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मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016
शनिवार, 23 जनवरी 2016
ROHIT VEMULA: विरोध के स्वर को मिला देशव्यापी समर्थन, प्रदर्शन जारी
बंडारू दत्तात्रेय, पी. अप्पा राव, स्मृति इरानी को उनके पदों से बर्खास्त
करने की मांग हुई तेज।
वनांचल न्यूज नेटवर्क
नई दिल्ली/इलाहाबाद। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोधार्थी रोहित
वेमुला की खुदकुशी को लेकर केंद्र की मोदी सरकार के दो मंत्रियों और विश्वविद्यालय
प्रशासन के खिलाफ आज भी देश के विभिन्न शहरों में विरोध प्रदर्शन हुआ। लोगों ने
विश्वविद्यालय के कुलपति, केंद्रीय श्रम राज्य मंत्री बंडारू दत्तात्रेय, केंद्रीय
मानव संसाधन एवं विकास मंत्री स्मृति इरानी को उनके पदों से बर्खास्त करने की मांग
की। साथ ही रोहित की खुदकुशी के मामले में आरोपी लोगों को तत्काल गिरफ्तार किया
जाए। उधर केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय ने रोहित के परिजनों को आठ लाख
रुपये का मुआवजा देने और पूरे मामले की न्यायिक जांच कराने का निर्देश दिया है। हैदराबाद,
दिल्ली, लखनऊ, दिल्ली, पूणे, मुंबई, इलाहाबाद, वाराणसी, आदि शहरों में शनिवार को
भी जबरदस्त प्रदर्शन हुए।
हैदराबाद में रोहित वेमुला के साथ निकाले गए छात्रों समेत करीब सैकड़ों लोगों
ने विश्वविद्यालय परिसर में विरोध प्रदर्शन किया। कई छात्र अभी भी अनशन पर बैठे
हुए हैं। दिल्ली में विरोध प्रदर्शन किये गए। शुक्रवार को जेएनयू में भी प्रदर्शन
हुए थे। वहीं इलाहाबाद में आज छात्र युवा, बुद्धिजीवी, पत्रकार, मजदूर, किसान सब एक
साथ सड़क पर निकले। इस दौरान एक प्रतिरोध मार्च निकाला गया जो पीडी टंडन पार्क से
सुभाष बोस चौराहे पर जाकर एक सभा में तब्दील हो गया। इनमें जिया उल हक़, रवि किरण जैन, लेखक दूध नाथ सिंह, प्रलेस अध्यक्ष प्रो. संतोष भदौरिया, प्रो. अली अहमद
फातमी, डा. उर्मिला जैन, प्रो. अनिता
गोपेश, के.के. पांडे, जसम के राष्ट्रीय
महासचिव प्रो. प्रणय कृष्ण, सुरेन्द्र राही, खुर्शीद नकवी, डा. अशफाक हुसैन, डा. फखरुल करीम, इलाहाबाद विवि छात्र संघ अध्यक्ष
ऋचा सिंह, असरार गाँधी, रणविजय सिंह
सत्यकेतु, डा. अनिल पुष्कर, डा. शमेनाज़,
डा. अंशुमान , रोजी रोटी बचाओ संघर्ष मोर्चा
से अनु सिंह गीता, बृजेश ,आरती,
सीमा आज़ाद ,रश्मि मालवीय, अविनाश मिश्र, शहनाज़, उत्पला,
ऋतेश, छात्रसंघ की पूर्व उपाध्यक्ष शालू यादव,
केके त्रिपाठी, मीना राय, नीलम शंकर , अमृता सिंह आदि मौजूद रहे।
गौरतलब है कि पिछले साल अगस्त में रोहित सहित पांच दलित छात्रों को एबीवीपी के
कार्यकर्ताओं से झड़प के बाद निलंबित कर दिया गया था। यह सब दिल्ली विश्वविद्यालय
में 'मुजफ्फरनगर बाकी है' वृत्तचित्र की स्क्रीनिंग पर एबीवीपी के हमले के बाद शुरू
हुआ था। दलित छात्रों ने एबीवीपी के इस कदम की निंदा करते हुए इसके विरोध में
कैम्पस में प्रदर्शन किया था। इसके बाद इन छात्रों को हॉस्टल से दिसंबर में निकाल
दिया गया। गत रविवार को इनमें से एक रोहित वेमुला ने खुदकुशी कर ली थी। इसे लेकर
देश के विभिन्न हिस्सों में छात्र संगठनों समेत अन्य लोगों ने विरोध प्रदर्शन शुरू
कर दिया।
मोदी-गो-बैक का नारा लगाने वाले छात्रों को रिहाई मंच ने किया सम्मानित
असहमति को कुचलने की साजिश का प्रतिवाद है नारा
वनांचल न्यूज नेटवर्क
लखनऊ। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय में मोदी गो बैक का नारा लगाना
वाले छात्र रामकरन, अमरेन्द्र और सुरेन्द्र को रिहाई मंच के अध्यक्ष मोहम्मद
शुऐब ने हजरतगंज स्थित अंबेडकर प्रतिमा स्थल पर शाल ओढ़ाकर सम्मानित किया। रिहाई
मंच नेता शाहनवाज आलम, राजीव यादव, शकील कुरैशी, लक्ष्मण प्रसाद, शबरोज मोहम्मदी, अनिल यादव, दिनेश चैधरी व आमिर अली अजानी ने छात्रों का माल्यार्पण
किया।
छात्रों को सम्मानित करते हुए मुहम्मद शुऐब ने कहा कि मोदी गो बैक का नारा
लगाने वाले दलित छात्रों ने पूरे दलित समाज में आरएसएस और मोदी सरकार के खिलाफ
बढ़ते आक्रोश को व्यक्त किया है। जिसने आने वाले भविष्य का संकेत दे दिया है कि
संघ और भाजपा का इस आंधी में उड़ना तय है। उन्होंने कहा कि छात्रों की नारेबाजी के बाद मोदी का भाषण के दौरान रुककर रोहित
वेमुला की मौत पर अफसोस जताना मोदी की पैतरेबाजी है। जिसे दलित समाज बखूबी समझ रहा
है। दुनिया में फासीवाद को छात्रों ने ही हर दौर में चुनौती दी है। मोदी गो बैक का
नारा लगाने वाले छात्र उसी परम्परा के वारिस हैं।
इस मौके पर सम्मानित छात्र रामकरन, अमरेन्द्र और सुरेन्द्र कहा कि अगर आप संघ की विचारधारा से
सहमत हंै तो आपको प्रोफेसर और वाइस चांसलर बनाया जाता है। विश्वविद्यालय का जिस
तरह भगवाकरण किया जा रहा है उसे तत्काल बंद किया जाए। मोदी गो बैक का नारा क्यों
लगाया इस बात का जवाब देते हुए कहा कि देश में दलितों के साथ हमेशा अन्याय होता
रहा है। अगर हम इस अन्याय के खिलाफ आवाज नहीं उठाएंगे तो कौन उठाएगा। उन्होंने
बताया कि पुलिस ने विरोध करने के बाद हमको गाड़ी में ले जाकर 30 मिनट तक मारा पीटा। छात्रों ने सवाल किया कि मोदी ने
बीबीएयू में रोहित वेमुला के लिए क्यों संवेदना जताई?
