कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के निजी सचिव संदीप सिंह |
(राजीव सिंह जादौन अपनी इस टिप्पणी में कांग्रेस महासचिव
प्रियंका गांधी के निजी सचिव संदीप सिंह पर दर्ज प्रथम सूचना रपट (एफआईआर) की मीडिया
कवरेज को लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया की भूमिका पर सवाल उठाते हैं। खबरों में संदीप
सिंह के नाम का जिक्र नहीं होने पर वे इसे मीडिया का ब्राह्मणवाद कहते हैं। मीडिया
इंडस्ट्री पर हुए विभिन्न शोधों में जाति आधारित भेदभाव के प्रमाण भी सामने आ चुके
हैं। इसके बावजूद लेखक इस भेदभाव को मीडिया का ब्राह्मणवाद कहते हैं। इस टिप्पणी को
आप खुद पढ़ें और तय करें कि यह मीडिया का ब्राह्मणवाद या जातिवाद या और कुछ?
पढ़ने के बाद
अपनी राय कमेंट बॉक्स में जरूर दें और संभव हो तो विस्तृत में लिखें। वनांचल
एक्सप्रेस ऐसे मुद्दे पर एक गंभीर विमर्श चाहता है। गंभीर और तथ्यात्मक लेखों को वनांचल एक्सप्रेस यहां प्रकाशित करेगा।- संपादक)
"मैंने जितने भी न्यूज चैनल देखे, उसमें एक भी ऐसा नहीं था, जहां यह लिखा या दिखाया गया कि 'संदीप सिंह पर एफआईआर दर्ज'। हर जगह यही लिखा मिला "प्रियंका गांधी
के निजी सचिव पर एफआईआर दर्ज"
राजीव सिंह जादौन
ये संदीप सिंह हैं। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के निजी सचिव। संदीप
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ (जेएनयूएसयू) के अध्यक्ष रहे हैं। ये जितने
बेहतरीन वक्ता हैं, उतनी ही शार्प इनकी लेखनी भी है। संदीप इससे पहले राहुल
गांधी की टीम का महत्वपूर्ण हिस्सा थे। संदीप को जानने वाले बताते हैं कि गुजरात
विधानसभा चुनाव के वक्त मशहूर हुआ स्लोगन "विकास पगला गया है" और लोकसभा
चुनाव के समय गूंजने वाला नारा "चौकीदार चोर है" संदीप के दिमाग की ही
उपज थी।
यूपी के प्रतापगढ़ के साधारण परिवार के लड़के का यहाँ तक पहुँचना आसान नहीं था।
मैं जितना जान पाया हूँ, उन्होंने जो भी हासिल किया है,
वह केवल और केवल अपने टैलेंट और संघर्ष की बदौलत। इलाहाबाद
विश्वविद्यालय होते हुए जेएनयू तक का उनका सफर बहुत ही प्रेरणादायी और रोमांचकारी
है।
ये जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहने के साथ-साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
(माले) यानी CPI(ML) की छात्र इकाई ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन (AISA) के राष्ट्रीय महासचिव भी रहे हैं। आइसा के महासचिव रहते
उन्होंने सिकुड़ती जा रही आइसा में पूरे भारत में सांगठनिक तौर पर स्थापित करने के
लिए प्राण फूँकने का काम किया था।
मझे व्यक्तिगत रूप से जेएनयूएसयू के अबतक के चार पदाधिकारीयों का भाषण सबसे
शानदार और आकर्षक लगता हैं- उनमें मरहूम दिग्विजय सिंह "दादा" (पूर्व
केंद्रीय मंत्री और बाँका से सांसद), चंद्रेशेखर प्रसाद "चंदू",
देवी प्रसाद त्रिपाठी (जिन्हें हम सब प्यार से डीपीटी कहते
