जातिगत भेदभावों,
उत्पीड़नों के
इस विकसित गतिविज्ञान का एक अहम पहलू यह है कि मुल्क में जबसे हिन्दुत्व
वर्चस्ववादी विचारों/ जमातों का प्रभुत्व बढ़ा है,
हम ऐसी घटनाओं
में भी एक उछाल देखते हैं। यह कोई संयोग की बात नहीं है कि केन्द्र में तथा कई
सूबों में भाजपा के उभार के साथ हम यही पा रहे हैं कि किस तरह वे ‘सुनियोजित तरीकों से दलितों के मामलों में सकारात्मक
कार्रवाइयों /एफर्मेटिव एक्शन और उन्हें कानूनी सुरक्षा प्रदान करने के
अस्तित्वमान प्रावधानों को कमजोर करने में मुब्तिला हैं…
written by सुभाष गाताडे
तेरह साल का एक वक्फ़ा गुजर गया जब थोरात कमेटी रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। याद
रहे,
सितम्बर 2006 में उसका गठन किया गया था, इस बात की पड़ताल करने के लिए कि एम्स अर्थात आल इंडिया
इन्स्टिटयूट आफ मेडिकल साईंसेज़ में अनुसूचित जाति व जनजाति के छात्रों के साथ
कथित जातिगत भेदभाव के आरोपों की पड़ताल की जाए। उन दिनों के अग्रणी अख़बारों में
यह मामला सुर्खियों में था (देखें, द टेलीग्राफ 5 जुलाई 2006)।
आज़ाद भारत के इतिहास में वह अपने किस्म की पहली रिपोर्ट रही होगी।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तत्कालीन चेयरमैन प्रोफेसर सुखदेव थोरात तथा अन्य दो
सदस्यों ने मिल कर इस अग्रणी संस्थान में आरक्षित श्रेणी के छात्रों द्वारा झेले
जा रहे भेदभाव की परतों को नोट किया था। तमाम छात्रों और अध्यापकों के साथ बात
करने के बाद अपनी रिपोर्ट में उन्होंने जो पाया था, वह विचलित करने वाला था:
– 72 फीसदी अनुसूचित जाति/जनजाति के छात्रों ने इस बात का
उल्लेख किया था कि अध्ययन के दौरान उन्हें किसी न किसी किस्म के भेदभाव का सामना
करना पड़ा था
– जाति आधारित भेदभाव की छात्रावासों के अन्दर भी मौजूदगी।
हॉस्टल में रहने वाले अनुसूचित तबके के 88 फीसदी छात्रों ने बताया कि कि किन विभिन्न तरीकों से वह
सामाजिक अलगाव का अनुभव करते हैं।
– कमेटी ने इस बात का भी उल्लेख किया कि संस्थान के अनुसूचित
तबके के अध्यापकों को भी भेदभाव से रूबरू होना पड़ता है।
विगत माह इसी संस्थान में एक महिला डॉक्टर द्वारा की गयी खुदकुशी की कोशिश-
जिसकी वजह कथित तौर पर यौनिक और जातिगत प्रताड़ना थी –
दरअसल इसी बात की ताईद करती है कि समस्या अब भी गहरी है और
थोरात कमेटी की अहम सिफारिशों के बाद भी जमीनी हालात में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं
आया है।
हम याद कर सकते हैं कि थोरात कमेटी ने इस बात की सिफारिश की थी कि सामाजिक
वातावरण की पड़ताल करने के लिए छात्रों, रेसिडेन्ट डॉक्टरों और फैकल्टी की साझा कमेटियां बनायी जाएं,
सामाजिक सद्भाव बहाल करने के लिए नीति और प्रणाली विकसित की
जाए;
एक समान अवसर कार्यालय का गठन किया जाए ताकि आरक्षित श्रेणी
के छात्रों से जुड़े सभी मसलों पर बात की जा सके; सांस्कृतिक गतिविधियों तथा खेलकूद में शामिल होने के लिए
ऐसे छात्रों को प्रोत्साहित किया जाए; सीनियर रेसिडेन्ट और फैकल्टी के चयन के लिए आरक्षण की
रोस्टर प्रणाली कायम की जाए और इस बात पर भी जोर दिया था कि स्वास्थ्य मंत्रालय
संस्थान के अन्दर आरक्षण के अमल पर बारीकी से देखरेख करे।
प्रस्तुत मामले में यह जानना और विचलित करनेवाला है कि इस आत्यंतिक कदम उठाने
के पहले पीड़िता डॉक्टर ने अपने संस्थान के कर्णधारों को बार बार लिखा था,
अपनी बात रेसिडेन्ट डॉक्टर एसोसिएशन को भी पहुंचायी थी,
जिन्होंने इस सम्बन्ध में संबंधित अधिकारियों को मेमोरेन्डम
भी दिया था। ऐसा प्रतीत होता है कि या तो प्रशासन ने इस मुददे के प्रति पर्याप्त
संवेदनशीलता का परिचय नहीं दिया या शायद डॉक्टर की शिकायत में जिन वरिष्ठों के नाम
आक्रांताओं पर दर्ज थे, उनके खिलाफ कार्रवाई करने में उसने संकोच किया तथा मामले को
रफा दफा करना चाहा। क्या इसे प्रशासन की जाति दृष्टिहीनता कहा जा सकता है या
हाशिये के छात्रों के वाजिब सरोकारों की जानबूझ कर गयी अनदेखी कहा जा सकता है?
निश्चित ही एम्स के प्रशासन द्वारा जिस बेरुखी का परिचय
दिया गया वह कोई अपवाद नहीं है। हम इसे उच्च शिक्षण संस्थानों में व्यापक पैमाने
पर देख सकते हैं।
अभी पिछले ही साल पायल तड़वी नामक अनुसूचित तबके से जुड़ी प्रतिभाशाली एवं
सम्भावनाओं से भरपूर डॉक्टर ने- जो मुंबई के एक कॉलेज सह अस्पताल में पोस्ट
ग्रेजुएशन की तालीम ले रही थी- उसने अपने वरिष्ठों के दुर्व्यवहार से तंग आकर
आत्महत्या कर ली थी (22 मई 2019)। अगर 26 साल की वह प्रसूति रोग विशेषज्ञ जिंदा रहती तो वह
भील-मुस्लिम समुदाय की पहली महिला डॉक्टर बनती।
एम्स की पीड़िता डॉक्टर की तरह पायल ने भी कॉलेज/अस्पताल के कर्ताधर्ताओं से
अपने सवर्ण सहयोगियों- सभी महिलाएं तथा सभी उसी की रूममेट- के हाथों झेलनी पड़ी
जातिगत प्रताड़ना की शिकायत बार-बार की थी। उसने बताया था कि डॉ. हेमा आहुजा,
डॉ. भक्ति मेहरा और डॉ. अंकिता खंडेलवाल नामक यह त्रयी डॉ.