जबकि उन्हें तो हैदराबाद जाना चाहिए।
रिहाई मंच प्रवक्ता शाहनवाज आलम ने कहा कि जिस तरीके से लोकतांत्रिक तरीके से
आवाज उठाने वाले छात्रों की पुलिस प्रताड़ना की गई और उन्हें उनके गेस्ट हाउस से
निकाला गया वह इस बात का सबूत है कि हमारी व्यवस्था रोहित वेमुला की मौत से कोई
सबक नहीं ले पाई है। उन्होंने कहा कि जिस तरह से बीबीएयू के वीसी आरसी सोबती ने
छात्रों पर कार्यवाई करने की बात कहते हुए कहा कि जिन लड़कों ने पीएम के खिलाफ
नारे लगाए वे दागी प्रकृति के हैं, उनके खिलाफ केस दर्ज है, यह कहकर उन्होंने साबित किया है कि जिस विश्वविद्यालय के
कुलपति लोकतांत्रिक मूल्यों को नहीं मानते उस विश्वविद्यालय के हालात क्या होंगे।
उन्होंने सवाल किया कि जब कुलपति छात्रों पर यह आरोप लगा रहे हैं कि वे
विश्वविद्यालय में दलित मूवमेंट चला रहे थे तो ऐसे में उन्हें अंबेडकर
विश्वविद्यालय का कुलपति बने रहने का कोई हक नहीं है क्योंकि इन छात्रों ने
अम्बेडकर के विचारों से ही अन्याय का विरोध करने की प्रेरणा ली है।
रिहाई मंच नेता राजीव यादव ने कहा कि अगर मोदी गो बैक का नारा लगाने वाले छात्रों
का करियर खराब करने की कोई साजिश की गई तो उसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। अब कोई
रोहित आत्महत्या के लिए मजबूर नहीं होगा। यह नागरिक अभिनंदन इसी बात का प्रतीक है
कि भगवा आतंक के खिलाफ अब समाज लड़ने को तैयार हो रहा है। उन्होंने छात्रों का
मेडल और डिग्री ससम्मान देने की मांग की।
मोदी गो बैक का नारा लगाने वाले छात्रों के नागरिक अभिनंदन में मैगसेसे पुरस्कार
से सम्मानित संदीप पाण्डे, पीयूसीएल महासचिव वंदना मिश्रा, वरिष्ठ साहित्यकार भगवान स्वरुप कटियार,
सीपीआई एमएल के राजीव, डॉ. एम पी अहिरवार, सीमा चन्द्रा, दिवाकर, नदीम, आरिफ मासूमी, जुबैर जौनपुरी, सैयद मोईद, पीसी कुरील, खालिद कुरैशी, फहीम सिद्दीकी, अनिल यादव, केके वत्स, एस के पंजम, अजीजुल हसन, प्रदीप कपूर, अजय शर्मा, आशीष अवस्थी आदि उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन लक्ष्मण
प्रसाद ने किया।
( प्रेस
विज्ञप्ति)
बुधवार, 20 जनवरी 2016
ROHIT VEMULA: जातिवादी एजेंडे की भेंट चढ़ा राहुल, देशव्यापी प्रदर्शन जारी
बंडारू और कुलपति के खिलाफ केस दर्ज। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पहुंचे
हैदराबाद।
वनांचल न्यूज नेटवर्क
नई दिल्ली। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय का शोध छात्र रोहित वेमुला जातिवादी
सियासतदानों की साज़िश की भेंट चढ़ गया और अब वे जांच कमेटियां बनाकर उसकी खुदकुशी
से उठी आंदोलन की आवाज़ को दबाने की कोशिश में जुट गए हैं। वहीं दूसरी ओर विरोधी
पार्टियों के नेता अपना उल्लू सीधा करने में लग गए हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल
गांधी मंगलवार को धरनारत छात्रों से मिलने हैदारबाद पहुंचे और मृतक रोहित वेमुला
के परिजनों से भी मिले। बसपा, तृणमूल कांग्रेस आदि पार्टियों ने अपने-अपने प्रतिनिधियों
को हैदराबाद भेज दिया है तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी केंद्र
की बीजेपी सरकार पर निशाना साधा। वहीं राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने कहा कि हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी भाजपा-आरएसएस के घोर-जातिवादी एजेंडे की साजिश का नतीजा है।
दूसरी ओर हैदराबाद पुलिस ने दबाव में आकर रोहित के दोस्त प्रशांत की शिकायत पर केंद्रीय श्रम राज्य मंत्री बंडारू दत्तात्रेय, भाजपा विधायक एन रमाचंदर, विश्वविद्यालय के कुलपति पी. अप्पा राव और एबीवीपी (एचसीयू) अध्यक्ष एन सुशील कुमार के खिलाफ गचिबाउली पुलिस थाने में झूठा आरोप लगाने और आत्महत्या के लिए उकसाने की
धारा के तहत मुकदमा पंजीकृत कर लिया है। साथ ही उसने रोहित वेमुला के शव का अंतिम
संस्कार उनके परिजनों की सहमति के बिना ही कर दिया। वहीं केंद्रीय श्रम और रोजगार
राज्य मंत्री दत्तात्रेय ने खुदकुशी के लिए उकसाने के आरोपों से इनकार कर दिया है।
बंडारू दत्तात्रेय पर लगे आरोपों की जांच के लिए केंद्रीय शिक्षा मंत्री स्मृति
इरानी ने जांच समिति का गठन किया है। मामले को लेकर देश के विभिन्न इलाकों में
सोमवार को विरोध प्रदर्शन हुए।
दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने शोध छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी के मामले को ‘लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और समानता की हत्या’ करार दिया है। उन्होंने अपने ट्वीट में कहा, ‘‘यह आत्महत्या नहीं, हत्या है। यह लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और समानता की हत्या है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को मंत्रियों को निलंबित करना चाहिए और देश से माफी मांगनी चाहिए। केजरीवाल ने एक और ट्वीट में कहा, ‘‘दलितों का उत्थान मोदी सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है। इसके बावजूद मोदीजी के मंत्रियों ने पांच दलित छात्रों को बहिष्कृत व निष्कासित किया।"
उधर, कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने ट्वीट किया, "यह तो शुरूआत भर है। कुलपतियों का चयन भाजपा आरएसएस द्वारा किया जा रहा है। शिक्षा के बजाय उनकी रुचि एबीवीपी को बढ़ावा देने में है। सभी छात्र शाखाओं को परिसर में सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए एक साथ आना चाहिए।
शनिवार, 16 जनवरी 2016
डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान की स्टाल से नहीं बेची जा रही 'अनाइलेशन ऑफ कास्ट'
प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेला-2016 में लगी डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान की बुक स्टाल। |
‘अंबेडकर
वांग्मय’ के अब तल छपे 21 अंकों में से
केवल 11 अंक उपलब्ध।
Shiv Das
नई दिल्ली। डॉ.
भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती के मौके पर सांसदों को अंबेडकर के विचारों के
प्रचार-प्रसार का पाठ पढ़ाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सरकार
के मंत्री और नौकरशाह खुलेआम उनके विचारों की हत्या कर रहे हैं। प्रगति मैदान में
चल रहे विश्व पुस्तक मेला-2016 में केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता
मंत्रालय के अधीन डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान के बुक स्टाल पर ‘अंबेडकर वांग्मय’ के करीब एक दर्जन अंक गायब हैं।
इनमें जातिप्रथा का उन्मूलन, हिन्दू धर्म की पहेलियां, अस्पृश्य होने का अर्थ, अछूतों
की जनसंख्या, जाति और संविधान, आदि पुस्तकें शामिल हैं। इसके अलावा ‘अंबेडकर वांग्मय’ के 22 से 40 अंकों के किताबों को
पिछले 15 वर्षों से छपने का इंतजार है। इससे अंबेडकर के विचारों को जानने के
इच्छुक पाठकों में मायूसी देखी जा रही है और वे इसके लिए केंद्र की मोदी सरकार और
आरएसएस को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।
मेला में डॉ. अम्बेडकर
प्रतिष्ठान के बुक स्टाल पर ‘अंबेडकर वांग्मय’ के अब तल छपे 21 अंकों में से केवल 11 अंक ही मौजूद है। वह भी काफी कम मात्रा में। शेष 10 अंकों की प्रतियां
उपलब्ध क्यों नहीं होने के सवाल पर वहां कार्यरत कर्मचारी आलाधिकारियों से बात
करने की बात कहकर जानकारी देने से कतरा रहे हैं। प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित की
जाने वाली मासिक पत्रिका 'सामाजिक न्याय सन्देश' का अक्टूबर, 2015 के बाद कोई भी अंक बाजार में नहीं आया है। इसके अलावा ‘अंबेडकर वांग्मय’ के 22 से 40 अंक के किताबों को
प्रकाशित करने का काम 15 साल पहले ही पूरा हो चुका है लेकिन उन्हें अभी तक छपने का
इंतजार है। प्रतिष्ठान में कार्यरत विश्वसनीय सूत्रों की मानें तो संस्थान के पास
हर साल पर्याप्त फंड होता है लेकिन ‘अंबेडकर वांग्मय’ के प्रकाशक और संपादक दिल्ली के दबाव में इसमें रुचि नहीं ले रहे। हर साल
प्रतिष्ठान को आबंटित होने वाले फंड में महज दस फीसदी ही खर्च हो पाता है। शेष
धनराशि लैप्स हो जाती है। इसके बावजूद स्टाल पर कार्यरत कर्मचारी अम्बेडकर से जुड़ी
पुस्तकों को सस्ती और विश्वसनीय रूप में पाठकों तक पहुचाने के कार्य का दावा कर
रहे हैं।
टीवी पत्रकार महेंद्र मिश्र |
वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल |
युवा पत्रकार अरविंद शेष |
बॉक्सः
अन्य
प्रकाशन उठा रहे मौके का फायदा
नई दिल्ली। अम्बेडकर प्रतिष्ठान पर पुस्तकों के न मिलने का फायदा अन्य
प्रकाशन उठा रहे हैं। अम्बेडकर की जीवनी पर आधारित 'अम्बेडकर संचयन' 1200 रुपये में मिल रही है जबकि
अम्बेडकर वांग्मय की पूरी सिरीज मात्र 500-600 रुपये में मिल
जाती है।
(सूचना संकलन और रिपोर्टिंग सहयोग: बिपिन दुबे)रविवार, 10 जनवरी 2016
गांधीवादी संदीप पांडे को देशद्रोही कहना गांधी का अपमानः रिहाई मंच
"बीएचयू के वीसी संघ के एजेंट। बीएचयू को अंधविश्वासी और मूर्खों की फैक्टरी बनाना चाहते
हैं जीसी त्रिपाठी।"
वनांचल न्यूज नेटवर्क
लखनऊ। जन मुद्दों पर बेबाक बयानबाजी और प्रदर्शन के लिए पहचाने जाने वाले
रिहाई मंच ने बीएचयू प्रशासन द्वारा मैग्सेसे पुरस्कार सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता
और बीएचयू के गेस्ट फैकल्टी संदीप पांडे को बीच सत्र में बर्खास्त किये जाने को
प्रगतिशील मूल्यों के प्रति संघ परिवार पोषित असहिष्णुता का ताजा उदाहरण बताया। मंच
ने इस पूरे प्रकरण पर बीएचयू प्रशासन पर संघ और भाजपा के स्वयंसेवक के बतौर काम
करने का आरोप भी लगाया और इसे मोदी सरकार में अकादमिक पतन की नजीर बताया।
रिहाई मंच की ओर से जारी विज्ञप्ति में मंच के अध्यक्ष मोहम्मद शुऐब ने कहा, "संदीप
पांडे जैसे प्रतिष्ठित गांधीवादी और तर्कवादी फैकल्टी को हटा कर बीएचयू प्रशासन ने
साफ कर दिया है कि वह किसी भी कीमत पर तार्किक और प्रगतिशील विचारों को पनपने नहीं
देगा। उसका मकसद बीएचयू जैसी संस्थान से सिर्फ अंधविश्वासी,
लम्पट, साम्प्रदायिक और मूर्ख खाकी निक्करधारी छात्रों की खेप पैदा
करना है जो संघ परिवार के देशविरोधी कार्यकलापों में आसानी से लग जाएं।"
राजीव यादव ने कहा कि संदीप पांडे को हटाने का निर्णय राजनीतिक है जिसके तहत
उन्हें नक्सली और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त बताया गया है। उन्होंने इसे
अकादमिक स्वतंत्रता पर हमला बताया। उन्होंने विश्वविद्यालय के कुलाधिपति
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मामले में हस्तक्षेप करने और संदीप पांडेय को पुनः
बहाल कराने की मांग की । यादव ने कहा कि जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है तब से
संघ के समाज विरोधी विचारधारा के विरोधियों को शैक्षणिक संस्थानों से हटा कर उनकी
जगह संघ और भाजपा कार्यकताओं को बैठाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि इसी रणनीति के
तहत इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मास कॅम्यूनिकेशन (आईआईएमसी) का निदेशक केवी सुरेश को
बना दिया गया है जिनकी योग्यता महज इतनी है कि वे विवेकानंद फाउंडेशन के सदस्य हैं।
इसके सदस्यों में गुजरात के मुस्लिम विरोधी जनसंहार को आयोजित करने के आरोपी
प्रशासनिक अधिकारी से लेकर नृपेंद्र मिश्रा जैसे घोषित सीआईए एजेंट जैसे लोग हैं। मंच
