मोहद की घटना का असली नायक सुभाष कोली है. अगर सुभाष पुलिस की साजिश का भंडाफोड़ नहीं करते तो हिंदुत्व अपने प्लैंक पर कामयाब हो चुका था और इसके साथ ही उन 15 लड़कों का भविष्य भी दांव पर लग जाता.
शरद जायसवाल
बुरहानपुर
जिले के मोहद गाँव के 15 लड़कों पर से राजद्रोह का मुकदमा हटाकर सांप्रदायिक
सौहार्द बिगाड़ने का मुकदमा कायम किया जाना यह बताता है कि इस घटना के गंभीर सियासी
निहितार्थ हैं। हिन्दुस्तान के बटवारे के बाद से ही हिंदुत्व लगातार इस बात को
प्रचारित और प्रसारित करता रहा है कि यहाँ के मुसलमानों की सहानभूति और
प्रतिब्द्ता पाकिस्तान के साथ है.
संघ परिवार गोएबल्स की उस रणनीति पर शुरू से काम
कर रहा है कि अगर एक झूठ को सौ बार बोला जाए तो जनता उसे सच मान लेती है. इसी प्रयोग
को उसनें बड़ी चतुराई के साथ भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाले क्रिकेट मैच के
दरम्यान भी इस्तेमाल किया है. मध्य प्रदेश के एक गाँव मोहद की घटना इस मायने में
अलग है कि पहली बार खुद राज्य हिंदुत्व के इस तर्क को कि देश के मुसलमानों की सहानभूति
पाकिस्तान के साथ है, को वैधता प्रदान कर
रहा है. यह घटना जाहिर करती है कि भारतीय राज्य के अन्दर मुसलमानों को देशद्रोही
बताने को लेकर कितना ज्यादा उतावलापन है. मोहद की घटना से पहले तक मुसलमानों को
देशद्रोही कहने के लिए आतंकवाद के मामले में फंसाया जाता था,
लेकिन पहली बार राज्य के द्वारा क्रिकेट के बहाने मुसलमानों को देशद्रोही बताया जा
रहा है.
हिन्दुत्व
की इन साज़िशों का पर्दाफाश भी हो चुका है। जब कर्नाटका के बीजापुर के पास श्री राम
सेना के कुछ कार्यकर्ताओं को पुलिस ने पाकिस्तानी झण्डा फहराने के जुर्म में पकड़ा
था। पहले तो श्री राम सेना के कार्यकर्ताओं ने पाकिस्तान का झण्डा फहराया और घटना
के अगले दिन आरोपियों की गिरफ्तारी न होने के चलते प्रशासन के खिलाफ धरना भी दिया।
जब पुलिस ने इस घटना में संलिप्त श्री राम सेना के 6 कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार
किया तो श्री राम सेना के प्रमुख प्रमोद मुतालिक ने बयान दिया कि इस घटना में
हमारे कार्यकर्ताओं की कोई भूमिका नहीं है,
बल्कि इस साजिश में आरएसएस के लोग शामिल हैं।
पिछले
कुछ सालों में कई ऐसी घटनाएँ हुईं हैं जिसमें कश्मीर के उन मुस्लिम विद्यार्थियों को निशाना बनाया गया, जो कश्मीर
से बाहर रहकर पढ़ रहे हैं. 23 फरवरी 2014 को भारत पाकिस्तान मैच के दरम्यान पाकिस्तान
के समर्थन में नारे लगाने के आरोप में मेरठ के स्वामी विवेकानन्द सुभारती
यूनिवर्सिटी के 67 कश्मीरी छात्रों को पहले सस्पैंड किया गया और फिर उन पर
राजद्रोह का मुकदमा कायम किया गया। हालांकि बाद में सबूतों के अभाव में राजद्रोह
का मुकदमा हटा लिया गया। इन कश्मीरी लड़कों के कमरों में पथरबाजी की गयी। घटना के कुछ
समय के बाद कई सारे लड़के कालेज छोड़कर वापस कश्मीर लौट गए। इस घटना के बिलकुल
आस-पास इसी आरोप के चलते ग्रेटर नोएडा के शारदा युनिवर्सिटी के 4 कश्मीरी लड़कों को
हॉस्टल से निकाला गया। हरियाणा में तो भारत पाकिस्तान मैच के दरम्यान कई ऐसी घटनाएँ
हुई हैं, जब संगठित हिन्दुत्व ने कश्मीरी छात्रों पर हमला किया है। दरअसल
हिन्दुत्व के लिए कश्मीर के लोगों को पाकिस्तान के साथ जोड़ना बहुत मुश्किल नहीं है