पायल को न केवल बार-बार अपमानित करती थीं बल्कि सर्जरी करने से भी रोकती थीं। उसे
निरंतर जिस प्रताड़ना का शिकार होना पड़ रहा था उसके बारे में उसने अपने माता-पिता
तथा डॉक्टर पति सलमान तड़वी को भी जानकारी दी थी।
पिछले साल किसी अख़बार ने डॉ. पायल तड़वी की आत्महत्या के बाद प्रोफेसर थोरात
का साक्षात्कार लिया था जिसमें उन्होंने बताया था कि किस तरह ऐसे संस्थानों में
हाशिये के छात्रों के प्रति एक किस्म का दुजाभाव मौजूद रहता है और यह सवाल पूछा था
कि ‘‘विगत दशक में ऐसे अग्रणी शिक्षा संस्थानों में अध्ययनरत 25-30 छात्रों ने आत्महत्या की है, मगर सरकारों ने शिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव की
समाप्ति के लिए कोई ठोस नीति निर्णय लेने से लगातार परहेज किया है।”
शुद्धता और प्रदूषण का वह तर्क- जो जाति और उससे जुड़े बहिष्करण का आधार है-
आइआइटी जैसे संस्थानों में भी बहुविध तरीकों से प्रतिबिम्बित होता है। दो साल पहले
आइआइटी मद्रास सुर्खियों में था जब वहां शाकाहारी और मांसाहारी छात्रों के लिए मेस
में अलग-अलग प्रवेशद्वार बनाये जाने का मामला सामने आया था- जिसे लेकर इतना हंगामा
हुआ कि संस्थान को यह निर्णय वापस लेना पड़ा। इस पूरे मसले पर टिप्पणी करते हुए
अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्कल- जो संस्थान के अन्दर सक्रिय छात्रों का समूह है- ने
कहा था:
“दरअसल ‘आधुनिक’ समाज में जाति कुछ अलग ढंग से भेस बदल कर आती है। आइआइटी
मद्रास में वह मेस में अलग प्रवेश द्वार,
शाकाहारी और
मांसाहारी छात्रों के लिए अलग-अलग बर्तन,
खाने-पीने के
अलग-अलग टेबल और हाथ धोने के अलग बेसिन के तौर पर प्रतिबिम्बित होती है।“
यही वह समय था जब आइआइटी पर ही केन्द्रित एक अध्ययन सुर्खियों में आया था
जिसमें आइआइटी में जाति और प्रतिभातंत्र के आपसी रिश्ते पर रोशनी डाली गयी थी। अपने
निबंध ‘एन एनाटॉमी आफ द कास्ट कल्चर एट आइआइटी मद्रास’
में अजंता सुब्रमण्यम (हार्वर्ड विश्वविद्यालय में सोशल
एन्थ्रोपोलोजी की प्रोफेसर जो आइआइटी में जाति और मेरिटोक्रेसी/प्रतिभातंत्र की
पड़ताल कर रही हैं) ने इस बात को रेखांकित किया था कि किस तरह ‘‘जाति और जातिवाद ने आइआइटी मद्रास को लम्बे समय से गढ़ा है
और जिसका आम तौर पर फायदा उच्च जातियों ने उठाया है”।
वह संकेत देती हैं कि “जब तक 2008 में ओबीसी आरक्षण लागू नहीं हुआ था तब तक जनरल कैटेगेरी
अर्थात सामान्य श्रेणी से कहे जाने वाले 77.5 फीसदी एडमिशन में” अधिकतर उच्च जातियों का दबदबा रहता था। उनके मुताबिक ‘‘न केवल छात्र बल्कि आइआइटी मद्रास की फैकल्टी में भी उच्च
जातियों का वर्चस्व था जहां एक तरफ जनरल कैटेगरी से जुड़े 464 प्रोफेसर थे। वहीं ओबीसी समुदाय से 59,
अनुसूचित तबके से आने वाले 11 तथा अनुसूचित जनजाति समुदाय से आने वाले 2 प्रोफेसर थे।”
जनवरी 2016 में रोहित वेमुल्ला की आत्महत्या इसी सिलसिले का एक और सिरा था। अकादमिक
संस्थानों में गहरे में धंसे जातिगत पूर्वाग्रहों के बारे में इस मेधावी छात्र ने-
जो छात्र आन्दोलन की अगुवाई भी कर रहा था- महसूस किया था:
किस तरह एक व्यक्ति का मूल्य उसकी फौरी पहचान तक या नजदीकी
संभावना तक न्यूनीकृत किया जाता है। एक अदद वोट तक,
