बुधवार, 20 जनवरी 2016

रोहिथ वेमुलाः अपने शब्दों के साथ हमें अकेला छोड़ दिया


(सांप्रदायिक और ब्राह्मणवादी ताकतों के खिलाफ आंदोलनरत हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहिथ वेमुला की आत्महत्या पर यह लेख द हिंदू में प्रकाशित है। इसे अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया है रेयाज उल हक ने। उन्हीं के ब्लॉग हाशिया से यह लेख लिया गया है। - संपादक)

मीना कंदसामी

एक दलित छात्र की खुदकुशी बच निकलने की एक अकेले इंसान की हिकमत नहीं होती, यह उस समाज को शर्मिंदा करने की कार्रवाई होती है, जो उसके साथ खड़े न रह सका. रोहिथ वेमुला की मौत उनके द्वारा जातिवादी, सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ चलाए जा रहे एक संघर्ष के एक ऐसे उदासी भरे अंजाम के रूप में सामने आई है, जिसका पहले से अंदाजा नहीं लगाया जा सकता था. उन पांच दलित अध्येताओं में से एक रोहिथ अपने आखिरी पल तक मजबूती से डटे रहे, जिन्हें दक्षिणपंथी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्धी परिषद द्वारा लगाए गए आरोपों पर हैदराबाद विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया था. यहां तक कि मौत की तरफ धकेले जाते हुए भी रोहिथ अपने सबसे जुझारू छात्रों की असुरक्षाओं को हमें दिखाते गए, और हमारी शैक्षिक व्यवस्था की असली दशा को भी उजागर किया: दलित छात्रों को निकालने के दशकों पुराने इतिहास वाला एक वाइस चांसलर, दक्षिणपंथी हिंदू ताकतों की तरफ से बदला लेने के लिए केंद्रीय मंत्रियों की भागीदारी, पूरी प्रशासनिक मशीनरी का शासक राजनीतिक दलों की कठपुतली बन जाना और सामाजिक बेपरवाही के त्रासद नतीजे.

इन पांच दलित छात्रों को निकाले जाने से बढ़ कर इसकी कोई कारगर मिसाल नहीं मिल सकती कि जाति व्यवस्था कैसे काम करती है. हालांकि उनके निकाले जाने की वजह से दलित बहुजन छात्र समुदाय के बीच में एकजुटता की भावना मजबूत हुई थी, लेकिन उनको निकाले जाने की कार्रवाई ने खौफनाक बातों की याद दिला दी थी. ठीक मनुस्मृति द्वारा अवर्णों (यानी दलितों) को जातीय दायरों से बाहर रहने के फरमान की तरह ही, इस सजा में ही वे सारे प्रतीक शामिल थे जिनमें जातीय सफाई की अवधारणा छुपी हुई है. 

शिक्षा अब अनुशासित करनेवाला एक उद्यम बन गई है, जो दलित छात्रों के खिलाफ काम कर रही है: वे लगातार रस्टिकेट कर दिए जाने, हमेशा के लिए निकाल दिए जाने, बदनाम हो जाने या पढ़ाई रुक जाने के खौफ में रहते हैं. एक ऐसे समाज में जहां छात्रों ने उच्च शिक्षण संस्थानों में पहुंचने के अपने अधिकार को आरक्षण की नीतियों की सक्षम बनाने वाली, सुरक्षा देने वाली धारणा के तहत यकीनी बनाने के लिए व्यापक संघर्ष किया है, किसी ने भी इस बात पर रोशनी डालने का साहस नहीं किया है कि इनमें से कितने छात्रों को इसकी इजाजत मिलती है कि वे डिग्री हासिल करके इन संस्थानों से लौटें, और कितनों को पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ती है और इस तरह वे अवसाद के स्थायी शिकार बन जाते हैं और कितने आखिरकार मौत के अंजाम तक पहुंचते हैं. रोहिथ वेमुला जैसे दलित छात्र एक डॉक्टरल डिग्री के लिए विश्वविद्यालयों में दाखिल हो पाते हैं, यही उनकी समझदारी, जिद और जातीय भेदभाव के खिलाफ उनके अथक संघर्ष की निशानी होती है, वह भेदभाव जो पहले दिन से ही उनको तबाह कर देने की कोशिश करता है.

जातीय वर्चस्व से भरी हुई पाठ्य पुस्तकें, अलगाव को और भी मजबूत कर देने वाला कॉलेज कैंपसों का माहौल, अपने प्रभुत्वशाली जातीय रुतबे पर गर्व करनेवाले सहपाठी, उनको एक बदतर भविष्य की तरफ धकेलने वाले शिक्षक जो इस तरह उनके नाकाम रहने की अपनी भविष्यवाणी को सच साबित करते हैं ये सब दलित छात्रों के लिए पार करने के लिहाज से नामुमकिन चुनौतियां हैं. बौद्धिक श्रेष्ठता के विचार में रंगी हुई जाति पर जब अकादमिक दुनिया के दायरों में पर अमल किया जाता है, तो वह जिंदगियों को खा जाने और जानें लेने वाला एक ज़हर बन जाती है. क्लासरूम जाति के खिलाफ प्रतिरोध और उसके खात्मे की जगहें बनने की बजाए उन लोगों की बेकाबू जातीय ताकत की दावेदारी बन जाते हैं जो द्विज होने और ज्ञान के संचरण के पवित्र धागों में यकीन करते हैं और जो अपनी पैदाइश से ही यथास्थिति को कायम रखने को मजबूर हैं.

बहिष्कार के डर से अपनी पहचान छुपाए रखनेवाले उत्पीड़ित पृष्ठभूमियों के उन थोड़े से छात्रों की असली पहचान उजागर होने पर सजा दी जाती है मिथकीय कर्ण की तरह उन्हें जानलेवा नाकामी का अभिशाप दिया जाता है. अपने बूते उभरनेवाले दलित छात्रों को, जिनकी पहचान सबके सामने पहले से ही जाहिर होती है और जो किंवदंतियों के एकलव्य बन जाते हैं, जिंदा छोड़ दिया जाता है लेकिन उन्हें अपनी कला को अमल में लाने में नाकाम बना दिया जाता है. ऐसा अकेले छात्रों के साथ ही नहीं होता, क्योंकि जातीय सत्ता के इन गलियारों में दलित-बहुजन फैकल्टी भी अलग-थलग कर दिए जाने का सामना करते हैं. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी), मद्रास में अपनी मां के संघर्ष को मैंने जितने आदर से देखा है, उतनी ही बेचारगी के साथ मैंने इस औरत को टूटते और बिखरते हुए भी देखा है, जिसे मैं प्यार करती हूं. अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों/अन्य पिछड़ा वर्गों के फैकल्टी मेंबरों का हमारे आईआईटी/भारतीय प्रबंधन संस्थानों और विश्वविद्यालयों में नाम भर का प्रतिनिधित्व इस जातीय भेदभाव को और बढ़ा देता है, क्योंकि इससे मिलती जुलती पृष्ठभूमियों से आने वाले छात्रों को एक ऐसा सहायता देने वाला समूह तक नहीं मिलता, जो उनकी मुश्किलों के बारे में सुन सके या उन्हें सलाह दे सके.

