दक्षिण के तरीकबन सभी प्रदेशों में सवर्णों को विस्थापित कर पिछड़ा तबका शासक
वर्ग बन गया है। इस या उस पार्टी के साथ सत्ता में रहता है। ऐसे में सत्ता का
ख्वाब देखने वाली किसी भी दक्षिणपंथी पार्टी के लिए पिछड़ा तबका उसका स्वाभाविक
आधार होगा। बीजेपी की भी इसी हिस्से पर नजर है लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है...
महेंद्र मिश्रा
बहुत दिनों से यह खिचड़ी पक रही थी। पूरा परिवार इसको पकाने में जुटा था। तिल
को ताड़ एक खास मकसद से बनाया गया । दो छात्रों के बीच की एक मामूली लड़ाई अनायास
ही नहीं दिल्ली पहुंच गई। देखते ही देखते दो-दो केंद्रीय मंत्री शामिल हो गए।
एचआरडी मंत्रालय से तीन महीने के भीतर चार-चार रिमाइंडर भेज दिए गए। स्थानीय
बीजेपी विधायक इसकी अगुवाई करने लगा। परिसर कब सड़क और बाहर की राजनीति से जुड़
गया पता ही नहीं चला। दरअसल इस बीरबली खिचड़ी पर बड़ा दांव लगा था। उत्तर भारत में
संघ-बीजेपी की पकड़ मजबूत हो गयी है। लेकिन दक्षिण भारत अभी भी उसकी पहुंच से दूर
है। हालांकि कर्नाटक में बीजेपी का आधार जरूर है। लेकिन आंध्रा,
तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल में पैर रखने के लिए उसे जमीन की तलाश है।
ऐसे में दक्षिण की इस भूख को पूरा करने में यह खिचड़ी बेहद मददगार साबित होती।
सूबे के बंटवारे के बाद तेलंगाना में टीआरएस और आंध्रा में टीडीपी का शासन है।
तेलंगाना से हटकर टीडीपी का केंद्रीकरण अब आंध्र प्रदेश में हो गया है। ऐसे में
उसका पुराना आधार और सूबे के गठन के संक्रमण से पैदा हालात बीजेपी के लिए नये मौके
मुहैया कराते हैं। जिसमें वह अपने लिए एक नई जमीन तैयार कर सकती है। आम तौर पर
बीजेपी का अपना विश्वसनीय आधार सवर्ण तबका होता है। लेकिन दक्षिण में पिछड़ों के
सशक्तीकरण ने इस तबके को राजनीतिक तौर पर अप्रासंगिक बना दिया है। या फिर इसकी
इतनी संख्या नहीं है कि उस पर पारी खेली जा सके। दक्षिण के तरीकबन सभी प्रदेशों
में सवर्णों को विस्थापित कर पिछड़ा तबका शासक वर्ग बन गया है। इस या उस पार्टी के
साथ सत्ता में रहता है। ऐसे में सत्ता का ख्वाब देखने वाली किसी भी दक्षिणपंथी
पार्टी के लिए पिछड़ा तबका उसका स्वाभाविक आधार होगा। बीजेपी की भी इसी हिस्से पर
नजर है लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है।
हैदराबाद समेत कुछ शहरों में मुस्लिम तबके
के खिलाफ सांप्रदायिक गोलबंदी से भले ही कुछ माहौल बन जाए लेकिन ठोस आधार बन पाना
मुश्किल है। गांवों और सुदूर इलाकों के लिहाज से यह हथियार कारगर नहीं है। यह
प्रकरण उसी की तलाश है। दरअसल वंचित जातियों के सशक्तीकरण के बावजूद दक्षिण में
अभी भी पिछड़ों और दलितों के बीच एक गहरा अंतरविरोध है। बीजेपी इसका ही इस्तेमाल
कर पिछड़ों में अपनी पैठ बनाना चाहती है। अनायास ही नहीं उसने किसी और की जगह
बंडारू दत्तात्रेय का चेहरा आगे किया। जो एक पिछड़ी जाति से आते हैं। और घटना के
बाद पार्टी उसे बढ़-चढ़ कर प्रचारित करने में लगी है। नहीं तो एचआरडी मंत्री
स्मृति ईरानी को अपने पहले ही संवाददाता सम्मेलन में दत्तात्रेय की जाति बताने की