के नेता ने कहा कि विवेकानंद फाउंडेशन से जुड़े रहे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार
अजित डोभाल के बेटे शौर्य डोभाल के निजी संगठन इंडिया फाउंडेशन भी देश की बौद्धिक
पूंजी को भोथरा करने का अभियान चला रहा है। उन्होंने कहा कि यह अपने आप में जांच
का विषय है। मोदी के अमरीका दौरे के दौरान मेडिसन स्कवायर पर भी शौर्य डोभाल की
कम्पनी ही इवेंट मैनेज करती है और वही पिछले दो साल से देश की सुरक्षा पर डीजीपी
स्तर के अधिकारियों के सम्मेलन को भी आयोजित करती है। उन्होंने कहा कि संघ और
विदेशी कॉरपोरेट पूंजी की बड़ी बड़ी लॉबियां भारतीय मेधा और बौद्धिक शक्ति को अपने
अनुरूप ढालने का अभियान चला रही हैं और इसमें रोड़ा लगने वाले लोगों को जबरन हटा
रही हैं।
वहीं, इंसाफ अभियान के प्रदेश महासचिव और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र
नेता दिनेश चौधरी ने कहा, बीएचयू जैसे विश्वविद्यालय का यह दुर्भाग्य है कि उसे
जीसी त्रिपाठी जैसा कुलपति मिला है जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इकोनॉमिक्स विभाग
के औसत से भी कम दर्जे के शिक्षक रहे हैं। उन्हें उनके छात्र भी गम्भीरता से नहीं
लेते थे। उन्होंने कहा कि जीसी त्रिपाठी सिर्फ संघ के पुराने कार्यकर्ता होने की
पात्रता के कारण कुलपति बनाए गए हैं।
शुक्रवार, 8 अगस्त 2014
बंद रास्तों की राह दिखा गए सुनील
चौधरी राजेन्द्र |
मिश्रित
अर्थव्यवस्था से सामाजिक सरोकारों को पूरा नहीं किया जा सकता? सामाजिक सरोकारों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन की जरूरत होती है। 6
दिसम्बर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ और भारत की मिश्रित
अर्थव्यवस्था का परिदृश्य एक नए आर्थिक मॉडल के पथ पर आगे बढ़ने लगा। इसको हम
मनमोहन मॉडल के रूप में जानते हैं। हालांकि इस मॉडल की पृष्ठभूमि मिश्रित
अर्थव्यवस्था के रूप में देश की आजादी के समय ही तैयार हो गई थी जिसे 1947 के बाद
तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने लागू कर दिया...
written by Chaudhary Rajendra
आगे रास्ता बंद है! बंद
रास्ते की तलाश में मैं 1993 में ही सीतापुर के नेमिषारण जाना चाह रहा था क्योंकि
वेद व्यास ने वहां महाभारत के दर्शन की रचना की थी और मैं उसे समझना चाह रहा था।
हालांकि 2007 के पहले यह संयोग नहीं बन पाया। आज से करीब सात साल पहले जनवरी-फरवरी
महीने में कुछ समाजवादी चिंतकों ने काशी से कुशीनगर तक 28 दिनों की सह-सहयोग
यात्रा निकाली। इसी दौरान नेमिषारण मेरा भी जाना हुआ। वापसी के समय मैं
सह-सहयोग यात्रा में मऊ में शामिल हुआ और पूरी यात्रा के दौरान आगे का रास्ता क्या
होगा? पर चर्चा करता रहा। यह बहस उस समय केवल वातावरण में ही
विद्यमान रही, इसकी जमीन तैयार नहीं हो सकी।
करीब डेढ़ साल बाद नवंबर,
2008 में काशी विश्व विद्यालय ( काशी हिन्दू विश्व विद्यालय नहीं क्योंकि इसकी
स्थापना काशी विश्व विद्यालय के नाम से ही हुई थी) स्थित अर्थशास्त्र विभाग की
प्रमुख प्रो. किरन वर्मन और सामाजिक कार्यकर्ता लोलारक द्विवेदी के संयुक्त प्रयास
से “इंडियन इकोनॉमी इन दी ट्वेन्टी फर्स्ट सेंचुरीः प्रॉस्पेक्टिव
ऐंड चैलेन्जेज” विषयक एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें
मुख्य वक्ता के रूप में समाजवादी चिंतक सुनील ने शिरकत की।
परिचर्चा में साथी सुनील ने आर्थिक मंदी और उसके विभिन्न कारणों का बखूबी विश्लेषण किया। आगे रास्ता क्या होगा? संभवतः इसकी परिकल्पना भी उनके दिमाग में थी। दुनिया में पहली बार आयी विश्वव्यापी आर्थिक मंदी (1929) और वर्तमान आर्थिक मंदी (2009) के बीच अंतराल लगभग 100 वर्ष का है। इसलिए दोनों आर्थिक मंदियों के कारणों की चर्चा की जाए। इसके लिए जरूरी है कि उनका तथ्यात्मक परीक्षण भी किया जाए।
परिचर्चा में साथी सुनील ने आर्थिक मंदी और उसके विभिन्न कारणों का बखूबी विश्लेषण किया। आगे रास्ता क्या होगा? संभवतः इसकी परिकल्पना भी उनके दिमाग में थी। दुनिया में पहली बार आयी विश्वव्यापी आर्थिक मंदी (1929) और वर्तमान आर्थिक मंदी (2009) के बीच अंतराल लगभग 100 वर्ष का है। इसलिए दोनों आर्थिक मंदियों के कारणों की चर्चा की जाए। इसके लिए जरूरी है कि उनका तथ्यात्मक परीक्षण भी किया जाए।
उक्त गोष्ठी में मेरी भांजी चंद्रकला ने भी अर्थशास्त्र की शोध छात्रा के रूप में शिरकत की थी। उसे मैंने समझाया था कि दोनों आर्थिक मंदियों के कारण भिन्न-भिन्न हैं। प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के बाद या यूं कहें कि वोल्शेविक क्रांति के बाद दुनिया में उसके दुष्परिणाम सामने आए। करोड़ों लोग मारे गए थे।
संभवतः वह विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का प्रमुख कारण था। पेरिस शांति समझौता के बाद इस मंदी को उबारने के लिए महान अर्थशास्त्री केन्स ने पूर्ण रोजगार का सिद्धांत प्रतिपादित किया। गौर करने वाली बात है कि "केन्स बाजार का प्रवर्तक है और बाजार से समता नहीं आती।" परन्तु विश्व को आर्थिक रूप से उबारने के लिए मित्र राष्ट्र का जो फार्मूला था, वह कारगर दिशा की ओर अग्रसर हुआ।
सुनील भाई |
दुनिया में बाजार का दौर शुरू हो चुका था। वैज्ञानिक समाजवाद पीछे छूट गया था। राष्ट्र अपनी-अपनी पूंजी बढ़ाने में लगे थे। चाहे वह अमेरिका रहा हो या फिर सोवियत संघ! तीसरी दुनिया के देशों में भी इस नवउदारवाद का गहरा प्रभाव पड़ा। संभवतः यह बड़े राष्ट्रों द्वारा छोटे राष्ट्रों के शोषण की शुरुआत थी।