थे) के अलावा चौथे संदीप सिंह ही हैं। हारे हुए जेएनयूएसयू के प्रत्याशी में
राहिला परवीन और जयंत जिज्ञासु के भाषण बहुत ही शानदार थे। बाँकी जेएनयूएसयू के
अधिकतर लोग बातोलेबाज, लफ्फाज और बाह्य आडंबर से ओतप्रोत,
अधजल गगरी छलकत जाय जैसे लगते हैं जो केवल जेएनयू के टैग को
इनकैश करते हैं बस।
संदीप पर दो दिन पहले उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने एफआईआर दर्ज
किया है। संदीप का कसूर यही है कि संदीप ने कोरोना के संकट के समय में गरीब और
मजदूर की मदद करने का गुनाह किया था। अब आता हूँ मूल मुद्दे पर जो यह सब लिखने की
वजह है। मैंने जितने भी न्यूज चैनल देखे, उसमें एक भी ऐसा नहीं था, जहाँ यह लिखा या दिखाया गया कि "संदीप सिंह पर एफआईआर
दर्ज"। हर जगह यही लिखा मिला "प्रियंका गांधी के निजी सचिव पर एफआईआर
दर्ज"।
देखने में तो यह साधारण बात लगती है या बहुतों को यह बात समझ में ही नहीं आई
होगी। लेकिन, इसके पीछे की अपनी राजनीति है, अपना इतिहास और गुणा गणित है। मीडिया कितनी चतुराई से संदीप
के नाम को स्कीप कर गया, इस बात को समझना बहुत जरूरी है। इसके लिए मीडिया के आंतरिक
संरचना को समझना जरूरी है।
क्या संदीप की जगह कन्हैया कुमार पर एफआईआर दर्ज होता तो मीडिया इसी तरह लिखती
"भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय परिषद सदस्य पर एफआईआर दर्ज"?
जड़ा सोचिए यही एफआईआर अगर कन्हैया कुमार पर दर्ज होती तो
रविश कुमार प्राइम टाइम में इसे दिखला रहे होते, अपूर्वानंद द वायर पर रुंधे गला से कह रहे होते 'भारत में फांसीवाद अपने चरम सीमा पर नंगा नाच कर रहा है'। तमाम तरह के बुद्धिजीवी फेसबुक पर ट्रेंड सेट कर रहे होते
और उज्ज्वल भट्टाचार्य उन तमाम बुद्धिजीवियों के लिखे हुए एक-एक पोस्ट को शेयर कर
रहे होते।
मीडिया के ब्राह्मणवाद का इससे बड़ा जीता जागता उदाहरण और क्या हो सकता है। यह
ब्राह्मणवाद ही है कि जो काशीनाथ सिंह के पहले उपन्यास के बारे में अफवाह फैलाता
है कि काशीनाथ सिंह इस तरह का उपन्यास तो लिख ही नहीं सकते इसे तो नामवर सिंह ने
खुद से लिखकर अपने भाई काशीनाथ सिंह के नाम से छपवाया होगा।
अनुराग कश्यप 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' से पहले 'गुलाल' जैसी बेहतरीन फ़िल्म क्यों न बना ले,
मीडिया उन्हें अटेंशन हरगिज़ नहीं दे सकता है। जब गैंग्स ऑफ
वासेपुर की पूरी दुनिया के क्रिटिक प्रशंसा करते हैं,
तब एनडीटीवी अनुराग को अपने कार्यक्रम 'हमलोग' में बुलाता है।
अनुराग कश्यप वाली मेरी यह बात झूठी लगती है तो इधर डायरेक्टर श्रीराम डाल्टन
की एक फ़िल्म आई है स्प्रिंग थंडर (#SpringThunder), जो सामाजिक सरोकार के विषय पर बनी है। जिसका गीत "लह
लह ईंट बनाने वाले, भट्टी को सुलगाने वाले" देखने से लगता है,
इसमें कलाकार, गायक, संगीतकार ने एक्ट्रॉओर्डिनरी वर्क किया है। लेकिन,