ब्राह्मणवादी प्रोफेसरों के एक इंटरव्यू पैनल के सामने, जिनकी अदावत एक फायरिंग दस्तों की याद दिलाती है, एक छात्र कैसे अपने बूते पर टिका रह सकता या सकती है? ये प्रोफेसर, जिन्होंने एक तरफ हो सकता है कि न्यूक्लियर फिजिक्स में महारत हासिल कर ली हो, लेकिन दूसरे तरफ अपने प्यारे जातीय पूर्वाग्रहों को पालते-पोसते रहते हैं. और ये अकादमिक दुनिया में जातीय आतंकवाद की समस्या के सिर्फ एक पहलू का ही प्रतिनिधित्व करते हैं. जब इसका मेल एबीवीपी जैसे दक्षिणपंथी राजनीतिक छात्र गिरोहों से होता है तो यह एक खतरनाक स्तर तक पहुंच जाता है.

हमारे विश्वविद्यालय आधुनिक कत्लगाह बन गए हैं. सभी दूसरे जंग के मैदानों की तरह, उच्च शिक्षा के संस्थान भी जातीय भेदभाव के साथ साथ दूसरी चीजों में भी महारत हासिल कर रहे हैं. वे छात्राओं और महिला फैकल्टी के यौन उत्पीड़न के लिए बदनाम हो चुके हैं, कहानियां जो दबा दी जाती हैं, कहानियां जिन्हें उन शिकायतकर्ताओं का चरित्र हनन करने के लिए तोड़-मरोड़ दिया जाता है जो विरोध करती हैं, आवाज उठाती हैं और जो अपने साथ धमकी से, मजबूरी से या जबरदस्ती सेक्स करने की किसी भी कोशिश को कारगर नहीं होने देतीं. ठीक जिस तरह से रोहिथ की खुदकुशी ने चुप्पियों को तोड़ते हुए जाति की हत्यारी पहचान उजागर की है, एक दिन हम उन औरतों की कहानियां भी सुनेंगे, जिन्हें इन एकाकी टापुओं से मौत के समंदर में ले जाया गया.

हमने हैदराबाद विश्वविद्यालय के मामले में जो देखा है वह जातीय श्रेष्ठता और राजनीतिक सहभागिता का खतरनाक मेलजोल है. छात्रों को धमकाने और दबाने में राज्य मशीनरी और खासकर पुलिस बल की भूमिका कैंपसों में दमन के एक पुराने और आजमाए हुए तरीके के रूप में स्थापित हुई है. आईआईटी मद्रास में आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल की मान्यता खत्म करने के बाद के दिनों में वर्दी वाले मर्द और औरतें कैंपस में हर जगह दिन रात मौजूद रहते थे और इसके दरवाजों की पहरेदारी करते थे. (यह फैसला काफी विरोध के बाद वापस लिया गया था.) अब इसी तरह हैदराबाद कैंपस में हथियारबंद पुलिस की ऐसी ही भारी तैनाती और धारा 144 के तहत कर्फ्यू लगा दिया गया है.

एक वादा जिस पर अमल करना है

रोहिथ, तुमने कार्ल सेगान की तरह एक विज्ञान लेखक बनने का अपना एक सपना अपने पीछे छोड़ा है और हमें सिर्फ अपने शब्दों के साथ अकेला कर गए हो. अब हमारे हर शब्द में तुम्हारी मौत का वजन है, हर आंसू में तुम्हारा अधूरा सपना है. हम धमाके को तैयार सितारों का वह समूह बन जाएंगे, जिसके बारे में तुमने बात की है, वह समूह जिसकी जबान पर जाति की इस उत्पीड़नकारी व्यवस्था की दास्तान होगी. इस मुल्क के हर विश्वविद्यालय में, हर कॉलेज में, हर स्कूल में, हमारे हर नारे में तुम्हारे संघर्ष का जज्बा भरा होगा. 

डॉ. आंबेडकर ने जाति को एक ऐसा शैतान बताया है, जो आप जिधर भी रुख करें आपका रास्ता काटेगा और भारतीय शैक्षिक संस्थानों के अग्रहारों के भीतर हमारी शारीरिक मौजूदगी में ही जाति के उन्मूलन के संदेश निहित होने चाहिए. अकादमिक दुनिया पर अपनी दावेदारी ठोकनेवाले एक दलित, एक शूद्र, एक आदिवासी, एक बहुजन, एक महिला से अपना सामना होने पर हरेक घिनौनी जातीय ताकत को घबराने दो, उन्हें इसका अहसास होने दो कि हम यहां पर एक ऐसी व्यवस्था का खात्मा करने आए हैं, जो हमें खत्म करने की पुरजोर कोशिश करती रही है, कि हम यहां पर उन लोगों के लिए बुरे सपनों की वजह बनने आए हैं, जिन्होंने हमसे हमारे सपनों को छीनने की हिम्मत की है. 

उन्हें इसका अहसास हो जाने दो कि वैदिक दौर, पवित्र ग्रंथों को सुन लेने वाले शूद्र के कानों में पिघला हुआ सीसा डालने का दौर, वंचित किए गए ज्ञान को अपनी जबान पर लाने का साहस करने वालों की जबान काट लेने का दौर बीत चुका है. उन्हें यह समझ लेने दो कि हमने शिक्षित बनने, संघर्ष करने और संगठित होने के लिए इन गढ़ों-मठों पर धावा बोला है; हम यहां मरने के लिए नहीं आए हैं. हम सीखने के लिए आए हैं, लेकिन जाति के शैतानों और उनके कारिंदों को यह बात समझ लेने दो कि हम यहां पर उन्हें एक ऐसा सबक सिखाने भी आए हैं, जिसे वे कभी भुला नहीं पाएंगे.