भारत में 1991 की घटना के बाद या यूं कहें कि मंडल कमीशन की सिफारिशों के लागू होने के बाद एक नए राजनीतिक परिदृश्य का जन्म हुआ। अभी हम मिश्रित अर्थव्यवस्था से आगे बढ़ रहे थे। मिश्रित अर्थव्यवस्था से सामाजिक सरोकारों को पूरा नहीं किया जा सकता? सामाजिक सरोकारों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन की जरूरत होती है। इसे महसूस किया गया।
लिहाजा 6 दिसम्बर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ और भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था का परिदृश्य एक नए आर्थिक मॉडल के पथ पर आगे बढ़ने लगा। इसको हम मनमोहन मॉडल के रूप में जानते हैं। हालांकि इस मॉडल की पृष्ठभूमि मिश्रित अर्थव्यवस्था के रूप में देश की आजादी के समय ही तैयार हो गई थी जिसे 1947 के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने लागू कर दिया।
सन् 1992 के बाद राजसत्ता की ताकत उन्हीं हाथों में थी और उन्हें आर्थिक संसाधनों की तलाश थी। मिश्रित अर्थव्यवस्था में विकास दर 4 प्रतिशत थी। इसे बढ़ाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिन्हा राव ने बाजार का सहारा लिया और अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने इस देश को नवउदारवाद, वैश्वीकरण और बाजारवाद में पूर्ण रूप से झोंक दिया।
इसी बहस को आगे बढ़ाते हुए साथी सुनील ने गोष्ठी में भारतीय मॉडल को पेश किया। उन्होंने कहा कि आगे रास्ता बंद है और बाजार समता नहीं ला सकती। कुछ लोगों को लूट के जरिए आगे बढ़ाने से अच्छा है कि हम पीछे लौटें। हमको पीछे लौटने में क्या गुरेज है? कटोरा लेकर भीख मांगने से अच्छा है, हम पीछे लौट लें। संभवतः सुनील अर्थशास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते मार्क्स-गांधी-लोहिया के संयुक्त सिद्धांत को आगे बढ़ाने की बात कह रहे थे।
उन्ही दिनों उनके एक साथी समरेन्द्र की किताब “आउट ऑफ दिस अर्थ” का विमोचन प्रो. दीपक मलिक ने अस्सी घाट पर आयोजित एक कार्यक्रम में किया। यह किताब नियमगिरि पर्वत के बहाने पूंजीघरानों द्वारा प्रकृति के चीरहरण से खड़ा की जाने वाली एक नई आर्थिक व्यवस्था के खतरे की ओर इशारा करती है। प्राकृतिक संसाधनों की यह लूट केवल नियमगिरि में ही नहीं, बल्कि देश के विभिन्न हिस्सों में चल रही है।
साथी सुनील से मेरी दूसरी मुलाकात समाजवादी चिंतक अफलातून की बिटिया की शादी में हुई। उसमें केवल एक चर्चा हमने की थी कि आप तीनों, सीताराम येचूरी, प्रकाश कारात एवं सुनील, एक ही गुरु के शिष्य हैं लेकिन तीनों की सोच में अद्भूत अंतर है। समाजवादी चिंतक सुनील ने स्वीकार किया कि हम लोग जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रो. प्रभात पटनायक के शिष्ट रहे हैं। हालांकि हम लोगों के बीच दो-तीन वर्षों का अंतर है।
मेरी तीसरी मुलाकात उनसे समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय अधिवेशन (सर्व सेवा संघ, राजघाट, वाराणसी) में हुई। इन्ही दिनों हमारे गांव का मंदिर टूट गया। मंदिर किसी गांव की आत्मा होती है। आत्मा का टूटना अशुभ का संकेत माना जाएगा। मैं 1991 के बाद आजाद भारत के नवउदारवाद का विश्लेषण देख रहा था। मैं देख रहा था कि यह देश भारत के नौजवानों को किस ओर ले जा रहा है। मूल्य गिर रहे थे।
वैचारिकता का अभाव साफ दिख रहा था। मैं तीन दिन उसी कार्यक्रम में रहा लेकिन समाजवादी जन परिषद का सदस्य नहीं बना। सुनील और उनके सभी साथियों का आग्रह था कि आप संगठन में शामिल हो जाएं। मैं सभी साथियों के साथ चर्चा में अवश्य रहा लेकिन संगठन की सदस्यता ग्रहण नहीं किया।
उसी के कुछ दिन पहले गोवा में बीजेपी का राष्ट्रीय अधिवेशन हो रहा था। उसमें भूचाल आया हुआ था। आरएसएस ने प्रधानमंत्री के रूप में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रोजेक्ट करने का फैसला कर लिया था जबकि आडवाणी खेमा उस फैसले के विरोध में खड़ा था और मानमनौवल जारी था। वहीं राजग से नीतीश कुमार की दूरी चर्चा का विषय बन चुकी थी। मोदी और नीतीश एक साथ नहीं रह सकते थे।
देश हतप्रभ था। समाजवादी चिंतक और वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन इस बात से चिंतित थे कि नीतीश कुमार अब क्या करेंगे। वह कल्पना नहीं कर पा रहे थे कि पिछड़ों का मॉडल इस देश को स्वीकार है कि नहीं। हालांकि नीतीश का मॉडल देश का मॉडल नहीं हो सकता। मणिक सरकार और चंद्रबाबू नायडू या यूं कहें कि तमिलनाडु का मॉडल देश का मॉडल नहीं बन सकता। फिर भी ऐसे मॉडलों से अरविन्द मोहन जैसे समाजशास्त्री और बुद्धिजीवी परेशान थे।
इन विश्लेषणों में न जाया जाए तो एक बात साफ थी कि समरेन्द्र की किताब और उनके साथियों द्वारा वेदांता के खिलाफ चलाया जा रहा आंदोलन अधिवेशन में चर्चा के विषय बने रहे। इंग्लैंड में वेदांता के खिलाफ आंदोलन की अगुआई कर रही मीरियम रोज और उनकी साथी भी इस अधिवेशन का हिस्सा बनीं।
अधिवेशन का प्रतिफल जो भी रहा हो लेकिन समाजवादी जन परिषद अंदर और बाहर दोनों तरफ लड़ाई शुरू करना चाह रहा था। हालांकि इसके लिए आवश्यक संगठन अभी तैयार नहीं था। उसके भी कारण में मेरे गांव का मंदिर टूटना है, ऐसा मुझे लगता है। उन दोनों को आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण और बाजारीकरण के रूप में देखा जा सकता है। देश का मूल्य टूट चुका था और नए सृजन की तलाश की जा रही थी?
