदर्शनकारियों के समर्थन में उतरे फैकल्टी के सदस्य।    

वनांचल न्यूज नेटवर्क

नई दिल्ली/हैदराबाद। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के छब्बीस वर्षीय शोधार्थी रोहित वेमुला चक्रवर्ती की खुदकुशी के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों के समर्थन में विश्वविद्यालय के एससी/एसटी वर्ग के शिक्षक भी कूद पड़े हैं। विभिन्न पदों पर कार्यरत करीब एक दर्जन प्रोफेसरों ने विश्वविद्यालय के सभी प्रशासनिक पदों से इस्तीफा दे दिया है। साथ ही उन्होंने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री स्मृति ईरानी पर देश को गुमराह करने का आरोप लगाया है। उन्होंने विज्ञप्ति में ईरानी के उस वक्तव्य की कड़े शब्दों में निंदा की है जिसमें कहा गया है कि विश्वविद्यालय की दलित फैकल्टी उस जांच कमेटी का हिस्सा थी, जिसके आधार पर रोहित वेमुला और उसके अऩ्य चार साथियों के खिलाफ कार्रवाई की गई है। 


पत्रकारों से बाचतीत में विश्वविद्यालय के विद्यार्थी कल्याण के डीन और एससी/एसटी टीचर्स एवं ऑफिसर्स फोरम के सदस्य प्रकाश बाबू ने कहा, ''मंत्री राष्ट्र को गुमराह कर रही हैं। हम उस प्रशासन के अंतर्गत कार्य नहीं करेंगे जिसके कार्यकारी परिषद में विश्वविद्यालय की स्थापना से दलितों का प्रतिनिधित्व नहीं है।"

डॉ. रविन्द्र कुमार और एस. सुधाकर बाबू के हस्ताक्षर वाली प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि हम दलित फैकल्टी पूरी तरह से केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री स्मृति ईरानी के उस बयान की निंदा करते हैं। हम उनके उस बयान पर आपत्ति हैं जो उन्होंने नई दिल्ली में गत 20 जनवरी को दोपहर करीब तीन बजे पत्रकार वार्ता के दौरान दिया था। प्रेस विज्ञप्ति में लिखा है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि केंद्रीय मंत्री ने मामले में तथ्यों को गलत ढंग से पेश किया और कहा कि विश्वविद्यालय के सबसे वरिष्ठ प्रोफेसर छात्रों के निलंबन का निर्णय लेने वाली कार्यकारी परिषद की उप-समिति के मुखिया थे। उस समिति के मुखिया उच्च वर्ग के प्रोफेसर विपिन श्रीवास्तव थे और कार्यकारी परिषद की उप-समिति में दलित वर्ग का कोई सदस्य नहीं था। यह एक संयोग है कि छात्र कल्याण के डीन दलित वर्ग से हैं और समिति के एक्स ऑफिसियों सदस्य के रूप में उन्हें शामिल किया गया। 

दलित प्रोफेसर्स एसोसिएशन ने कहा है कि 50 से 60 फैकल्टी सदस्य प्रशानिक पदों से इस्तीफा देंगे। रिलीज में कहा गया है कि इस मामले को गलत तरफ मोड़कर ईरानी खुद को और बंडारू दत्तात्रेय को रोहित वेमुला की मौत की जिम्मेदारी लेने से बचाने की कोशिश कर रही हैं। उन्होंने कहा था कि रोहित वेमुला के सुसाइड नोट में किसी अधिकारी या सांसद का नाम नहीं था। फैकल्टी ने रिलीज में कहा कि ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि माननीय मंत्री जी ये कहते हुए देश को गुमराह कर रही हैं कि होस्टल वॉर्डन के पास छात्रों को निकालने का अधिकार है। प्रेस रिलीज में कहा गया कि, 'माननीय मंत्री जी के मनगढ़ंत बयानों के जवाब में हम दलित फैकल्टी और अधिकारी अपने पदों से इस्तीफा देंगे।' प्रेस रिलीज में कहा गया है कि दलित फैकल्टी प्रदर्शन कर रहे छात्रों के साथ है। उसमें लिखा है, 'हम रोहित वेमुला की मौत के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे छात्रों के साथ हैं और अपने छात्रों के निलंबन और उनके खिलाफ पुलिस में दर्ज सभी मामलों को वापस लेने की मांग करते हैं।

पिछले साल अगस्त में रोहित सहित पांच दलित छात्रों को एबीवीपी के कार्यकर्ताओं से झड़प के बाद निलंबित कर दिया गया था। यह सब दिल्ली विश्वविद्यालय में 'मुजफ्फरनगर बाकी है' वृत्तचित्र की स्क्रीनिंग पर एबीवीपी के हमले के बाद शुरू हुआ। दलित छात्रों ने एबीवीपी के इस कदम की निंदा करते हुए इसके विरोध में कैम्पस में प्रदर्शन किया था। इसके बाद इन छात्रों को हॉस्टल से दिसंबर में निकाल दिया गया था। गत रविवार को रोहित वेमुला ने खुदकुशी कर ली।