ऐसी फिल्म और श्रीराम डॉल्टन के बारे में मुख्यधारा की
मीडिया के प्रमुख पत्रकारों की टाइमलाइन पर कुछ भी लिखा नहीं मिलेगा।
डायरेक्टर रंजन चंदेल की हाल ही में रिलीज हुई फ़िल्म बम्फाड़ (#Bamfaad)
इतनी गजब की फ़िल्म है, मगर रंजन चंदेल का बहुत लोग ठीक से नाम भी नहीं जानते होंगे
क्योंकि मीडिया के लिए रंजन चंदेल नाम सूटेबल ही नहीं लगा होगा,
क्योंकि इन लोगों की उन पत्रकारों से कुल और गोत्र जो नहीं
मिलते हैं।
लखनऊ यूनिवर्सिटी की पूजा शुक्ला गिरफ्तार होकर जेल चली जाए तो द वायर पूजा को
लखनऊ से दिल्ली बुलाकर स्पेशल इंटरव्यू ले और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी छात्रसंघ की
अध्यक्ष रही ऋचा सिंह गिरफ्तार हो जाए जेल चली जाए तो ऋचा इलाहाबाद के लोकल
संस्करण और स्थानीय बेवपोर्टल तक छपकर रह जाती है। शाश्वत गौतम कितने ही काबिल
क्यों न हो जाए पॉलिटिकल मैनेजमेंट का हारबिंजर तो प्रशांत किशोर ही कहलाएगा।
ब्राह्मणवाद की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह अपने घटिया से घटिया,
रद्दी से रद्दी माल की भी ऐसी पैकेजिंग करता है कि जैसे कि
वही सबसे ज्यादा ब्रिलिएंट हो। कोई अहो, बहो, सहो की रायमिंग में कविता लिख दे तो वह ग्रेट जीनियस की
श्रेणी में आ जाता है और उसे युवा कवि के साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा जाता
है। बाँकी कोई कितना ही बेहतरीन कविता क्यों न लिख दे अंत में उसको एकलव्य ही
बनाया जाएगा।
एक ऐसा कॉकस बना हुआ है जो आपके हर अच्छे काम पर वो मौन धारण किए रहेगा। जैसे
ही आपने कोई चूक किया वह अपपर टूट पड़ेगा। संदीप सिंह की तमाम अच्छाईयों पर
बुद्धिजीवियों को मैंने कभी एक लाइन नहीं लिखते देखा। संदीप ने थोड़ा सा जी न्यूज
के पत्रकार को गलतियों पर डाँट क्या लगा दी तमाम तथाकथित प्रोग्रेसिव लोग फावड़ा
लेकर निकल आए खुदाई करने, संदीप को सामंत और दबंग साबित करने।
यह जो मीडिया और हमारे बुद्धिजीवियों का दोहरा रवैया है यह बहुत ही खतरनाक है।
कोई संदीप के साथ सिंह है तो उसका यह हाल है। ओबीसी, दलित और मुसलमान को तो ये लोग कुछ समझते ही नहीं होंगे।
इनका बस चले तो जिग्नेश मेवानी और उमर ख़ालिद को भी ये लोग मीडिया में स्पेस नहीं
देंगे वो तो मजबूरी है कि दलितों और मुसलमानों का तुष्टिकरण करना है और खुद को
दलित और मुसलमान के हितैषी होने का तमगा पहनाकर दलितों और मुसलमानों को बरगलाना है
कि इन लोगों को थोड़ा बहुत स्पेस मिल भी जाता है। ताकि इनके अपने लाडले को जरूरत से
ज्यादा कवरेज देने पर, उनके एक ट्वीट पर भी एक स्टोरी लिखे जाने पर कोई सवाल खड़ा
नहीं करे।
(नोट- यह लेख फेसबुक पर राजीव सिंह जादौन की
टाइमलाइन पर प्रकाशित है। बतौर साभार यहां हम इसे प्रकाशित कर रहे हैं। यह लेखक की
अपनी राय है। इससे संपादक का सहमत होना जरूरी नहीं-संपादक)
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