ROHIT VEMULA: जातिवादी एजेंडे की भेंट चढ़ा राहुल, देशव्यापी प्रदर्शन जारी


बंडारू और कुलपति के खिलाफ केस दर्ज। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पहुंचे हैदराबाद।

वनांचल न्यूज नेटवर्क

नई दिल्ली। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय का शोध छात्र रोहित वेमुला जातिवादी सियासतदानों की साज़िश की भेंट चढ़ गया और अब वे जांच कमेटियां बनाकर उसकी खुदकुशी से उठी आंदोलन की आवाज़ को दबाने की कोशिश में जुट गए हैं। वहीं दूसरी ओर विरोधी पार्टियों के नेता अपना उल्लू सीधा करने में लग गए हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी मंगलवार को धरनारत छात्रों से मिलने हैदारबाद पहुंचे और मृतक रोहित वेमुला के परिजनों से भी मिले। बसपा, तृणमूल कांग्रेस आदि पार्टियों ने अपने-अपने प्रतिनिधियों को हैदराबाद भेज दिया है तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी केंद्र की बीजेपी सरकार पर निशाना साधा। वहीं राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने कहा कि हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी भाजपा-आरएसएस के घोर-जातिवादी एजेंडे की साजिश का नतीजा है। 




दूसरी ओर हैदराबाद पुलिस ने दबाव में आकर रोहित के दोस्त प्रशांत की शिकायत पर केंद्रीय श्रम राज्य मंत्री बंडारू दत्तात्रेय, भाजपा विधायक एन रमाचंदर, विश्वविद्यालय के कुलपति पी. अप्पा राव और एबीवीपी (एचसीयू) अध्यक्ष एन सुशील कुमार के खिलाफ गचिबाउली पुलिस थाने में झूठा आरोप लगाने और आत्महत्या के लिए उकसाने की धारा के तहत मुकदमा पंजीकृत कर लिया है। साथ ही उसने रोहित वेमुला के शव का अंतिम संस्कार उनके परिजनों की सहमति के बिना ही कर दिया। वहीं केंद्रीय श्रम और रोजगार राज्य मंत्री दत्तात्रेय ने खुदकुशी के लिए उकसाने के आरोपों से इनकार कर दिया है। बंडारू दत्तात्रेय पर लगे आरोपों की जांच के लिए केंद्रीय शिक्षा मंत्री स्मृति इरानी ने जांच समिति का गठन किया है। मामले को लेकर देश के विभिन्न इलाकों में सोमवार को विरोध प्रदर्शन हुए।




दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने शोध छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी के मामले को ‘लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और समानता की हत्या’ करार दिया है। उन्होंने अपने ट्वीट में कहा, ‘‘यह आत्महत्या नहीं, हत्या है। यह लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और समानता की हत्या है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को मंत्रियों को निलंबित करना चाहिए और देश से माफी मांगनी चाहिए। केजरीवाल ने एक और ट्वीट में कहा, ‘‘दलितों का उत्थान मोदी सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है। इसके बावजूद मोदीजी के मंत्रियों ने पांच दलित छात्रों को बहिष्कृत व निष्कासित किया।"




उधर, कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने ट्वीट किया, "यह तो शुरूआत भर है। कुलपतियों का चयन भाजपा आरएसएस द्वारा किया जा रहा है। शिक्षा के बजाय उनकी रुचि एबीवीपी को बढ़ावा देने में है। सभी छात्र शाखाओं को परिसर में सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए एक साथ आना चाहिए।



गौरतलब है कि रोहित वेमुला और उसके चार साथियों को हैदराबाद केंद्रीय यूनिवर्सिटी ने पिछले साल के आखिरी सप्ताह में हॉस्टल से निकाल दिया था। इसके बाद वे विश्वविद्यालय के बाहर टेंट लगाकर धरना दे रहे थे। रविवार को रोहित ने खुदकुशी कर ली। रोहित वेमुला समेत सभी निष्कासित छात्र आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन से जुड़े थे। बंडारू दत्तात्रेय ने इस संगठन को जातिवादी और राष्ट्रविरोधी बताते हुए कार्रवाई लिए शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी को चिट्ठी लिखी थी।



मंगलवार, 19 जनवरी 2016

ROHIT VEMULA (HCU): विरोध की ये 18 तस्वीरें खोल रही हैं दिल्ली पुलिस, सरकार और मीडिया की पोल


वनांचल न्यूज नेटवर्क
नई दिल्ली। अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन के सदस्य और हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोध छात्र रोहित वेमुला के उत्पीड़न और खुदकुशी के विरोध में सोमवार को बिरसा, अंबेडकर, फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन (बाफसा), आइसा, एसएफआई, केवाईएस, एआइएसएफ, डीएसएफ, अखिल भारतीय जाति विरोधी मोर्चा आदि विभिन्न छात्र-संगठनों के हजारों कार्यकर्ताओं ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सामने जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किया। 

सोमवार, 18 जनवरी 2016

हैदराबाद विश्वविद्यालय के शोधार्थी ने की खुदकुशी, देश व्यापी प्रदर्शन


-केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय और स्मृति इरानी को बर्खास्त करने की मांग
-मृतक रोहित वेमुला को सात महीने से नहीं दी गई थी फेलोशिप।
-अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन से जुड़े हैं निष्कासित शोधार्थी।

वनांचल न्यूज नेटवर्क

नई दिल्ली। हैदराबाद विश्वविद्यालय के हास्टल से निकाले गए पांच शोधार्थियों में से एक शोधार्थी रोहित वेमुला ने रविवार को खुदकुशी कर ली। इसकी जानकारी होते ही यह खबर सोशल मीडिया पर वाइरल हो गई और लोगों का गुस्सा केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय और स्मृति इरानी के खिलाफ फूट पड़ा। लोग दत्तात्रेय के खिलाफ हत्या और एससीएसटी एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज करने तथा स्मृति इरानी को मानव संसाधन विकास मंत्री के पद से बर्खास्त करने की मांग कर रहे हैं। सोमवार को देश के विभिन्न इलाकों में इन दोनों समेत केंद्र सरकार के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन किये गए।