लेकिन पिछले कुछ एक सालों में हिन्दुत्व ने अपनी इस रणनीति का विस्तार कश्मीर से
इतर देश के दूसरे हिस्सों में भी किया है।
भोजपुर
(बिहार) जिले के पीरो में 12 अक्तूबर 2016 को सांप्रदायिक हिंसा को अंजाम दिया
गया। मुसलमानों के ताजिया जुलूस पर होने वाली पत्थरबाजी को वैधता देने के लिए
पाकिस्तान के समर्थन में होने वाली नारेबाजी का तर्क गढ़ा गया। इस हिंसा में
मुसलमानों की कई दुकानों को जलाया गया,
कई सारे लोग घायल हुए। (इस घटना को विस्तार से देखने के लिए ‘बिहार: पूर्वनियोजित थी पीरो में हुई सांप्रदायिक हिंसा–
शरद जायसवाल व लक्ष्मण प्रसाद की रिपोर्ट’ को
जनराजनीती.कॉम पर देखा जा सकता है।)
मोहद की तर्ज पर ही 20 जून 2017 को चैम्पियन्स ट्रॉफी के
फ़ाइनल मैच में पाकिस्तान के समर्थन में नारेबाजी करने के जुर्म में तीन नाबालिग
लड़कों को उत्तराखंड के मंसूरी से गिरफ्तार किया गया था। दरअसल यह गिरफ्तारी
हिंदुत्ववादी संगठनों के द्वारा थाने में दी गयी तहरीर के आधार पर हुई थी. ठीक इसी
आरोप के चलते तीन लड़कों की गिरफ्तारी उज्जैन जिले के खमरिया गाँव से भी हुई थी. हिंदुत्व
का यह प्रयोग सिर्फ हिंदी भाषी राज्यों तक सीमित नहीं है, बल्कि अखिल भारतीय स्तर पर इसे अमल में लाया जा रहा है. चैंपियन्स
ट्राफी के मैच के दरम्यान कई गिरफ्तारियां उन राज्यों में भी हुईं, जहाँ पर गैर भाजपाई सरकारें हैं. मसलन दक्षिणी कर्नाटका के कोडागु के
होसाकोटे गाँव से 4 लड़कों को, कुर्ग पुलिस ने 3 लड़कों को, केरल में बड़िया डुक्का पुलिस ने 23 लोगों को व केरल में ही कसरगोड के पास
चक्कूडल कुंबदाजे से 20 लोगों को गिरफ्तार किया गया। मजेदार बात यह है कि इन सारी
गिरफ्तारियों के पीछे हिंदुत्ववादी संगठनों का दबाव काम कर रहा था। इन
गिरफ्तारियों के लिए बाकायदा धरना प्रदर्शन व सम्बंधित थाने में मुकदमा भी दर्ज
कराया गया था। अब हिन्दुत्व के लिए यह जरूरी नहीं रह गया है कि इस तरह की साज़िशों
को वहीं रचा जाएगा, जहां पर उनकी अपनी सरकार है। इसलिए हमें
हिन्दुत्व और बीजेपी के बीच के रिश्तों और फर्क की भी ईमानदारी से पड़ताल करनी
होगी। बहुसंख्यक समाज के बीच में सांप्रदायिक विचारधारा की जड़ें इस कदर पैठ कर गयी
हैं कि एक सेकुलर सरकार को भी हिन्दुत्व के सामने नतमस्तक होना ही होगा या एक
सेकुलर सरकार की सेकुलरिज्म को लेकर कमजोर प्रतिबद्धता के रूप में भी इसे देखा जा
सकता है।
बुरहानपुर
पुलिस के द्वारा 15 मुसलमानों की गिरफ्तारी, अगले दिन कोर्ट के
अंदर ‘राष्ट्रवादी’ वकीलों के द्वारा
यह कहना कि देश विरोधी लोगों का केस कोई नहीं लड़ेगा, कोर्ट
के बाहर हिन्दुत्ववादी संगठनों का नारेबाजी करना और हर बार की तरह इस बार भी मीडिया
के द्वारा उन पंद्रह लोगों को कटघरे में खड़ा करने की रणनीति यह बताती है कि एक
घटना जिसकी स्क्रिप्ट पहले से तैयार थी। हिन्दुत्व ने अपने एजेंडे के लिए जो श्रम
विभाजन किया, उसके अनुसार कहानी के सभी पात्रों ने पूरी
मेहनत और लगन से अपनी-अपनी भूमिकाएँ अदा कीं। सरकार, पुलिस, मीडिया, हिन्दुत्ववादी
संगठन, न्यायपालिका सभी संगठित हिंदुत्व से पर्याप्त दिशा निर्देश लेते हुए आगे बढ़
रहे थे और बुरहानपुर में सफलता मिलने ही वाली थी. लेकिन सुभाष कोली नाम के व्यक्ति