क्या जरूरत पड़ गई? इतना ही नहीं उन्होंने शुरुआत भी सुशील कुमार की जाति बताने
के साथ ही किया ।
इस देश में जातीय उत्पीड़न की घटनाएं अक्सर होती हैं। लेकिन यह पहली ऐसी घटना
है जिसमें सीधे तौर पर सत्ता और उसकी सवारी करने वाले लोग शामिल हैं। रोहित ने
आत्महत्या नहीं की बल्कि सत्ता के इन बहेलियों ने उसे घेर कर मारा है। इस वाकये ने
उच्चशिक्षण संस्थानों, सत्ता प्रतिष्ठानों और पूरी व्यवस्था के ब्राह्मणवादी चेहरे
को नंगा कर दिया है। इस घटना ने यह साबित कर दिया कि यह उत्पीड़न गांव की दलित
बस्तियों तक सीमित नहीं है। उच्च शैक्षणिक संस्थाएं भी इन्हीं का विस्तार हैं। संघ
अपने इन सामंती किलों को और मजबूत करने में जुट गया है। हैदराबाद विश्वविद्यालय से
लेकर बीएचयू और इलाहाबाद से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय और जेएनयू से लेकर अलीगढ़
और जामिया में आये दिन सरकार की दखलंदाजी इसी के प्रमाण हैं।
घटना के बाद विपक्षी
दलों पर राजनीति करने का आरोप लगाया जा रहा है। लेकिन अभी तक बीजेपी-संघ-परिषद ने
जो किया उसे किस श्रेणी में रखा जाएगा? और अगर इस देश में कानून नाम की कोई चिड़िया है और वह काम
भी करती है तो रोहित की आत्महत्या के मामले में अब तक सक्रिय क्यों नहीं हुई?
खुदकुशी के लिए मजबूर करने वाले जेल क्यों नहीं भेजे गए?
इस मामले में केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय के खिलाफ
थाने में एफआईआर दर्ज है। और कानून व्यवस्था का मामला भी राज्य का होता है। ऐसे
में सूबे की पुलिस की क्या यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह बंडारू समेत सभी
आरोपियों की गिरफ्तारी की पहल करे?
बीजेपी और उसके समर्थक याकूब मेमन मामले से जोड़कर इसे सांप्रदायिक रंग देना
चाहते हैं। लेकिन उन्हें इस बात को जरूर समझना चाहिए कि इस देश में किसी भी नागरिक
को किसी भी मसले पर अपनी राय रखने की पूरी छूट है। इस देश में एक बड़ी संख्या है
जो फांसी की सजा की विरोधी है। हर किसी फांसी के मौके पर उसका प्रतिरोध सामने आता
है। यह केवल याकूब की बात नहीं है बल्कि धनंजय चटर्जी के मसले पर भी पूरे देश में
इसी तरह से बहस खड़ी हुई थी। और याकूब के मामले पर सरकार का खुद पक्ष बहुत कमजोर
था ऐसे में देश और समाज में उस पर दो राय बननी स्वाभाविक थी।
अगर ऐसा नहीं होता तो
तीन बजे रात में सुप्रीम कोर्ट की पीठ को नहीं बैठना पड़ता। ऐसे में उस पर बहस को
सीधे कैसे देशद्रोह करार दिया जा सकता है। क्या ऐसे लोग जो फांसी के विरोधी हैं सब
को देशद्रोही मान लिया जाए? या फिर उन्होंने जीने का अधिकार खो दिया है। और कहीं भी कभी
भी उनकी हत्या की जा सकती है? हम किसी आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में रह रहे हैं या फिर
मध्ययुग के बर्बर सामंती दौर में पहुंच गए हैं। यह कार्रवाई बिल्कुल ही छात्रों के
बीच विवाद के मसले पर हुई थी। उसको वहीं तक सीमित रखा जाए। बाकी उसे सांप्रदायिक
रंग देने की साजिश सवर्णों के एक हिस्से द्वारा की जा रही है जो घोर दलित और
मुस्लिम विरोधी होने के साथ बीजेपी समर्थक हैं।
(लेखक टीवी पत्रकार हैं)
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