अंबेडकर स्‍टूडेंट्स एसोसिएशन से जुड़े इन दलित छात्रों को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक नेता पर कथित हमले के मामले में हैदराबाद यूनिवर्सिटी ने छात्रावास से निष्‍कासित कर दिया गया था। यहां तक कि विश्‍वविद्यालय के हॉस्‍टल, मैस, प्रशासनिक भवन और कॉमन एरिया में भी इनके घुसने पर रोक लगा दी गई थी। दलित छात्रों के इस 'बहिष्‍कार' के खिलाफ कई छात्र संगठन विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे और इस मुद्दे पर विश्‍वविद्यालय में काफी दिनों से विवाद चल रहा था। रोहित समेत पांचों छात्र अपने निष्‍कासन के खिलाफ कई दिनों से कैंपस में खुले आसमान के नीचे सो रहे थे।

रविवार को एक तरफ जहां दलित छात्रों के समर्थन में कई छात्र संगठनों का धरना चल रहा था, रोहित चुपके से यूनिवर्सिटी के एनआरएस हॉस्‍टल गए और खुद को एक कमरे में बंद कर खुदकुशी कर ली। बताया जाता है कि इससे पहले रोहित की विरोधी गुट के छात्रों के साथ तीखी बहस हुई थी। पुलिस के मुताबिक, रोहित के पास से पांच पन्‍नों का एक सुसाइड नोट बरामद हुआ है।  

इसमें उसने लिखा है कि उसे पिछले सात महीनों से फेलोशिप नहीं मिली है। उसके मरने के बाद यह धनराशि उसके माता-पिता को दे दी जाए। यह उसने अपने आखिरी पत्र (सूसाइड नोट) मे लिखा है। इसमें यह भी लिखा है कि वह ख्याति प्राप्त लेखक कार्ल सागान की तरह एक लेखक बनना चाहता था। 



उधर, नई दिल्ली स्थित शास्त्री भवन के सामने विभिन्न संगठनों के करी 1200 लोगों ने धरना प्रदर्शन किया और केंद्रीय मंत्री बंगारू दत्तात्रेय और स्मृति इरानी समेत मोदी सरकार के खिलाफ जमकर नारेबाजी की। दिल्ली पुलिस उनकी आवाज को दबाने के लिए पानी का बौछार किया लेकिन टैंकर का पानी खत्म हो गया लेकिन उनके हौसले कम नहीं हुआ। आखिरकार पुलिस को प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार करना पड़ा जिसमें एक छात्र गंभीर रूप से घायल हो गया। उसे इलाज के लिए अस्पताल ले जाया गया। वहीं चार बसों में भरकर छात्रों को थाने ले जाया गया। इसके बावजूद वहां करीब पांच सौ से ज्यादा छात्र एवं समर्थक वहां डटे रहे। पुलिस उन्हें लाठी का धौंस दिखाकर तितर-बितर कर दी। इतना ही नहीं छात्र-छात्राओं की आवाज को दबाने के लिए आधुनिक बंदूकों से लैस अर्द्धसैनिक बलों को बुलाया गया था। इसके बावजूद आइसा, एसएफआई, अखिल भारतीय जाति विरोधी मोर्चा, केवाईएस समेत अन्य छात्र संगठनों के छात्र डटे रहे। 

नोटः सुसाइड नोट पढ़ने के लिए नीचे क्लिक करें

रोहित वेमुला का सुसाइड नोट

पत्रकारिताः पहले मिशन, फिर प्रोफेशन और अब बनी 'सेवा'

महेंद्र प्रजापति

"त्रकारिता एक सेवा (सर्विस) है!" एक नया विषय सामने आया। सुनकर हैरानी हुई। पहले मिशन, फिर प्रोफेशन यहाँ तक तो ठीक था अब सेवा (समाजसेवा) सुनकर हैरानी तो होती ही है। दस वर्ष मुझे भी हो गए लेकिन किसी चेहरे की ऐसी कोई धुंधली तस्वीर भी नहीं आती जो कभी समाजसेवा में पत्रकारिता का इस्तेमाल किया हो। यहा तो दलालो की एक लंबी जमात है जो मिले तो समाज से ही सेवा ले लेंगे। कई चेहरे ऐसे भी है जो काफी प्रतिभावान ऊर्जावान लच्छेदार वक्तव्यों के धनी लेकिन पत्रकारिता को कोसते नजर आते है और पत्रकारिता की आड़ में अपने उल्टे सीधे व्यवसाय को चला रहे हैं। उनकी पहचान पत्रकारिता (बैनर) है और उसे हटा दे तो नमस्कार करने वाले भी नहीं मिले। फिर भी घमंड इतना कि जैसे बहुत बड़े समाजसेवी वही हैं।

दूसरी कटेगरी उनकी जो पुलिस और अधिकारियो की सेवा में लगे रहते है। उनकी हर प्रायोजित कार्यक्रम को बढ़ा चढ़ा कर कवरेज देना ही उनकी पत्रकारिता सेवा है। उनके दिलो में यह भाव इतना प्रबल है कि कभी कभी पुलिस की गलतियों पर फसती गर्दन को देख उन्हें शत प्रतिशत आश्वासन देते है कि ये खबर प्रसारित ही नही होगी। तीसरी कटेगरी उनकी जो किसी खबर पर तो नही होते लेकिन इस बात का इंतज़ार जरूर करते है कि किसी अधिकारी की प्रेस कांफ्रेंस कब है। सटीक जानकारी प्राप्त करते हुए समय से पूर्व अपनी सेवा देने पहुच जाते है और अधिकारी को इतना बड़ा सब्जबाग दिखाते है जैसे खबर तो उनके ही अनुसार छपेगी। कभी कभी लगता है ज्यादा जोश में बढ़ा चढ़ा कर लिखने के चक्कर में छेड़खानी को बलात्कार न लिख दे।


चौथी कटेगरी है मीन मेख निकालने वाले लोगो की..ये लोग अपनी पॉजिटिव ऊर्जा को निगेटिव कार्यो में लगाते हैं। दिन भर गलतिया ढूंढते है लेकिन गलती करने वाले को जब अंजाम तक पहुचाने की बारी आती है तो सहृदय हो जाते है और समाज में गन्दगी फ़ैलाने का उन्हें एक मौका और देते हैं अब इसे कौन सी सेवा कही जाय? कटेगरी और भी है लेकिन विषय "पत्रकारिता सेवा" का था तो अब ऐसे पत्रकार गुमनामी के अंधेरे में चले गए जो वास्तव में समाज को कुछ देना चाहते है।जितना बड़ा बैनर उतने बड़े दलाल का चेहरा सामने आता है।