एक नम्बर तक,
एक वस्तु तक।
कभी भी मनुष्य को एक मन के तौर पर समझा नहीं गया।
हैदराबाद सेन्ट्रल युनिवर्सिटी के इस बेहद प्रतिभाशाली छात्र को- जो कार्ल
सागान की तरह विज्ञान लेखक बनना चाहता था और जो अम्बेडकर स्टुडेंटस एसोसिएशन का
हिस्सा था- विश्वविद्यालय ने अगस्त 2015 में उसके अन्य पांच साथियों के साथ अन्यायपूर्ण ढंग से
निलंबित किया था। वजह बतायी गयी थी कि हिन्दुत्व दक्षिणपंथ से जुडे़ छात्र संगठन
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं के साथ हुआ उनका विवाद। रोहित की
अनपेक्षित मौत के बाद- जिसे ‘संस्थागत हत्या’ के तौर पर सम्बोधित किया गया- का घटनाक्रम बिल्कुल
अनपेक्षित था और जो अब इतिहास का हिस्सा बन चुका है।
इसने राष्ट्रीय आक्रोश को जन्म दिया और एक तरह से समूचे भारत में छात्रों के
अन्दर का आक्रोश सड़कों पर उतरा जिसका फोकस था इस प्रतिभासम्पन्न युवा की ‘संस्थागत हत्या’ के मामले में न्याय दिलाना। स्त्री-विरोधी यौन हिंसा के
मामले में बने निर्भया अधिनियम/एक्ट की तर्ज पर उच्च शिक्षण संस्थानों में सामाजिक
तौर पर वंचित/उत्पीड़ित तबकों से आने वाले छात्रों की उत्पीड़न से सुरक्षा के लिए
रोहित एक्ट बनाने की मांग उठी। इसका फोकस था शिक्षा संस्थानों में जातिगत उत्पीड़न
और भेदभाव से मुक्ति दिलाने का उपकरण बनाना तथा इस बात को सुनिश्चित करना कि जो
कोई भी ऐसा कोई कदम उठाता है उसे अभूतपूर्व सज़ा मिले।
सवाल आज भी यह मौजूं है कि आखिर सामाजिक तौर पर वंचित एवं उत्पीड़ित तबकों से
आने वाले ऐसे कितने छात्रों को – जो शेष मुल्क के लिए एक रोल मॉडल बन सकते हैं –
अपनी कुर्बानी देनी पड़ेगी ताकि शेष समाज इस मामले में अपनी
बेरुखी और शीतनिद्रा से जागे। क्या शेष समाज का यह फर्ज़ नहीं बनता कि वह इस पूरे
मामले में आत्मपरीक्षण करे और यह देखे कि वह ऐसे अपमानों/इन्कारों/मौतों में किस
हद तक संलिप्त है या नहीं है?
मशहूर कवयित्री मीना कंडास्वामी ने रोहित की मौत के बाद जो लिखा था वह आज भी
मौजूं है: “एक दलित
छात्र की आत्महत्या कोई निजी पलायन की रणनीति नहीं होती,
दरअसल वह उस
समाज के शर्म में डूबने की घड़ी होती है, जिसने उसे समर्थन नहीं दिया।“
यह जानना और अधिक विचलित करने वाला हो सकता है कि वक्त़ के साथ जाति उत्पीड़न
और जातिगत भेदभाव की ऐसी घटनाओं में हम कोई कमी नहीं पा रहे हैं,
बल्कि उनका सामान्यीकरण हो चला है। राज्य के तीनों अंग –
विधायिका, कार्यपालिका और यहां तक कि न्यायपालिका भी –
इस मामले में असफल होते दिखते हैं।
जातिगत भेदभावों, उत्पीड़नों के इस विकसित गतिविज्ञान का एक अहम पहलू यह है
कि मुल्क में जबसे हिन्दुत्व वर्चस्ववादी विचारों/ जमातों का प्रभुत्व बढ़ा है,
हम ऐसी घटनाओं में भी एक उछाल देखते हैं। यह कोई संयोग की
बात नहीं है कि केन्द्र में तथा कई सूबों में भाजपा के उभार के साथ हम यही पा रहे
हैं कि किस तरह वे ‘सुनियोजित तरीकों से दलितों के मामलों में सकारात्मक
कार्रवाइयों /एफर्मेटिव एक्शन और उन्हें कानूनी सुरक्षा प्रदान करने के
अस्तित्वमान प्रावधानों को कमजोर करने में मुब्तिला हैं।
दलितों-आदिवासियों पर अत्याचारों को रोकने के लिए बने 1989 के अभूतपूर्व कानून के प्रावधानों को कमजोर करने के लिए