साथी सुनील से मेरी चौथी मुलाकात चंचल मुखर्जी की किताब की दुकान पर हुई जो बहुत महत्वपूर्ण और जरूरत की थी। अर्जक संघ के साथियों के साथ संभवतः उनकी अंतिम मुलाकात थी। इस मुलाकात में समाजवादी चिंतक सुनील की बहुत सारी बातें सामने आईं। अर्जक संघ के साथियों ने भी उन्हें काफी प्रभावित किया। साथी सुनील ने कबीर के एक दोहे से अपनी बात खत्म की-
“साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप स्वभाव,
सार-सार को गहि रहै, थोता
देहि उड़ाए।”
आज मैं उनके विश्लेषण का आकलन करता हूं कि “प्रयोगधर्मी के रूप में सुनील ने समाज में एक नया आयाम पैदा किया। कल क्या होगा, परिस्थितियां क्या बनेंगी, कैसे बनेंगी, यह गर्भ में है! लेकिन रास्ते की तलाश में सुनील भी हैं? और उनका रुचिकर ध्येय है!
बंद रास्ते की तलाश अधूरी है या पूर्ण होगी, यह गांधी के शिष्यों पर निर्भर करेगा।
“सुनील नहीं हैं, परन्तु यादे हैं।”
यादें
नई सृजन की जमीन तय करेंगी?
(लेखक पूर्व छात्रनेता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)
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सोमवार, 4 अगस्त 2014
मैं नास्तिक क्यों हूं?
(नोटः भगत सिंह ईश्वर के अस्तित्व को सिरे से नकारते थे। उन्होंने यह लेख जेल में
रहते हुए लिखा था जो उनके लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में शुमार रहा है। इस लेख
में उन्होंने ईश्वर के प्रति अपनी धारणा और तर्कों को सामने रखा है। यहां इस लेख
का कुछ हिस्सा प्रकाशित किया जा रहा है....)
मेरे प्रिय दोस्तों! ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं।
ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूंजी
तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। जी हां,
शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था जिसने
किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस अमरता (आत्मा की) में विश्वास दिला दो और उसके
बाद उसका सारा धन-संपत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता
करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल,
फांसीघर,
कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं...
भगत सिंह
प्रत्येक
मनुष्य, जो
विकास के लिए खड़ा है, को
रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उनपर अविश्वास करना होगा और उनको
चुनौती भी देनी होगी। प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी
पर कसना होगा। यदि काफी तर्क के बाद भी वह किसी सिद्धांत या दर्शन के प्रति
प्रेरित होता है तो उसके विश्वास का स्वागत है। उसका तर्क असत्य,
भ्रमित
या छलावा और कभी-कभी मिथ्या हो सकता है लेकिन उसको सुधारा जा सकता है क्योंकि विवेक
उसके जीवन का दिशा-सूचक है। हालांकि निरा विश्वास और अंधविश्वास ख़तरनाक है। यह
मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य यथार्थवादी
होने का दावा करता है, उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी।
यदि वे
तर्क का प्रहार न सह सके तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे। तब उस व्यक्ति का
पहला काम होगा, तमाम
पुराने विश्वासों को धराशायी करके नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना। यह तो
नकारात्मक पक्ष हुआ। इसके बाद सही कार्य शुरू होगा। इसमें पुनर्निर्माण के लिए
पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है। जहां तक मेरा संबंध है,
मैं
शुरू से ही मानता हूँ कि इस दिशा में मैं अभी कोई विशेष अध्ययन नहीं कर पाया हूं।
एशियाई
दर्शन को पढ़ने की मेरी बड़ी लालसा थी लेकिन ऐसा करने का मुझे कोई संयोग या अवसर
नहीं मिला। हालांकि जहां-तक इस विवाद के नकारात्मक पक्ष की बात है,
मैं
प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न उठाने के संबंध में आश्वस्त हूं। मुझे पूरा
विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा,
जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है,
का
कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगति का ध्येय
मनुष्य द्वारा, अपनी
सेवा के लिए, प्रकृति
पर विजय पाना है। इसको दिशा देने के लिए पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा
दर्शन है।
हां-तक
नकारात्मक पहलू की बात है, हम
आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं- (i)
यदि,
जैसा
कि आपका विश्वास है, एक
सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक
एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की तो कृपा करके मुझे
यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों
और आफतों से भरी इस दुनिया में असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित
एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं। कृपया, यह
न कहें कि यही उसका नियम है।
यदि वह किसी नियम में बंधा है तो वह सर्वशक्तिमान
नहीं। फिर तो वह भी हमारी ही तरह गुलाम है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका
शग़ल है। नीरो ने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था। उसने चंद लोगों की हत्या की थी।
उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने
शौक और मनोरंजन के लिए। उसका इतिहास में क्या स्थान है?