अच्छी बाते करना आसान है लेकिन अच्छे कार्य महान बनाते है जो वास्तव में पत्रकारिता से समाज की सेवा करते है ऐसे कई चेहरे है जो सार्वजनिक नही होना चाहते और न ही किसी मंच से सम्मानित होने की लालसा रखते है। छपास के रोगी पत्रकारो के वजह से पत्रकारिता का स्तर लगातार गिर रहा है। सस्ती लोकप्रियता के लिए इस क्षेत्र में युवा पीढ़ी काफी आकर्षित है पत्रकारिता के ग्लैमर को देख कर आया युवा अब किस प्रकार की सेवा देगा इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है। 
( महेंद्र प्रजापति उत्तर प्रदेश में मुगलसराय के निवासी हैं और पिछले दस सालों से विभिन्न टीवी चैनलों और अखबारों के लिए रिपोर्टिंग कर रहें हैं।)

'हिन्दी उपन्यास की नयी ज़मीन' का लोकार्पण


वनांचल न्यूज़ नेटवर्क

नई दिल्ली। प्रगति मैदान पर चल रहे विश्व पुस्तक मेले में शुक्रवार को हिंदी साहित्य की पत्रिका 'बनास जन' के विशेषांक 'हिन्दी उपन्यास की नयी जमीन' का लोकार्पण हुआ। इस विशेषांक का लोकार्पण वरिष्ठ उपन्यासकार पंकज बिष्ट, कथाकार हरियश राय, लखनऊ से आए कवि अजय सिंह, उद्भावना के संपादक अजय कुमार तथा अनभै साँचा के संपादक द्वारिका प्रसाद चारुमित्र ने किया। 

अरु प्रकाशन के मंच पर आयोजित कार्यक्रम में पंकज बिष्ट ने कहा कि विगत सालों में युवाओं द्वारा लिखे गए उपन्यासों के मूल्यांकन पर केंद्रित इस अंक का स्वागत किया जाना चाहिए। हरियश राय ने कहा कि हिंदी आलोचना के जिम्मेदार पक्ष का उदाहरण यह अंक है। द्वारिका प्रसाद चारुमित्र ने लघु पत्रिकाओं द्वारा लगातार साहित्य औरत संस्कृति के विषयों पर गंभीर सामग्री पाठकों तक पहुंचाई जा रही है जिसे और व्यापक करने के लिए साझा प्रयास करने होंगे। जन संस्कृति मंच से सम्बद्ध कवि और लेखक अजय सिंह तथा उद्भावना के संपादक अजय कुमार ने भी इस अवसर पर शुभकामनाएँ दीं। 

बनास जन के भंवरलाल मीणा ने अंक में सम्मिलित उपन्यासों के बारे में बताया कि इस विशेषांक में आठ आलोचकों द्वारा पंद्रह नये उपन्यासों का मूल्यांकन किया गया है। जिनमें युवा पीढ़ी के अनेक उपन्यासों के साथ काशीनाथ सिंह, रामधारी सिंह दिवाकर, ज्ञान चतुर्वेदी, शीला रोहेकर, हरि भटनागर और  रजनी गुप्त के उपन्यास भी सम्मिलित हैं। आयोजन में अरु प्रकाशन के निदेशक आशीष गुप्ता, कथाकार राजीव कुमार, सहित बड़ी संख्या में लेखक और पाठक उपस्थित थे। अंत में बनास जन के संपादक पल्लव ने सभी का आभार माना।
(प्रेस विज्ञप्ति)

शनिवार, 16 जनवरी 2016

नंगाकर कर पेट्रोल डाला और पेशाब पिलायाः अजीजुर्रहमान

देशद्रोह के आरोप में आठ साल से ज्यादा समय जेल में गुजारने के बाद दोषमुक्त हुये अजीर्जुरहमान, मोहम्मद अली अकबर और शेख मुख्तार हुसैन बयां किया दर्द।

वनांचल न्यूज नेटवर्क

लखनऊ। बिजली का झटका लगाना, उल्टा लटका कर नाक से पानी पिलाना, टांगे दोनों तरफ फैलाकर डंडा से पीटना, नंगा कर पेट्रोल डालना, पेशाब पिलाना जैसे तमाम  हथकंडे पुलिस ने हमपर आजमाया और छह दिन तक हमें एक मिनट के लिए भी सोने नहीं दिया। यह कहना है पश्चिम बंगाल में 24 परगना जिले के बशीर हाट निवासी इक्तीस वर्षीय अजीर्जुरहमान का जिन्हें उत्तर प्रदेश एटीएस ने देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया था। अदालत ने पिछले दिनों अजीर्जुरहमान को करीब आठ साल बाद देशद्रोह के आरोप से दोषमुक्त कर दिया। उनके अलावा अदालत ने मोहम्मद अली अकबर और शेख मुख्तार को भी देशद्रोह के आरोप से मुक्त कर उन्हें रिहा कर दिया है।

शनिवार को लखनऊ स्थित उत्तर प्रदेश क्लब में रिहाई मंच द्वारा आयोजित पत्रकार वार्ता के दौरान अजीर्जुरहमान ने बताया कि उसे 11 जून 2007 को सीआईडी वालों ने चोरी के इल्जाम में उठाया था। 16 जून को कोर्ट में पेश करने के बाद 22 जून को दोबारा कोर्ट में पेश कर 26 तक हिरासत में लिया। जबकि यूपी एसटीएफ ने मेरे ऊपर इल्जाम लगाया था कि मैं 22 जून को लखनऊ अपने साथियों के साथ आया था। आप ही बताएं की यह कैसे हो सकता है कि जब मैं 22 जून को कोलकाता पुलिस की हिरासत में था तो यहां कैसे उसी दिन कोई आतंकी घटना अंजाम देने के लिए आ सकता हूं। 12 दिन की कस्टडी में यूपी एसटीएफ ने रिमांड में 5 लोगों के साथ लिया और बराबर नौशाद और जलालुद्दीन के साथ टार्चर किया जा रहा था जिसे देख हम दहशत में आ गए थे कि हमारी बारी आने पर हमारे साथ भी ऐसा ही किया जाएगा। टार्चर कुछ इस तरह था कि हमारा रिमांड खत्म होने के एक दिन पहले लखनऊ से बाहर जहां ईट भट्टा और एक कोठरी नुमा खाली कमरा पड़ा था, वहां ले जाकर गाड़ी रोका और मीडिया के आने का इंतजार किया। यहां लाने से पहले एसटीएफ वालों ने हमसे कहा था कि मीडिया के सामने कुछ मत बोलना। 