ने संगठित हिंदुत्व के मंसूबों पर पानी फेर दिया. मोहद गाँव में रची गयी साजिश के
केंद्र में प्रत्यक्ष तौर पर कोई हिन्दुत्ववादी संगठन शामिल नहीं था. बल्कि पुलिस
की अगुवाई में यहाँ पर एक साजिश को अंजाम दिया गया था। हिन्दुत्ववादी पुलिस ने जिस
व्यक्ति को इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी व गवाह बताया, उसी
सुभाष कोली ने पुलिस के द्वारा गढ़ी गयी कहानी पर सवाल खड़ा कर दिया. पुलिस की और
ज्यादा भद्द पिटती इससे पहले ही घटना के मुख्य साजिशकर्ता टीआई संजय पाठक का तबादला कर दिया गया. इस
तबादले के बाद भी बुरहानपुर के आला पुलिस अधिकारियों ने कहा कि टीआई संजय पाठक का
तबादला मोहद की घटना की वजह से नहीं बल्कि किसी दूसरे मामले के चलते किया जा रहा
है. स्क्रॉल.इन में छपी एक स्टोरी में भी भोपाल में बैठे पुलिस के उच्च अधिकारियों के हवाले से कहा गया है कि ‘टीआई
पाठक को इसलिए सज़ा नहीं दी गई कि उन्होने कोई फर्जी केस गढ़ा है
बल्कि इसलिए दी गई है कि उन्होने सही शिकायतकर्ता का चुनाव नहीं किया है। उनका ये
गलत चुनाव ही पुलिस को महंगा पड़ा’।
इस पूरी घटना में टीआई संजय पाठक की भूमिका तब
और संदिग्ध हो गयी, जब थाने में बंद 15 लड़कों में से एक लड़के ने ये कहा कि मोहद के स्थानीय
बीजेपी नेता ने पाठक को दो हज़ार रूपये की तीन से चार गड्डी दी थी। इस संबंध में एक
खबर हिन्दी के एक दैनिक अखबार में प्रकाशित हुई थी। यह भी कहा गया कि क्योंकि पाठक
की पहुँच सीधे आरएसएस के बड़े नेताओं से है इसलिए पुलिस के बड़े आलाधिकारी भी उसके
खिलाफ बोलने से कतरा रहे हैं।
सुभाष
कोली के सामने आने के बाद इस घटना में कुछ भी छुपा नहीं रह गया था। और एक मात्र
विपक्ष यानि कांग्रेस के लिए मैदान बिलकुल साफ था। हमने जब नागरिक समाज के
नुमाइंदों (खास तौर पर मुसलमानों) से इस बारे में जानने की कोशिश की कि घटना के
बाद विपक्ष अथवा कांग्रेस की क्या भूमिका है? उन सभी का कहना था
कि काँग्रेस हमें पीछे से सहयोग कर रही है। काँग्रेस का इस मुद्दे पर चोरी छिपे
मुसलमानों के साथ खड़े होने का मतलब यही है कि एक सेकुलर पार्टी यह नहीं चाहती है
कि इसकी तनिक भी भनक हिंदुओं को लगे। क्योंकि अगर हिंदुओं को गलती से भी मालूम पड़
गया कि इस मुद्दे पर काँग्रेस मुसलमानों का साथ दे रही है तो उसका हिन्दू वोट दूर
जा सकता है। यह काफी मजेदार इसलिए है कि देश की सबसे बड़ी सेकुलर पार्टी अब चोरी
छिपे सेकुलरिज्म को बचाए रखना चाहती है। जबकि सांप्रदायिक ताक़तें खुलकर नंगा नाच
कर रही हैं। इस पूरी घटना का सबसे दुखद पहलू यह है कि खुद मुस्लिम समाज के बड़े
हिस्से में भी इस बात को लेकर एक आम सहमति बन चुकी है कि अगर हमने या काँग्रेस ने
इस घटना (मोहद) को उठाया तो इसका फायदा भी बीजेपी को ही मिलेगा क्योंकि तब बीजेपी
के लिए सांप्रदायिक आधार पर गोलबंदी करना ज्यादा आसान होगा। यह आम धारणा पूरे देश के
पैमाने पर दिखती है। देश की सेकुलर पॉलिटिक्स ने मुसलमानों के बीच इस बात के लिए
सहमति निर्मित कर ली है कि अगर हम आपके सवालों को उठाएंगे तो इसका फायदा बीजेपी को
ही होगा। इसे मॉब लिंचिंग की तमाम सारी घटनाओं में भी देखा जा सकता है. इसलिए देश
के मुसलमानों के पास इस तंत्र पर या भाग्य पर भरोसा करने के सिवाय कोई अन्य विकलप