उसे
इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी
विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं। जालिम,
निर्दयी,
शैतान-जैसे
शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ-के पृष्ठ रंगे पड़े हैं।
एक चंगेज़ खां ने अपने
आनंद के लिए कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब फिर
तुम उस सर्वशक्तिमान अनंत नीरो, जो हर दिन,
हर
घंटे और हर मिनट असंख्य दुख देता रहा है और अभी भी दे रहा है,
को
किस तरह न्यायोचित ठहराते हो? फिर
तुम उसके उन दुष्कर्मों की हिमायत कैसे करोगे जो हर पल चंगेज़ के दुष्कर्मों को भी
मात दिए जा रहे हैं?
इसलिए मैं पूछता हूं, ‘‘उस
परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया?
आनंद
लुटने के लिए? तब
उसमें और नीरो में क्या फर्क है?"
मैं पूछता हूं कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी-ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है,
अनंत
और गहन वेदना का घर है? सर्वशक्तिमान
ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी?
इन सब
बातों का तुम्हारे पास क्या जवाब है? तुम
यह कहोगे कि यह सब अगले जन्म में, इन
निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और गलती करने वालों को दंड देने के लिए हो
रहा है। ठीक है, ठीक
है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे जो हमारे शरीर को जख्मी करने का
साहस इसलिए करता है कि बाद में इस पर बहुत कोमल तथा आरामदायक मलहम लगाएगा?
ग्लैडिएटर
संस्था के व्यवस्थापकों तथा सहायकों का यह काम कहां तक उचित था कि एक भूखे-खूंखार
शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो। यदि वह उस जंगली जानवर से बचकर अपनी जान बचा लेता
है तो उसकी खूब देख-भाल की जाएगी?
इसलिए मैं पूछता हूं, ‘‘उस
परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया?
आनंद
लुटने के लिए? तब
उसमें और नीरो में क्या फर्क है?’’
मुसलमानों
और ईसाइयों! हिंदू-दर्शन के पास अभी और भी तर्क हो सकते हैं। मैं पूछता हूं कि
तुम्हारे पास ऊपर पूछे गए प्रश्नों का क्या उत्तर है?
तुम
तो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर
सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्व जन्मों के कुकर्मों का
फल है। मैं तुमसे पूछता हूं कि उस सर्वशक्तिशाली ने विश्व की उत्पत्ति के लिए छः
दिन मेहनत क्यों की और यह क्यों कहा था कि सब ठीक है। उसे आज ही बुलाओ,
उसे
पिछला इतिहास दिखाओ। उसे मौजूदा परिस्थितियों का अध्ययन करने दो।
फिर हम देखेंगे
कि क्या वह आज भी यह कहने का साहस करता है- सब ठीक है। कारावास की काल-कोठरियों से
लेकर, झोपड़ियों
और बस्तियों में भूख से तड़पते लाखों-लाख इंसानों के समुदाय से लेकर,
उन
शोषित मजदूरों से लेकर जो पूंजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को
धैर्यपूर्वक या कहना चाहिए, निरुत्साहित
होकर देख रहे हैं।
उस
मानव-शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति,
जिसे
तनिक भी सहज ज्ञान है, भय
से सिहर उठेगा। अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बांटने के बजाय समुद्र में
फेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक-जिनकी नींव मानव की
हड्डियों पर पड़ी है...उसको यह सब देखने दो और फिर कहे-‘‘सबकुछ
ठीक है।’’ क्यों
और किसलिए? यही
मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो? ठीक
है तो मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूं।
हिंदुओं! तुम कहते हो कि
आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, वे
पूर्वजन्म के पापी हैं। ठीक है। तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु
पुरुष थे, इसलिए वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके
पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और
अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है लेकिन हमें यह विश्लेषण
करना है कि ये बातें कहां तक टिकती हैं।
न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध
विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर केवल तीन-चार कारणों
से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की
निंदा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है।
केवल सुधार
करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है। इसका उद्देश्य
अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। यदि
हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर
द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है?
तुम
कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली,
पेड़,
जड़ी-बूटी
या जानवर बनाकर पैदा करता है।
तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो। मैं पूछता हूं
कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है?
तुम
ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म
में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक
भी नहीं?
अपने पुराणों से उदाहरण मत दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान
नहीं है। क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है?
गरीबी
एक अभिशाप है, वह
एक दंड है।
मैं पूछता
हूं कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र
या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की प्रशंसा आप कहां तक करेंगे जो किसी ऐसी
दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे। वह अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को
बाध्य करे? क्या
तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या
उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर-अनुभव से
सीखनी थीं? तुम
क्या सोचते हो?
किसी
गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे
एक चमार या मेहतर, के यहां पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा?
चूंकि
वह गरीब हैं, इसलिए
पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊंची
जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊंचा समझते हैं। उसका अज्ञान,
उसकी
गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते
हैं। मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा?
ईश्वर,
वह
स्वयं या समाज के मनीषी?
उन लोगों
के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर
अज्ञानी बनाए रखा। उन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों-वेदों के कुछ वाक्य
सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सजा भुगतनी पड़ती थी?
यदि
वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा?