इस बीच धीरेन्द्र नाम के एक पुलिस कर्मी ने सीमेंट की बोरी और फावड़ा लिया और कोठरी के अंदर गया फिर कोठरी के अंदर गड्डा खोदा, बोरी के अंदर से जो भी सामान ले गए थे गड्डे के अंदर टोकरी में रख दिया। फिर जब सारे मीडिया वाले आ चुके तो हमको गाड़ी से निकालकर उस गड्डे के पास से एक चक्कर घुमाया जिसका फोटो मीडिया खींचती रही। एसटीएफ वालों ने मीडिया को बताया कि ये आतंकी हैं जो कि यहां दो किलो आरडीएक्स, दस डिटोनेटर और दस हैंड ग्रेनेड छुपाकर भाग गए थे। इनकी निशानदेही पर यह बरामद किया गया है। मीडिया वाले बात करना चाह रहे थे पर एसटीएफ ने तुरंत हमें ढकेलकर गाड़ी में डाल दिया। हम लोगों को जब यूपी लाया गया उस समय उसमें एक लड़का बांग्लादेशी भी था। पूछताछ के दौरान उसने बताया कि वह हिन्दू है और उसका नाम शिमूल है। उसके बाद दो कांस्टेबलों ने उसके कपड़े उतरवाकर देखा कि उसका खतना हुआ है कि नहीं। जब निश्चिंत हो गए की खतना नहीं हुआ है तो पुलिस वालों ने उससे कहा कि यह बात कोलकाता में क्यों नहीं बताया। उसके बाद दो कांस्टेबल उसे फिर से कोलकाता छोड़ आए। सिर्फ मुसलमान होने के नाते हमें आतंकी बताकर फंसा दिया गया।

मिदनापुर निवासी शेख मुख्तार हुसैन जो कि मटियाबुर्ज में सिलाई का काम करते थे ने बताया कि उसने एक पुराना मोबाइल खरीदा था। उस समय उसकी बहन की शादी थी। उसी दौरान एक फोन आया कि उसकी लाटरी लग गयी है और लाटरी के पैसों के लिए उसे कोलकाता आना होगा। इस पर उसने कहा कि अभी घर में शादी की व्यस्तता है अभी नहीं आ पाउंगा। उसी दौरान उसे साइकिल खरीदने के लिए नंद कुमार मार्केट जाना था तो उसी दौरान फिर से उन लाटरी की बात करने वालों का फोन आया और उन लोगों ने कहा कि वे वहीं आ जाएंगे। फिर वहीं से उसे खुफिया विभाग वालों ने पकड़ लिया। जीवन के साढे़ आठ साल बर्बाद हो गए। उनका परिवार बिखर चुका है। उन्होंने अपने बच्चों के लिए जो सपने बुने थे उसमें देश की सांप्रदायिक सरकारों, आईबी और पुलिस ने आग लगा दी। उनके बच्चे पढ़ाई छोड़कर सिलाई का काम करने को मजबूर हो गए, उनकी बेटी की उम्र शादी की हो गई है। लेकिन साढे आठ साल जेल में रहने के कारण अब वे पूरी तरह बर्बाद हो चुके हैं। अब उनके सामने आगे का रास्ता भी बंद हो गया है। क्योंकि फिर से जिंदगी को पटरी पर लाने के लिए जो पैसा रुपया चहिए वह कहा से आएगा। सरकार पकड़ते समय तो हमें आतंकवादी बताती है पर हमारे बेगुनाह होने के बाद न तो हमें फंसाने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई होती है और न ही मुआवजा मिलता है। पत्रकारों द्वारा सवाल पूछने पर कि मुआवजा की लड़ाई लड़ेगे पर शेख मुख्तार ने कहा कि छोड़ने के वादे से मुकरने वाली सरकार से मुआवजे की कोई उम्मीद नहीं।

24 परगना बनगांव के रहने वाले अली अकबर हुसैन ने कहा कि देश के खिलाफ नारे लगाने के झूठे आरोप ने उसे सबसे ज्यादा झटका दिया। जिस देश में हम रहते हैं उसके खिलाफ हम कैसे नारा लगाने की सोच सकते हैं। आज जब यह आरोप बेबुनियाद साबित हो चुके हैं तो सवाल उठता है कि हम पर देश के खिलाफ नारा लगाने का झूठा आरोप क्यों मढ़ा गया। उन्होंने कहा कि हमारे वकील मु0 शुऐब जो कि हमारा मुकदमा लड़ने (12 अगस्त 2008) कोर्ट में गए थे को मारा पीटा गया और हम सभी पर झूठा मुकदमा दर्ज कर दिया गया कि हम देश के खिलाफ नारे लगा रहे थे।

जेल की पीड़ा और अपने ऊपर लगे आरोपों से अपना मानसिक असंतुलन का शिकार हो चुके अली अकबर के पिता अल्ताफ हुसैन ने कहा कि मेरे बेटे की हालत की जिम्मेदार पुलिस और सरकार है। एयर फोर्स के रिटायर्ड अल्ताफ ने कहा कि जिस तरह से झूठे मुकदमें में उनके लड़के और अन्य बेगुनाहों को फंसाया गया ऐसे में एडवोकेट मुहम्मद शुऐब की मजबूत लड़ाई से ही इनकी रिहाई हो सकी। उन्होंने कहा कि हमारे बेटों के खातिर मार खाकरद भी जिस तरीके से शुऐब साहब ने लड़ा उससे इस लड़ाई को मजबूती मिली। पत्रकार वार्ता में रिहा हो चुके लोगों के परिजन अब्दुल खालिद मंडल, अन्सार शेख भी मौजूद रहे।