नहीं है। खुद मुस्लिम समाज के द्वारा इस घटना के इर्द गिर्द होने वाली पूरी सियासत
मेमोरंडम देने या कोर्ट में पीआईएल करने तक ही सीमित हो चुकी है।
मोहद
गाँव से पुलिस के द्वारा जिस तरह से 15 मुस्लिम लड़कों को गिरफ्तार किया गया व कुछ और
नहीं बल्कि पुलिस के द्वारा गाँव में घुसकर मुसलमानों पर किया गया हमला था। क्योंकि
पुलिस उन्हें उनके घर से घसीटते और मारते पीटते हुए थाने में लायी. कई सारे लड़कों
को दाढ़ी और टोपी देखकर, बिना उनका नाम पूछे ही पुलिस उठा ले गयी। थाने में लाने के साथ एक बार
फिर से उनकी बेरहमी से पिटाई की गयी. थाने में पुलिस ने जिस भाषा का प्रयोग इन 15
पीड़ितों के साथ किया कि ‘तुम्हारी कौम को ख़त्म कर दिया जाएगा’, ‘बीपीएल कार्ड को
ख़त्म कर दिया जाएगा’, ‘एक रूपए का अनाज खाते-खाते मस्ती आ गयी है’, ‘तुम्हारी माँ
के साथ सोने के लिए पाकिस्तान से लोग आये थे’. यह भाषा सिर्फ पुलिस के सांप्रदायिक
चरित्र को ही उजागर नहीं करती है बल्कि कल्याणकारी राज्य से लाभान्वित होने वाले
तबके के प्रति उनके अन्दर व्याप्त नफरत को भी उजागर करती है. वो सारे नागरिक
अधिकार, जिसे भारतीय राज्य ने बमुश्किल और काफी जद्दोजेहद के
बाद इस देश की आम जनता को दिए थे। अब वही चीज़ें देश के मध्यम वर्ग की आँख का काँटा
बन चुकी हैं. लगभग इसी तरह की बहस उस समय भी हुई थी, जब
जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में कथित तौर पर राष्ट्रविरोधी नारे लगाये गए थे.
मीडिया के एक धड़े ने उस समय भी इसी बहस को चलाया था कि मध्यम वर्ग के द्वारा दिए गए
टैक्स से ही कल्याणकारी योजनाओं को संचालित किया जाता है और उसी पैसे से संचालित सरकारी
यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले छात्रों द्वारा देशविरोधी गतिविधियां संचालित होती हैं.
इसलिए ऐसे संस्थानों को बंद कर दिया जाना चाहिए. नवउदारवाद ने पिछले तीन दशकों में
एक ऐसी पीढ़ी को तैयार किया है जो न केवल कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से नफरत करता
है बल्कि इन योजनाओं से लाभान्वित होने वाले वंचित समूह से भी बेपनाह नफरत करता है.
मोहद
की घटना देश भर में मुसलमानों के साथ हो रही सांप्रदायिक हिंसा की एक कड़ी मात्र
है। फर्क सिर्फ इतना है कि यहाँ पर हिन्दुत्व को डिफ़्फ़ेंसिव होना पड़ा और वह भी
सिर्फ सुभाष कोली के चलते। मोहद की घटना का असली नायक सुभाष कोली है. अगर सुभाष
पुलिस की साजिश का भंडाफोड़ नहीं करते तो हिंदुत्व अपने प्लैंक पर कामयाब हो चुका
था और इसके साथ ही उन 15 लड़कों का भविष्य भी दांव पर लग जाता. पुलिस की तरफ से
मिलने वाली धमकियों के बावजूद वह अकेले उन पंद्रह लड़कों के पक्ष में खड़ा रहा. आज
के समय में ऐसी मिसाल बहुत मुश्किल से नज़र आती है. यह घटना बताती है कि यदि
बहुसंख्यक समाज का कोई व्यक्ति किसी घटना विशेष के सन्दर्भ में इमानदारी और
प्रतिबद्ता के साथ सांप्रदायिक साजिशों के खिलाफ खड़ा होता है तो ये हिंदुत्व के
लिए मुश्किल भरा हो सकता है.
सुभाष कोली को सलाम........
(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा, महाराष्ट्र में सहायक प्राध्यापक हैं। उनसे 09561513705 पर संपर्क किया जा सकता है। )
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