मेरे प्रिय दोस्तों! ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं।
ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूंजी
तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। जी हां,
शायद
वह अपटन सिंक्लेयर ही था जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता
में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसका सारा धन-संपत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाए
इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के
गठबंधन से ही जेल, फांसीघर,
कोड़े
और ये सिद्धांत उपजते हैं।
मैं पूछता
हूं कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब
वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? ये
तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर
लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने
वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया?
मैं पूछता हूं कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं
रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है?
ये
तो वह बहुत आसानी से कर सकता है।
उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने
के उन्माद को समाप्त किया। इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली
विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया? उसने
अंग्रेज़ों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की?
वह
क्यों नहीं पूंजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के
साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल
सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन
समस्त मानव-समाज को पूंजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करें
आप समाजवाद
की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता
हूं कि वह इसे लागू करे। भगत सिंह का जन्म एक सिख परिवार में हुआ जो आर्यसमाज में
आस्था रखता था। जहां तक जनसामान्य की भलाई की बात है,
लोग
समाजवाद के गुणों को मानते हैं लेकिन वह इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर
इसका विरोध करते हैं।
चलो,
आपका
परमात्मा आए और वह हर चीज को सही तरीके से कर दें। अब घुमा-फिराकर तर्क करने का
प्रयास न करें, वह
बेकार की बातें हैं। मैं आपको यह बता दूं कि अंग्रेजों की हुकूमत यहां इसलिए नहीं
है कि ईश्वर चाहता है, बल्कि
इसलिए कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं है। वे हमें
अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं, बल्कि बंदूकों,
राइफलों,
बम
और गोलियों, पुलिस
और सेना के सहारे रखे हुए हैं।
यह हमारी ही उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध
सबसे निंदनीय अपराध-एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचारपूर्ण
शोषण-सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहां है ईश्वर?
वह
क्या कर रहा है? क्या
वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मजा ले रहा है?
वह
नीरो है, चंगेज
है तो उसका नाश हो।
क्या तुम
मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति और मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे
करता हूं? ठीक
है, मैं तुम्हें
बतलाता हूं। चार्ल्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसको
पढ़ो। सोहन स्वामी की ‘सहज
ज्ञान’ पढ़ो।
तुम्हें इस सवाल का कुछ सीमा तक उत्तर मिल जाएगा। यह (विश्व-सृष्टि) एक प्राकृतिक
घटना है। विभिन्न पदार्थों के, निहारिका
के आकार में, आकस्मिक
मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास
देखो।
इसी प्रकार की घटना का जंतु पैदा हुए और एक लंबे दौर के बाद मानव। डारविन की
‘जीव की उत्पत्ति’
पढ़ो।
सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति से लगातार संघर्ष और उस पर विजय पाने की चेष्टा
से हुआ। यह इस घटना की संभवतः सबसे संक्षिप्त व्याख्या है। तुम्हारा दूसरा तर्क यह
हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा या लंगड़ा पैदा होता है, यदि यह उसके पूर्वजन्म
में किए कार्यों का फल नहीं है तो?
जीवविज्ञान-वेत्ताओं
ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाला है। उनके अनुसार, इसका सारा दायित्व
माता-पिता के कंधों पर है जो अपने उन कार्यों के प्रति लापरवाह अथवा अनभिज्ञ रहते
हैं। वे बच्चे के जन्म के पूर्व ही उसे विकलांग बना देते हैं। स्वभावतः तुम एक और
प्रश्न पूछ सकते हो-यद्यपि यह निरा बचकाना है। वह सवाल यह कि यदि ईश्वर कहीं नहीं
है तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा
उत्तर संक्षिप्त तथा स्पष्ट होगा-जिस प्रकार लोग भूत-प्रेतों तथा दुष्ट-आत्माओं
में विश्वास करने लगे, उसी प्रकार ईश्वर को मानने लगे।
अंतर केवल इतना है कि ईश्वर
में विश्वास विश्वव्यापी है और उसका दर्शन अत्यंत विकसित। ईश्वर की उत्पत्ति के
बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं,
दुर्बलताओं
और कमियों को समझने के बाद, परीक्षा
की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को उत्साहित करने,
सभी
खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बांधने
के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की।
कुछ उग्र
परिवर्तनकारियों (रेडिकल्स) के विपरीत मैं इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की
प्रतिभा को नहीं देता जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने
प्रभुत्व में रखना चाहते थे। वे उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन
चाहते थे। यद्यपि मूल बिंदु पर मेरा उनसे विरोध नहीं है कि सभी धर्म, सम्प्रदाय,
पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएं अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा
वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप
रहा है।
ईश्वर की
उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं
व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को
उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में
उसके विस्फोट को बांधने के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की। अपने
व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की कल्पना एवं चित्रण बढ़ा-चढ़ाकर
किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक
डरानेवाले के रूप में किया जाता है ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए।
जब उसके
अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता,
माता,
भाई,
बहन,
दोस्त
तथा सहायक की तरह किया जाता है। इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के
विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से
सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है,
उसे
सहारा देगा, जो
कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है।
वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए
उपयोगी था। विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है। समाज को
इस ईश्वरीय विश्वास के विरुद्ध उसी तरह लड़ना होगा जैसे कि मूर्ति-पूजा तथा धर्म-संबंधी
क्षुद्र विचारों के विरुद्ध लड़ना पड़ा था।
मेरे
दोस्तों! यह
मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। मैं नहीं जानता कि ईश्वर
में विश्वास और रोज़-बरोज़ की प्रार्थना, जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी
और गिरा हुआ काम मानता हूं, मेरे लिए सहायक सिद्घ होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर
देगी।
इसी प्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और
यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी
कष्टों, परेशानियों
का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमें परिस्थितियां उसे पलट सकती हैं। मेरी स्थिति
आज यही है। यह मेरा अहंकार नहीं है।
मैंने उन
नास्तिकों के बारे में पढ़ा है जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अतः
मैं भी एक मर्द की तरह फांसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊंचा किए खड़ा रहना
चाहता हूं। देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूं।
मेरे एक दोस्त ने मुझे
प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा,
‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को
मानने लगोगे’।
मैंने कहा, ‘नहीं
प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा। ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी। स्वार्थ
के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूंगा।’ पाठको
और दोस्तो, क्या
यह अहंकार है? अगर
है तो मैं इसे स्वीकार करता हूं।
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