पत्रकार वार्ता के दौरान जेल में कैद आतंकवाद के अन्य आरोपियों के बारे में सवाल पूछने पर अजीजजुर्रहमान ने बताया कि उनके साथ ही जेल में बंद नूर इस्लाम की आंख की रौशनी कम होती जा रही है। लेकिन मांग करने के बावजूद जेल प्रशासन उनका इलाज नहीं करा रहा है। शेख मुख्तार से यह पूछने पर कि अब आगे जिंदगी कैसे बढ़ेगी, उन्होंने कहा कि बरी होने के बाद भी हमें जमानत लेनी है और अभी तक हमारे पास जमानतदार भी नहीं है। हम एडवोकेट मोहम्मद शुऐब के उपर ही निर्भर हैं। इस सिलसिले में मोहम्मद शुऐब से पूछने पर कि जमानत कैसे होगी ये कहते हुए वो रो पड़े कि आतंकवाद के आरोपियों के बारे में फैले डर की वजह से मुश्किल होती है और लोग इन बेगुनाहों के जमानतदार के बतौर खड़े हों। इसीलिए मैंने इसकी शुरूआत अपने घर से की मेरी पत्नी और साले जमानतदार के बतौर खड़े हुए हैं। इन भावनाओं से प्रभावित होते हुए पत्रकार वार्ता में मौजूद आदियोग और धर्मेन्द्र कुमार ने जमानतदार के बतौर खड़े होने की बात कही। मु0 शुऐब ने समाज से अपील की कि लोग ऐसे बेगुनाहों के लिए खड़े हों। इस मामले में अभी और जमानतदारों की जरूरत है अगर कोई इनके लिए जमानतदार के बतौर खड़ा होगा तो ये जल्दी अपने घर पहुंचाए जाएंगे।

रिहाई मंच के अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने कहा कि सपा सरकार ने अगर आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों को छोड़ने का अपना चुनावी वादा पूरा किया होता तो यही नहीं इन जैसे दर्जनों बेगुनाह पहले ही छूट गए होते। उन्होंने कहा कि सपा ने चुनाव में मुसलमानों का वोट लेने के लिए उनसे झूठे वादे किए। जिसमें से एक वादा छूटे बेगुनाहों के पुर्नवास और मुआवजे का भी था। लेकिन किसी भी बेगुनाह को सरकार ने उनकी जिन्दगी बर्बाद करने के बाद आज तक कोई मुआवजा या पुर्नवास नहीं किया है। पुर्नवास व मुआवजा न देना साबित करता है कि अखिलेश यादव हिन्दुत्वादी चश्मे से बेगुनाहों को आतंकवादी ही समझते हैं। उन्होंने पूछा कि सरकार को बताना चाहिए कि इन बेगुनाहों के पास से पुसिल ने जो  आरडीएक्स, डिटोनेटर और हैंडग्रेनेड बरामद दिखाया उसे वह कहां से मिला। किसी आतंकी संगठन ने उन्हंे ये विस्फोटक दिया या फिर पुलिस खुद इनका जखीरा अपने पास रखती है ताकि बेगुनाहों कों फंसाया जा सके। उन्होंने कहा कि ऐसी बरामदगी दिखाने वाले पुलिस अधिकारियों का समाज में खुला घूमना देश की सुरक्षा के लिए ठीक नहीं है। उन्होंने कहा कि जिस तरह से कुछ मीडिया संस्थानों ने इनके छूटने पर यह खबर छापी की ये सभी पाकिस्तानी है असल में यह वही जेहनियत है जिसके चलते पुलिस ने देश के खिलाफ नारा लगाने का झूठा एफआईआर करवाया। आज असलियत आपके सामने है कि यह अपनी बात कहते-कहते भूल जा रहे हैं। मानसिक रुप से असुंतलित हो गए हैं। ऐसे में देशद्रोह और आतंकी होने का फर्जी मुकदमा दर्ज कराने वाले असली देशद्रोही हैं उनपर मुकदमा होना चाहिए। उन्होंने सरकार से सवाल किया कि क्या उसमें यह हिम्मत है


रिहाई मंच नेता राजीव यादव ने बताया कि आफताब आलम अंसारी, कलीम अख्तर, अब्दुल मोबीन, नासिर हुसैन, याकूब, नौशाद, मुमताज, अजीजुर्रहमान, अली अकबर, शेख मुख्तार, जावेद, वासिफ हैदर वो नाम हैं जिन पर आतंकवादी का ठप्पा लगाकर उनकी पूरी जिंदगी बर्बाद कर दी गई। जिनके बरी होने के बावजूद सरकारों ने उनके प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं दिखाई। तो वहीं ऐसे कई नौजवान यूपी की जेलों में बंद हैं जो कई मुकदमों में बरी हो चुके है जिनमें तारिक कासमी, गुलजार वानी, मुहम्मद अख्तर वानी, सज्जादुर्रहमान, इकबाल, नूर इस्लाम है। उन्होंने कहा कि सरकार बेगुनाहों की रिहाई से सबक सीखते हुए इन आरोपों में बंद बेगुनाहों को तत्काल रिहा करे और सांप्रदायिक पुलिस कर्मियों के खिलाफ कारवाई करे। उन्होंने कहा कि जब इन बेगुनाहों को फंसाया गया तब बृजलाल एडीजी कानून व्यवस्था और बिक्रम सिंह डीजीपी थे और उन्होनें ही मुसलमानों को फंसाने की पूरी साजिश रची। जिनकी पूरी भूमिका की जांच के लिए सकरार को जांच आयोग गठित करना चाहिए ताकि आतंकवाद के नाम पर फंसाने वाले पुलिस अधिकारियों को सजा दी जा सके। मंच ने यूएपीए को बेगुनाहों को फंसाने का पुलिसिया हथियार बताते हुए इसे खत्म करने की मांग की है।
(प्रेस विज्ञप्ति)

डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान की स्टाल से नहीं बेची जा रही 'अनाइलेशन ऑफ कास्ट'

प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेला-2016 में लगी डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान की बुक स्टाल।           