मोदी हुकूमत और उससे सम्बद्ध अफसरानों ने समझौतापरस्ती का परिचय दिया है। याद रहे
कि 2018 में जब इसके प्रावधानों का मामला सर्वोच्च न्यायालय के
सामने आया तब एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने बाकायदा अदालत में बयान दिया कि इस कानून का
दुरुपयोग हो रहा है। इतना ही नहीं, जब द्विसदस्यीय सर्वोच्च न्यायालय की बेंच ने इसकी धाराओं
को कमजोर करने का निर्णय सुनाया, तब मोदी सरकार ने अदालत के इस कदम को चुनौती देने वाली
समीक्षा याचिका तक दाखिल नहीं की थी।
हम लोग इस बात के भी गवाह रह चुके हैं कि किस तरह भाजपा सरकार ने ‘‘विश्वविद्यालयों में दलितों की नियुक्ति को बढ़ावा देने
वाले कानूनी प्रावधानों को कमजोर किया।” दरअसल, मोदी सरकार के पहले चरण में, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने यह आदेश पारित किए कि शिक्षा
संस्थानों में आरक्षण रोस्टर का आधार विश्वविद्यालय नहीं, बल्कि विभाग होगा। इसका
नतीजा यह सामने आया था कि मध्यप्रदेश की इंदिरा गांधी नेशनल ट्राइबल युनिवर्सिटी
ने जब 52 फैकल्टी पदों के लिए विज्ञापन जारी किया तब इसमें महज एक
पद आदिवासियों के लिए आरक्षित रखा गया था। इस बात में कोई आश्चर्य जान नहीं पड़ता
कि एफर्मेटिव एक्शन के प्रावधानों पर जारी इस संगठित हमलों की परिणति ऐसे अग्रणी
संस्थानों में हाशिये के तबकों से आनेवाले छात्रों की संख्या की गिरावट में भी
देखी जा रही है।
देश के अग्रणी विश्वविद्यालय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की कहानी इसे बखूबी
बयान करती है। याद रहे कि इस विश्वविद्यालय ने एक ऐसी अनोखी आरक्षण प्रणाली लगभग
दो दशक पहले कायम की थी जिसके चलते न केवल पिछड़े जिलों बल्कि समाज के कमजोर तबकों,
सामाजिक एवं धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों से आने वाले
छात्रों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी देखी गयी थी। आप मानें या न मानें,
इसने विश्वविद्यालय के स्वरूप को गुणात्मक तौर पर परिवर्तित
कर दिया था।
‘‘अगर हम 2013-14 की वार्षिक रिपोर्ट को पलटें तो पाते हैं कि कुल 7,677 छात्रों में से दलित बहुजन तबकों से आने वाले छात्रों की
तादाद 3,648 थी (अनुसूचित जाति के 1,058 छात्र, अनुसूचित जनजाति के 632 छात्र और अन्य पिछड़ी जाति से आने वाले 1948 छात्र थे)। अगर सीधी सरल जुबां में कहें तो सवर्ण के अलावा
दूसरी जातियों से आने वाले छात्रों की तादाद स्थूल रूप में 50 फीसदी थी। अगर हम अन्य वंचित समूहों,
अल्पसंख्यकों
और स्त्रियों को शामिल करें तो उच्च जाति तथा तबके से आने वाले छात्र यहां अल्पमत
में हैं।
यह भी जाहिर है कि विश्वविद्यालय द्वारा हाल में जो बदलाव लाये जा रहे हैं और
जिसके तहत उसकी अनोखी आरक्षण प्रणाली पर भी पुनर्विचार शुरू हो चुका है,
हम अंदाज़ा ही लगा सकते हैं कि इसके परिसर की सामाजिक
संरचना पर बेहद विपरीत नकारात्मक प्रभाव पड़ने वाला है।
सुभाष गाताडे वामपंथी कार्यकर्ता, लेखक और अनुवादक हैं। उनका यह लेख जनपथ पर प्रकाशित है। बतौर साभार यहां प्रकाशित है।–संपादक) |
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