अंबेडकर वांग्मय के अब तल छपे 21 अंकों में से केवल 11 अंक उपलब्ध।

Shiv Das

नई दिल्ली। डॉ. भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती के मौके पर सांसदों को अंबेडकर के विचारों के प्रचार-प्रसार का पाठ पढ़ाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सरकार के मंत्री और नौकरशाह खुलेआम उनके विचारों की हत्या कर रहे हैं। प्रगति मैदान में चल रहे विश्व पुस्तक मेला-2016 में केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अधीन डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान के बुक स्टाल पर अंबेडकर वांग्मय के करीब एक दर्जन अंक गायब हैं। इनमें जातिप्रथा का उन्मूलन, हिन्दू धर्म की पहेलियां, अस्पृश्य होने का अर्थ, अछूतों की जनसंख्या, जाति और संविधान, आदि पुस्तकें शामिल हैं। इसके अलावा अंबेडकर वांग्मय के 22 से 40 अंकों के किताबों को पिछले 15 वर्षों से छपने का इंतजार है। इससे अंबेडकर के विचारों को जानने के इच्छुक पाठकों में मायूसी देखी जा रही है और वे इसके लिए केंद्र की मोदी सरकार और आरएसएस को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।

मेला में डॉ. अम्बेडकर प्रतिष्ठान के बुक स्टाल पर अंबेडकर वांग्मय के अब तल छपे 21 अंकों में से केवल 11 अंक ही मौजूद है। वह भी काफी कम मात्रा में। शेष 10 अंकों की प्रतियां उपलब्ध क्यों नहीं होने के सवाल पर वहां कार्यरत कर्मचारी आलाधिकारियों से बात करने की बात कहकर जानकारी देने से कतरा रहे हैं। प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित की जाने वाली मासिक पत्रिका 'सामाजिक न्याय सन्देश' का अक्टूबर, 2015 के बाद कोई भी अंक बाजार में नहीं आया है। इसके अलावा अंबेडकर वांग्मय के 22 से 40 अंक के किताबों को प्रकाशित करने का काम 15 साल पहले ही पूरा हो चुका है लेकिन उन्हें अभी तक छपने का इंतजार है। प्रतिष्ठान में कार्यरत विश्वसनीय सूत्रों की मानें तो संस्थान के पास हर साल पर्याप्त फंड होता है लेकिन अंबेडकर वांग्मय के प्रकाशक और संपादक दिल्ली के दबाव में इसमें रुचि नहीं ले रहे। हर साल प्रतिष्ठान को आबंटित होने वाले फंड में महज दस फीसदी ही खर्च हो पाता है। शेष धनराशि लैप्स हो जाती है। इसके बावजूद स्टाल पर कार्यरत कर्मचारी अम्बेडकर से जुड़ी पुस्तकों को सस्ती और विश्वसनीय रूप में पाठकों तक पहुचाने के कार्य का दावा कर रहे हैं।  

टीवी पत्रकार महेंद्र मिश्र
विश्व पुस्तक मेला में डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान के बुक स्टाल पर अंबेडकर वांग्मय का संकलन लेने पहुंचे टीवी पत्रकार महेंद्र मिश्रा किताब का पूरा संकलन नहीं मिलने से निराश दिखे। उन्होंने बातचीत में बताया कि मैं अंबेडकर के विचारों को समझना चाहता हूं। इसके लिए मैं उनके विचारों का संग्रह लेने आया था लेकिन वह एक किताब के रूप में नहीं है। मैं अंबेडकर वांग्मय के अबतक मौजूद सभी अंकों को खरीदना चाहता हूं लेकिन केवल 11 अंक ही मौजूद हैं। इनमें जाति के उन्मूलन पर लिखी गई डॉ. अंबडकर की सबसे महत्वपूर्ण किताब नहीं है। फिलहाल यहां उपलब्ध सभी 11 अंक मैंने खरीद लिए हैं लेकिन पूरे अंक मिल जाते तो अच्छा होता।


वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल
वहीं वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल भी बुक स्टाल पर अंबेडकर वांग्मय की सीरिज लेने पहुंचे लेकिन डॉ. अंबेडकर की चुनिंदा किताबों को स्टाल पर उपलब्ध नहीं होने पर हतप्रभ हो गए। उन्होंने आगंतुक रजिस्टर में अपनी टिप्पणी लिख मारी। बातचीत के दौरान उन्होंने कहा, भारत सरकार इस साल बाबा साहेब की किताबों का पूरा सेट नहीं बेच रही है, यह कहने से पूरी तस्वीर साफ नहीं होती। वह 21 में से 10 चुनींदा किताबें नहीं बेच रही है। सिर्फ़ 11 किताबें बेची जा रही हैं। अंदाज़ा लगाइए कि क्या नहीं बेचा जा रहा है। इस स्टाल पर बाबा साहेब की रचनाओं का जो सेट मिल रहा है, उनमें वे सारी किताबें गायब हैं जिनमें उन्होंने जाति व्यवस्था, हिंदू पोंगापंथ, ब्राह्मणवाद की समीक्षा की है। एनिहिलेशन ऑफ कास्ट से लेकर रिडल्स इन हिंदुइज्म सब गायब। बुद्ध एंड हिज धम्मा तो हिंदी में इन्होंने छापी ही नहीं। यह बात ज्यादा चिंताजनक इसलिए है कि बाबा साहेब रचना समग्र को हिंदी में छापने का अधिकार इनके पास है।

युवा पत्रकार अरविंद शेष
इसी दौरान पत्रकार अरविंद शेष भी स्टाल पर पहुंचे। उन्होंने बताया कि पटना पुस्तक मेला में इस बार आंबेडकर फाउंडेशन के पास आंबेडकर वांग्मय का सेट नहीं मिला। शायद इस बार आंबेडकर फाउंडेशन के पास यह है ही नहीं। यह कृपा महाराष्ट्र की भाजपा सरकार की है और केंद्र में भी भाजपा की सरकार है। दरअसल, आंबेडकर फाउंडेशन के स्टॉल पर बताया गया कि इस बार आंबेडकर के संपूर्ण वांग्मय को छापने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने एनओसी यानी अनापत्ति प्रमाण-पत्र नहीं दिया (शायद किताब छापना महाराष्ट्र सरकार से जुड़ा मामला होगा)। 

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अन्य प्रकाशन उठा रहे मौके का फायदा

नई दिल्ली। अम्बेडकर प्रतिष्ठान पर पुस्तकों के न मिलने का फायदा अन्य प्रकाशन उठा रहे हैं। अम्बेडकर की जीवनी पर आधारित 'अम्बेडकर संचयन' 1200 रुपये में मिल रही है जबकि अम्बेडकर वांग्मय की पूरी सिरीज मात्र 500-600 रुपये में मिल जाती है। 
                                                                                      (सूचना संकलन और रिपोर्टिंग सहयोग: बिपिन दुबे)